"हम तो सिर्फ़ वर्तमान में जीते हैं - आज, अभी, यहीं। कल किसने देखा है!"
अक्सर लोग यह कह कर समझते हैं कि कुछ अच्छा बोला। ऊँची बात बोली, तो प्रशंसा की अपेक्षा भी होती है, और अगर आप ने प्रशंसा न की तो आप के मानसिक स्तर को निचले दर्जे का माना जाने की पूरी संभावना है।
वर्तमान में जीना अच्छी बात है, मगर भविष्य के लिए सोचना, भविष्य के लिए योजना बनाना कोई बुरी बात नहीं।
इसी तरह अतीत पर गर्व करके प्रेरणा पाना, संबल जुटाना और आत्मविश्वास बढ़ाना भी कोई अपराध नहीं।
बुराई अतीत में जीने में है, उस पर गर्व करने में नहीं। यह उतना ही बुरा है जितना भविष्य में जीना, सपनों में।
अतीत हमेशा गौरवशाली होता है और भविष्य स्वर्णिम, सबका। ऐसा ही होना भी चाहिए, वर्ना न तो प्रेरणा मिलेगी और न आत्मबल, जो सीधे जोड़ता है आत्मविश्वास से।
आशा और प्रेरणा ही यदि न रहें, तो जीवन की गति सिवा नैराश्य और असफलता के और कुछ नहीं हो सकती और यह परिणति अभीप्सित नहीं है।
इसलिए यह समझना ज़रूरी है कि यदि हम वर्तमान में जीने की कला सिखा रहे हैं अपनी अगली पीढ़ी को, यह कह कर कि "कल किसने देखा है?" तो हम उन्हें अधिक व्यावहारिक नहीं बना रहे - जिसे "प्रैक्टिकल" होना कहते हैं, वरन् हम अनजाने ही उन्हें संशयग्रस्त जीवन में ढकेल रहे हैं।
ऐसी स्थिति में कि वे अनिर्णय में झूलते रहें, न भविष्य को सँवारने का प्रयास कर सकें और न अपनी परम्पराओं व संस्कृति को पहचान कर उस पर गर्व कर सकें, अपनी पीढ़ी को जानबूझ कर कोई भी भेजना चाहेगा, ऐसा मुझे तो नहीं लगता।
यह मानसिकता बहुधा एक परोक्ष कारण बनती है नौजवानों के अवसादग्रस्त हो जाने, स्ट्रेस में आ जाने, रोगी हो जाने और नशाख़ोर-ड्रग एडिक्ट तक बन जाने में।
यथासंभव यह ब्लॉग हिन्दी में, हिन्दी हेतु रहेगा। सर्च इंजनों या अन्य तकनीकी कारणों से कुछ कोटि-शब्द अंग्रेज़ी में भी हो सकते हैं। मूलत: यह एक इलाहाबादी ब्लॉग है उस संगम के तीर(तट) से, जिसमें पवित्र नदियों गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती का मिलन होता है जो यहाँ की साहित्यिक-सांस्कृतिक अन्तर्धारा में प्रवाहित है।
साथी
Saturday, April 24, 2010
Friday, April 23, 2010
विदाई समारोह
भाग्य-विधाता : आज फूल नहीं लाया हूँ
आज फूल नहीं फल लाया हूँ।
गर्मी के मौसम में होने वाला ये बेल का फल प्राचीन भारतीय आयुर्वेद में वर्णित तीन अमृत-फलों में से एक है। इसकी ख़ूबियों से तो ज़्यादातर लोग वाकिफ़ होंगे, मगर ज़रा डाल पे इसकी ख़ूबसूरती तो देखिए!
आप कह सकते हैं कि डाल पे तो हर चीज़ ख़ूबसूरत लगती है!
हाँ लगती तो है, मगर ख़ुद कटी हुई डाल या गिरा हुआ पेड़?
जनाब, वो भी ख़ूबसूरत लगता है, अगर आप उसका हौसला देखें कि जिस इन्सान ने उसे काट डाला हो, उसे नज़र-अन्दाज़ करके अपनी सारी जिजीविषा से वो पेड़ किस ऊर्जा का, किस कोशिश का परिचय देता है वापस अपनी जद्दोजहद शुरू करने में - ताकि वो उसी इन्सान की नस्लों को छाँह और पंछियों को आसरा दे सके।
इसीलिए आज ये तीसरी तस्वीर भी लाया हूँ - जिसमें उखड़े पड़े पेड़ से निकलती झूमती टहनियों को जैसे गर्मी की तकलीफ़ों से अगर सरोकार है तो सिर्फ़ इतना कि वो उस गर्मी में छाँह देने के अपने फ़र्ज़ को और शिद्दत से महसूस कर रही हैं और डाल, या धीरे-धीरे फिर से पूरा पेड़ बनने की कोशिश में लगी हैं।
ये नज़र-नज़र की बात है कि आप क्या देखते हैं, दर्द या राहत, ग़म या ख़ुशी, हार या हौसला!
ये नज़र-नज़र की बात है कि आप क्या देखते हैं, दर्द या राहत, ग़म या ख़ुशी, हार या हौसला!
जैसा हम देखते हैं, वैसा ही सोचते हैं; जैसा सोचते हैं, वैसा ही चुनते हैं और जैसा चुनते हैं, वैसा ही पाते भी हैं।
आप ही हैं अपने भाग्य-विधाता।
जब चु्नना अपने हाथ में है तो क्यों न बेहतर चुनाव किए जाएँ और उदासी न बाँटकर, उम्मीद बाँटी जाए!
http://www.google.com/profiles/HIMANSHU27
http://sangam-teere.blogspot.com/
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Thursday, April 22, 2010
अंग्रेज़ी ब्लॉग
सवाल था कि अंग्रेज़ी लेखन के लिए ब्लॉग अलग हो या नहीं, इसी ब्लॉग में अंग्रेज़ी लेबल लगा कर पोस्टों को समेकित ही रखा जाय। बहुत ऊहापोह नहीं रही, जल्दी ही तय पाया गया कि अंग्रेज़ी पोस्टों को अलग रखने से शुद्धता क़ायम रहेगी हिन्दी की।
शुचितावादियों के भय से नहीं, स्वत:स्फूर्त प्रेरणा से ओतप्रोत होकर हमने तय पाया कि अंग्रेज़ी लेखन अलग ही रहेगा जैसे अण्डा-प्याज़ दादी के चौके से। ये अलग बात है कि हम से वैसे भी ये सब चीज़ें दूर ही हैं, खान-पान और सोच-विचार हर स्तर पर।
नाम रखने को लेकर अटके हैं। नाम देसी-परदेसी रखने की धारा पर सोच ले जा रही है, कभी लगता है कि पूरा परदेसी ही रख दें तो कभी लगता है कि पूरे देसी हैं तो पूरा देसी नाम ही रखा जाय।
कोई ऐसा नाम मिल जाता जो देस-परदेस में समान लोकप्रिय होता तो मज़ा आ जाता - जैसे महिला नामों में शीला, रीता(टा), अनीता, सारा इत्यादि नाम सब जगह चल जाते हैं।
ठहरे गंगा किनारे वाले, सो घूम-फिर कर गंगा मैया के दुआरे ही आ फटकते हैं। अब यहीं का कोई नाम रख लेंगे। नाम में वैसे भी क्या रखा है। वैसे त्रिवेणी कैसा रहेगा?
शुचितावादियों के भय से नहीं, स्वत:स्फूर्त प्रेरणा से ओतप्रोत होकर हमने तय पाया कि अंग्रेज़ी लेखन अलग ही रहेगा जैसे अण्डा-प्याज़ दादी के चौके से। ये अलग बात है कि हम से वैसे भी ये सब चीज़ें दूर ही हैं, खान-पान और सोच-विचार हर स्तर पर।
नाम रखने को लेकर अटके हैं। नाम देसी-परदेसी रखने की धारा पर सोच ले जा रही है, कभी लगता है कि पूरा परदेसी ही रख दें तो कभी लगता है कि पूरे देसी हैं तो पूरा देसी नाम ही रखा जाय।
कोई ऐसा नाम मिल जाता जो देस-परदेस में समान लोकप्रिय होता तो मज़ा आ जाता - जैसे महिला नामों में शीला, रीता(टा), अनीता, सारा इत्यादि नाम सब जगह चल जाते हैं।
ठहरे गंगा किनारे वाले, सो घूम-फिर कर गंगा मैया के दुआरे ही आ फटकते हैं। अब यहीं का कोई नाम रख लेंगे। नाम में वैसे भी क्या रखा है। वैसे त्रिवेणी कैसा रहेगा?
सभा
सभा चल रही है। धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र, रंगभेद जैसे मुद्दोँ पर विचार नहीँ होगा।
दहेज, आतंकवाद, कन्या-भ्रूण हत्या, घोटाले, आईपीएल, सानिया-शोएब, नोट-वोट-माला और आरक्षण आदि पर आदमीपन नहीँ दिखाया जाएगा। दुम का प्रयोग सामाजिक स्तर पर नहीँ, निजी तात्कालिक ज़रूरतोँ को स्वतः निपटाने हेतु किया जा सकता है।
बुनियादी मुद्दोँ जैसे भूख, आवास आदि पर प्रयास जारी रहेँगे, चर्चाएँ व सभाएँ नहीँ की जाएँगी।
मतभेद की दशा मेँ निपटारा कोने मेँ नहीँ, खुले मैदान मेँ होगा-और बीच मेँ कोई नहीँ आएगा। अभी सामूहिक स्वल्पाहार पर संगठन को मज़बूत करने के लिए कार्यकर्ता जुटे रहेँगे।
दहेज, आतंकवाद, कन्या-भ्रूण हत्या, घोटाले, आईपीएल, सानिया-शोएब, नोट-वोट-माला और आरक्षण आदि पर आदमीपन नहीँ दिखाया जाएगा। दुम का प्रयोग सामाजिक स्तर पर नहीँ, निजी तात्कालिक ज़रूरतोँ को स्वतः निपटाने हेतु किया जा सकता है।
बुनियादी मुद्दोँ जैसे भूख, आवास आदि पर प्रयास जारी रहेँगे, चर्चाएँ व सभाएँ नहीँ की जाएँगी।
मतभेद की दशा मेँ निपटारा कोने मेँ नहीँ, खुले मैदान मेँ होगा-और बीच मेँ कोई नहीँ आएगा। अभी सामूहिक स्वल्पाहार पर संगठन को मज़बूत करने के लिए कार्यकर्ता जुटे रहेँगे।



Wednesday, April 21, 2010
Tuesday, April 20, 2010
मदद
सब लोगों के ब्लॉग में एक बटन लगा रहता है जिसे दबा कर मैं अनुसरण कर लेता हूँ। क्या ऐसा बटन मेरे ब्लॉग पर भी लग सकता है?
ज़िन्दा रहना एक विसंगति
ज़िन्दा रहना मौत का इन्तज़ार भी हो सकता है।
मौत को भी जिया जा सकता है।
सन्नाटे को सुनने वाले ख़ामोशी की आवाज़ पहचानते हैं। भीड़ में तन्हा हो जाने वाले अक्सर गुम हो जाते हैं। जो अकेले होते हैं, वो अक्सर मेले में पाते हैं ख़ुद को-यादों के।
सूखे की पीड़ा में अक्सर आँखें गीली हो जाती हैं और बाढ़ में फँसने पर हलक सूख जाना आम बात है।
शब्दों से खेलने वाले अर्थ (धन के अर्थ में भी) के लिए अक्सर तरसते पाए जाते हैं और जहाँ अर्थ भावों की गूढ़-गंभीरता पहले से लिए हों, वहाँ शब्द अक्सर ढूँढे नहीं मिलते।
* * * * * * * * *
रोना अच्छी बात है। न रोना ख़राब। न रो पाना और भी ख़राब, बल्कि असह्य। न रो पाने वाला दया का पात्र होता है।
हँसना अच्छी बात है।
ख़ुद पर हँसना-सबके बूते का नहीं।
दूसरों पर हँसना-मानवीय कमज़ोरी है।
दूसरों पर हँसना मगर दूसरों के हँसने पर परेशान होना-कि कहीं ये मुझ पर तो नहीं हँस रहे-ख़राब बात है्।
दूसरों पर हँसना, ख़ुद पर भी हँसना, ख़ुद पर न रोना, दूसरों के हँसने पर साथ देना चाहे वो लोग ख़ुद आप पर ही हँस रहे हों और उन्हीं लोगों के रोने पर सहानुभूति बनाए रखना ये दूसरों को परेशान किए रखने की आसान तरक़ीब है।
* * * * * * * * *
जो समझ गया, वही पागल है। जिसे लगता है कि वह सब समझ रहा है - वो नासमझ। कबीर के हिसाब से तो जितने जी रहे थे वो पहले ही मर चुके थे और जो निश्चिन्त मरे - वही जी पाए।
विसंगति में ही विशिष्ट और सम्यक् गति है। यानी जब 'विशिष्ट' और 'सम्यक्' दोनों एक साथ हों - तो विसंगति।
क्या जो विशिष्ट हो उसे सम्यक् न होने दें और सम्यक् को विशिष्ट?
समाज के नैसर्गिक नियम तो ऐसे ही हैं - सम्यक् को विशिष्ट न बनने देने के।
इसी हिसाब से विसंगति को विचारकों की विशिष्ट पहचान भी समझा जा सकता है।
जब संगति ही विसंगति से हो जाए तो फिर?
==========================================
आराधना की परछाइयों वाली पोस्ट तो पढ़ी ही होगी आपने। आज टिप्पणी करने गया तो वहाँ से लिंक लेकर अनूप शुक्ल 'फ़ुरसतिया' जी की तरफ़ चला गया।
उनकी पुरानी जनवरी 13, 2008 की पोस्ट पढ़ी जिसमें 9 जनवरी की घटना का ज़िक्र करते हुए उन्होंने एक जीवनगाथा फ़्लैश-बैक में समेट दी है। जिन हालात में उन्होंने लिखी होगी ये पोस्ट, उस समय इतना और ऐसा लिख पाना, धन्य हैं प्रभु!
प्रभु दर्द भी सोच-समझ कर देते हैं - उसी को, और उतना ही - जितना सह पाए।
पूरा संदर्भ तो उनकी पोस्ट से नहीं मिलता, मगर पता नहीं क्यों ऐसा लगा - "रो पाने" पर अपने ख़्यालात की वजह से (शायद) ऐसा लगा कि समय आ गया है मेरी इस पोस्ट के छपने का, अब जैसी भी है - आज ही, अभी ही भेज रहा हूँ ब्लॉग पर। …
मौत को भी जिया जा सकता है।
सन्नाटे को सुनने वाले ख़ामोशी की आवाज़ पहचानते हैं। भीड़ में तन्हा हो जाने वाले अक्सर गुम हो जाते हैं। जो अकेले होते हैं, वो अक्सर मेले में पाते हैं ख़ुद को-यादों के।
सूखे की पीड़ा में अक्सर आँखें गीली हो जाती हैं और बाढ़ में फँसने पर हलक सूख जाना आम बात है।
शब्दों से खेलने वाले अर्थ (धन के अर्थ में भी) के लिए अक्सर तरसते पाए जाते हैं और जहाँ अर्थ भावों की गूढ़-गंभीरता पहले से लिए हों, वहाँ शब्द अक्सर ढूँढे नहीं मिलते।
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रोना अच्छी बात है। न रोना ख़राब। न रो पाना और भी ख़राब, बल्कि असह्य। न रो पाने वाला दया का पात्र होता है।
हँसना अच्छी बात है।
ख़ुद पर हँसना-सबके बूते का नहीं।
दूसरों पर हँसना-मानवीय कमज़ोरी है।
दूसरों पर हँसना मगर दूसरों के हँसने पर परेशान होना-कि कहीं ये मुझ पर तो नहीं हँस रहे-ख़राब बात है्।
दूसरों पर हँसना, ख़ुद पर भी हँसना, ख़ुद पर न रोना, दूसरों के हँसने पर साथ देना चाहे वो लोग ख़ुद आप पर ही हँस रहे हों और उन्हीं लोगों के रोने पर सहानुभूति बनाए रखना ये दूसरों को परेशान किए रखने की आसान तरक़ीब है।
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जो समझ गया, वही पागल है। जिसे लगता है कि वह सब समझ रहा है - वो नासमझ। कबीर के हिसाब से तो जितने जी रहे थे वो पहले ही मर चुके थे और जो निश्चिन्त मरे - वही जी पाए।
विसंगति में ही विशिष्ट और सम्यक् गति है। यानी जब 'विशिष्ट' और 'सम्यक्' दोनों एक साथ हों - तो विसंगति।
क्या जो विशिष्ट हो उसे सम्यक् न होने दें और सम्यक् को विशिष्ट?
समाज के नैसर्गिक नियम तो ऐसे ही हैं - सम्यक् को विशिष्ट न बनने देने के।
इसी हिसाब से विसंगति को विचारकों की विशिष्ट पहचान भी समझा जा सकता है।
जब संगति ही विसंगति से हो जाए तो फिर?
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आराधना की परछाइयों वाली पोस्ट तो पढ़ी ही होगी आपने। आज टिप्पणी करने गया तो वहाँ से लिंक लेकर अनूप शुक्ल 'फ़ुरसतिया' जी की तरफ़ चला गया।
उनकी पुरानी जनवरी 13, 2008 की पोस्ट पढ़ी जिसमें 9 जनवरी की घटना का ज़िक्र करते हुए उन्होंने एक जीवनगाथा फ़्लैश-बैक में समेट दी है। जिन हालात में उन्होंने लिखी होगी ये पोस्ट, उस समय इतना और ऐसा लिख पाना, धन्य हैं प्रभु!
प्रभु दर्द भी सोच-समझ कर देते हैं - उसी को, और उतना ही - जितना सह पाए।
पूरा संदर्भ तो उनकी पोस्ट से नहीं मिलता, मगर पता नहीं क्यों ऐसा लगा - "रो पाने" पर अपने ख़्यालात की वजह से (शायद) ऐसा लगा कि समय आ गया है मेरी इस पोस्ट के छपने का, अब जैसी भी है - आज ही, अभी ही भेज रहा हूँ ब्लॉग पर। …
खेती और बागवानी : अवैज्ञानिक तरीके और पर्यावरण को नुक्सान
पर्यावरण को नुक्सान पहुँचाने में एक दूसरे की होड़ में हैं सब।
इन चित्रों में देखिए - एक निहायत अवैज्ञानिक तरीक़ा जो अपनाया जाता है पतझड़ के बाद पत्तियों के निस्तारण का - उन्हें जला डालते हैं। दो चित्रों में झुलसे हुए पेड़ दिख रहे हैं और तीसरे में किस तरह झड़ी हुई पत्तियाँ - जहाँ जैसे थीं, जला दी गई हैं और राख दिख रही है।
दु:खद बात यह है कि यह राजकीय उद्यान में - जहाँ उन्नत तकनीक की कृषि, बागवानी और पौधशाला का विकास आदि करने के लिए एक पूरा सरकारी अमला नियोजित है, वहाँ भी हो रहा है। नासमझी में इसका अनुकरण भी बहुत से लोग कर सकते हैं।
नतीजतन जो पर्यावरण का नुक्सान - धुआँ - प्राकृतिक जैव खाद जो बन सकती थी, उसका नुक्सान - जैव माइक्रोबियल उत्पादों का राख में तब्दील हो जाना - ये सब तो होता ही है; ऊपर से इस सुलगती आग से कई बार अग्निकाण्ड भी हो जाते हैं।
मेरी मुख्य चिन्ता इन सुलगती पत्तियों से झुलसने वाले पेड़ों को लेकर है। पेड़ कई बार तो तना/जड़ें झुलस जाने के कारण मर जाते हैं, कई बार अगले मौसम तक फूल-फल नहीं पाते और कई बार इन पेड़ों पर बसेरा करने वाले पक्षी, मधुमक्खी के छ्त्ते और अन्य कीट-पतंगे आदि भी या तो नष्ट हो जाते हैं या भौगोलिक तौर पर अपना स्थान बदल लेते हैं और इस तरह प्रकृति से अनावश्यक छेड़-छाड़ से प्रकृति की "डाइवर्सिटी" बदल जाती है।
पतझड़ के ठीक बाद गर्मी आ चुकी होती है और पानी का संकट प्रारम्भ हो जाता है, जिससे इस स्थिति में सुधार और भी दुष्कर हो जाता है।
पेड़ों को सीधे होने वाला नुक्सान टाला जा सकता है, सिर्फ़ थोड़ी सी जागरूकता और मालियों व किसानों की शिक्षा से
कि इस तरह जला कर पत्तियों से केवल मच्छर भगाए जाते हैं जो एक या दो दिन में फिर वापस आ जाते हैं, जबकि नुक्सान अनेक हैं।
कि इस तरह जला कर पत्तियों से केवल मच्छर भगाए जाते हैं जो एक या दो दिन में फिर वापस आ जाते हैं, जबकि नुक्सान अनेक हैं।
नई कृषि तकनीकों में एक मशीन भी शामिल है जो गेहूँ, धान आदि की बालियाँ काट लेती है, जिससे अन्न की बर्बादी तो बहुत कम होती है, मगर शेष पौधा खेत में खड़ा ही रहता है। इसके बाद इस डंठल या तने को सीधे आग लगा कर जला दिया जाता है और खेत में बाद में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग कर उर्वराशक्ति बढ़ा ली जाती है।
इस प्रक्रिया में खेत की नैसर्गिक उर्वरा शक्ति का ह्रास तो लम्बी अवधि में होता है, मगर भूसे का नुक्सान तुरन्त ही हो जाता है।
परिणाम यह होता है कि जब तक यह प्रक्रिया केवल कुछ बड़े काश्तकारों तक सीमित है, तब तक शायद असर न पता चले, मगर बड़े स्तर पर यह पशुओं के चारे की समस्या को भी विकरालता प्रदान कर सकती है।
पता नहीं कहीं मेरी चिन्ता अतिवादिता या निराशावादिता का रूप तो नहीं ले रही!



गुलमोहर
गुलमोहर की ये तस्वीरें मैंने आज चन्द्रशेखर आज़ाद उद्यान उर्फ़ कम्पनी बाग़ में लीं (सुबह 6:45) और इनसे ये साबित हो रहा है कि गुलमोहर के फीकेपन के लिये गर्मी सीधे ज़िम्मेदार नहीं है। पानी पाने वाले पेड़ के फूलों में फीकापन नहीं आया, जबकि पानी की कमी वाले पेड़ के फूल फीके हैं यक़ीनन।
मगर पानी की कमी के लिए तो गर्मी ही ज़िम्मेदार है न!
तो ज्ञानदत्त जी की बात …इति सिद्धम्


मट्ठा मौसम
याद आए
याद आए!
छू लिया मन को किसी की याद ने
याद आने पर किसी का ज़ोर क्या…
भूलने पर बस नहीं चलता मगर,
भूलना वरदान बढ़ती उम्र का।
भूल जाने के लिए सौ-सौ जतन
चाहने से कब भला कुछ भूलता…
याद रख कर बेकली हो या घुटन
भूल जाना चाहती है विवशता
गीत गाने के बहाने,
या चले जाना नहाने,
देर तक सोना सुबह को, रात जगना
कभी चुप रहना, कभी बेवजह हँसना…
सुरमई रातों जली-बुझती उदासी,
रोशनी फ़ुटपाथ से चुपचाप आए,
बगल तक आकर सिरहाने पसर जाती
और निगरानी करे।
और निगरानी करे चुपचाप जैसे
माँ बदन पर शाल डाले देखती हो
कब दुलारा आँख का तारा कि प्यारा
लाल उसका नींद में ही गिर न जाए…
और तिस पर यह उलहना …
और तिस पर यह उलहना
है कि कोई उसी माँ की
निगहबानी की वजह से
सो न पाए!
रोशनी चुपचाप फिर आए सड़क से…
नींद में तकिया गिरा या हटी चादर,
गई बिजली और टूटे पड़े मच्छर
नींद ऐसी…
नींद ऐसी कौन जगता था जगाए!
अब असुविधा से बचाने
के लिए हैं कई साधन
हों भले सामर्थ्य में, उपलब्ध भी, पर,
मुद्दतें गुज़रीं सुखों की नींद आए।
अर्थ की महिमा चतुर्दिक, शब्द फैले जाल जैसे
लालची हैं, फँस रही हैं, मछलियों सी भावनाएँ
नहीं हो यदि 'अर्थ' तो संघर्ष जीवन,
किन्तु यदि बस 'अर्थ' हो तो व्यर्थ हैं संवेदनाएँ।
लाल उसका नींद में ही गिर न जाए…
निगहबानी की वजह से सो न पाए!
रोशनी फ़ुटपाथ से चुपचाप आए!
नींद ऐसी कौन जगता था जगाए!
मुद्दतें गुज़रीं सुखों की नींद आए।
प्यार से लोरी सुनाए - माँ सुलाए!
'अर्थ' हो तो व्यर्थ हैं संवेदनाएँ
और अब यह हाल देखो…
याद भी आता नहीं दिन गए कितने-
भूल कर भी जो किसी की याद आए!
छू लिया मन को किसी की याद ने
याद आने पर किसी का ज़ोर क्या…
भूलने पर बस नहीं चलता मगर,
भूलना वरदान बढ़ती उम्र का।
भूल जाने के लिए सौ-सौ जतन
चाहने से कब भला कुछ भूलता…
याद रख कर बेकली हो या घुटन
भूल जाना चाहती है विवशता
गीत गाने के बहाने,
या चले जाना नहाने,
देर तक सोना सुबह को, रात जगना
कभी चुप रहना, कभी बेवजह हँसना…
सुरमई रातों जली-बुझती उदासी,
रोशनी फ़ुटपाथ से चुपचाप आए,
बगल तक आकर सिरहाने पसर जाती
और निगरानी करे।
और निगरानी करे चुपचाप जैसे
माँ बदन पर शाल डाले देखती हो
कब दुलारा आँख का तारा कि प्यारा
लाल उसका नींद में ही गिर न जाए…
और तिस पर यह उलहना …
और तिस पर यह उलहना
है कि कोई उसी माँ की
निगहबानी की वजह से
सो न पाए!
रोशनी चुपचाप फिर आए सड़क से…
नींद में तकिया गिरा या हटी चादर,
गई बिजली और टूटे पड़े मच्छर
नींद ऐसी…
नींद ऐसी कौन जगता था जगाए!
अब असुविधा से बचाने
के लिए हैं कई साधन
हों भले सामर्थ्य में, उपलब्ध भी, पर,
मुद्दतें गुज़रीं सुखों की नींद आए।
अर्थ की महिमा चतुर्दिक, शब्द फैले जाल जैसे
लालची हैं, फँस रही हैं, मछलियों सी भावनाएँ
नहीं हो यदि 'अर्थ' तो संघर्ष जीवन,
किन्तु यदि बस 'अर्थ' हो तो व्यर्थ हैं संवेदनाएँ।
लाल उसका नींद में ही गिर न जाए…
निगहबानी की वजह से सो न पाए!
रोशनी फ़ुटपाथ से चुपचाप आए!
नींद ऐसी कौन जगता था जगाए!
मुद्दतें गुज़रीं सुखों की नींद आए।
प्यार से लोरी सुनाए - माँ सुलाए!
'अर्थ' हो तो व्यर्थ हैं संवेदनाएँ
और अब यह हाल देखो…
याद भी आता नहीं दिन गए कितने-
भूल कर भी जो किसी की याद आए!
Monday, April 19, 2010
अनुरञ्जिनी : 9
ये रहीं फूलों की होली की तस्वीरें, मयूर नृत्य की कल लगाऊँगा।
तस्वीरों की गुणवत्ता कम है, मोबाइल से दूर से ली गई हैं।
अद्भुत अनुभव होता है इस मथुरा की फूलों की होली को देखना। अलौकिक। यह मैंने दूसरी बार देखा और महसूस किया। पहली बार 2006 में देखा था। कोशिश करूँगा कुछ समय बाद कि अगर वीडियो उपलब्ध हुआ तो यहाँ ला गेरूँ। इसे बाँटना भी सुखद होता है और पाना भी।
उत्सव और महिला कल्याण संगठन की रिपोर्टिंग भी करनी है अभी तो! वैसे रिपोर्टिंग तो यह भी है ही।


















बूझो तो जानें

भाई हमारा इरादा पहेली बुझवाने का या कुछ आलतू-फालतू नहीं है। हम तो सिर्फ़ ये भूल गए हैं कि ये फ़ोटो हमने कहाँ खींचा है। सिर्फ़ ये याद है कि इस बिल्डिंग के सारे तलों पर बहार का अनुग्रह देखकर हमने चलती गाड़ी से हाथ निकाल कर मोबाइल कैमरा ऊपर को कर के फ़ोटो खींच लिया।
भूल गए वर्ना पहले ही कहीं चेंप देते या बज़ा देते।
आज मोबाइल का मेमोरी कार्ड निकाल कर फ़ॉर्मैट करना पड़ा तो फ़ोटो मिल गया। जिसका हो ले जाए, बस बता दे कि कहाँ का है।
हम फालतू की उलझन से तो छूटें।
ससुरी गर्मी इतनी पड़ रही है कि लग रहा है खुपड़िया पे हीट सिंक लगवा लें। प्रवीण पाण्डेय जी ने पुराने कम्प्यूटर की बात की है, हमारा भी लगता है सीपीयू - रैम बदलवा तो सकते नहीं, अपग्रेड करा लें का।
तभी भूल गए लगता है।
अनुरंजिनीः8
अनुरंजिनीः6
उमरेमकसं की सांस्कृतिक संध्या मेँ मनोज गुप्ता के सुर
वर्गीकरण:
hindi,
NCRWWO,
Tripti Shakya,
इलाहाबाद,
तृप्ति शाक्या,
रिपोर्ताज़,
संस्कृति,
सांस्कृतिक,
हिन्दी
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अनुरंजिनीः5
उमरेमकसं की सांस्कृतिक संध्या मेँ तृप्ति शाक्याः नमक इस्क का
वर्गीकरण:
hindi,
NCRWWO,
Tripti Shakya,
इलाहाबाद,
तृप्ति शाक्या,
रिपोर्ताज़,
संस्कृति,
सांस्कृतिक,
हिन्दी
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अनुरंजिनीः3
उ0म0रे0म0क0सं0 सांस्कृतिक संध्या मेँ मनोज गुप्ता और तृप्ति शाक्या की स्वर (सुर) प्रस्तुतियाँ
वर्गीकरण:
hindi,
NCRWWO,
Tripti Shakya,
इलाहाबाद,
तृप्ति शाक्या,
रिपोर्ताज़,
संस्कृति,
सांस्कृतिक,
हिन्दी
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Sunday, April 18, 2010
अनुरंजिनी
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