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Saturday, June 5, 2010

धुने गए पन्नालाल - गणतन्त्र दिवस की पूर्वसंध्या पर सच बोलकर

यह पुर्जी आज पड़ी मिली। जनवरी 26 को गणतंत्र दिवस का "दैनिक हिन्दुस्तान अख़बार" पढ़ने के बाद जो मन में आया, वहीं अख़बार पर टीप दिया। जब ब्लॉग पर आया फ़रवरी में, तब ये थोड़ा ही सोचा था कि इसे ब्लॉग पर ले जाना होगा। फिर जब ये मिला आज, तो थोड़ा सा श्रम करके उस अख़बार को भी ढूँढ निकाला, और स्कैन कर के ले आया हूँ।
अब अन्त में यह भी कि पुर्जी  आज ही क्योंकर मिली ? 
मैं अपना आवास बदल रहा हूँ। नये आवास में जाने के पहले सभी सामान सहेजने में उम्मीद है कि और भी बहुत सी खोई हुई चीज़ें मिलेंगी - और कई तो शायद ऐसी भी  चीज़ें मिलें -जो खो गयीं यह बात भी हमें पता न हो।
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रचना से पूर्व यह ख़बर पढ़ें - 26 जनवरी 2010, दैनिक हिन्दुस्तान से-

धुने गए पन्नालाल - सच बोलने पर





































जय हो!
तो सबकी जय बोलने के बाद पेश है
अब यह हज़ल -

मुँह पे सच बोलते हो पन्नालाल!
तुम निहायत "वही" हो पन्नालाल।

पिटके ख़ुद, आक़ा को भी पिटवाया
उससे नाराज़ क्यूँ थे पन्नालाल?

तुम जेहादी नहीं हो माना, पर
उससे कम भी नहीं हो पन्नालाल

जिसकी लाठी हो - सिर्फ़ भैंस नहीं,
अब है सब कुछ उसी का पन्नालाल

भ्रष्ट वो - भ्रष्ट को - जो भ्रष्ट कहे,
क्यूँ समझते नहीं हो पन्नालाल!

तुम इशारों की छोड़कर भाषा-
मराठी सीख लो न पन्नालाल

मैं भी सच बोलने को कहता हूँ-
अब किसी से न कहना पन्नालाल

तुमको चालाकी सिखाने मैं चला-
मैं भी कितना गधा हूँ पन्नालाल!

मुल्क़ आज़ाद लोकतन्त्र सही,
यहाँ गणतन्त्र भी है पन्नालाल

Wednesday, June 2, 2010

कम्युनिस्ट और कम्युनिज़्म : नज़रिया

अक्सर किसी विचारधारा - किसी आन्दोलन के बारे में राय बन जाती है उस समूह के उन चन्द लोगों के आधार पर जो आपके सम्पर्क में, आपकी नज़र में आते हैं। मुझे पता है कि ऐसा नहीं होना चाहिए, मगर मैं आदर्श स्थिति की नहीं, रोज़ाना की ज़िन्दगी की बात कर रहा हूँ।
बहुत बड़े स्वप्नद्रष्टा– नारों से फटे गले और आदर्शों के बोझ तले झुके कन्धों वाले कम्युनिस्ट जिनके लिए मलिन और गन्दा रहना स्टारडम हो, हर धर्म को गरियाना जिनका धर्म हो और सिगरेट, चाय, शराब या अन्य नशों की लत से जूझते हुए – समाज के नियमों को सिर्फ़ तोड़ने के लिए तोड़ कर – कुछ सन्तानों को अलग-अलग तीन-चार या कभी-कभी एक ही कोख में स्थापित करने की उपलब्धि से निपट कर किसी गन्दी सी बीमारी से यह संसार छोड़ भागने वाले लोग या चरित्र मुझे नहीं सुहाते।
कम्युनिस्ट सब ऐसे नहीं होते, उस विचारधारा में बहुत सी अच्छी बातें भी ज़रूर हैं, मगर ज़्यादातर ऐसे ही लोग मिले मुझे कम्युनिस्ट के चोले में - जीवन में भी और कहानियों में भी, सो कभी सहज नहीं हो पाया इस विचारधारा के साथ।
एक भी शख़्स ऐसा नहीं जानता मैं जो विचारधारा से कम्युनिस्ट हो और चाय-सिगरेट-शराब न पीता हो, जो विवाह की संस्था का सम्मान करता हो - इसलिए नहीं कि जन्मजात यह सीखा हुआ है उसने - बल्कि इसलिए कि यह कम्युनिस्ट विचारधारा में है।
ऐसा कम्युनिस्ट जो ख़ुश रहता हो, ख़ुशियाँ बाँटता हो या बाँटना चाहता हो और नियमित व्यायाम आदि करके शरीर के प्रति भी अपना आदर और सम्मान प्रकट करता हो, नहीं देखा।
कम्युनिज़्म ने क्या सिखाना चाहा था - पता नहीं, मगर यह ठीक लगता है कि सबके बच्चों को अपना बच्चा समझें - अनर्थ यह हुआ कि अपने बच्चों को भी ज़्यादातर सबका बच्चा समझ लिया गया - या फिर किसी का नहीं।
अभी हाल में अशोक पाण्डे के ब्लॉग पर गया था। उनका अपनी बच्ची के प्रति लगाव देख कर बहुत अच्छा लगा मुझे। भीग गया अन्दर तक। वे कम्युनिज़्म से प्रभावित हैं, और कुछ अलग भी हैं। ज़्यादातर कम्युनिस्ट भिगोते नहीं, भिगो कर मारते हैं।
धर्म को अकर्मण्यता या भाग्यवाद के रूप में न लिया जाय, यह बात समझ सकता हूँ मैं, मगर धर्म के प्रति निरादर का भाव - यह किसी को भी गिरा देता है मेरी नज़र में। आप मेरा धर्म न मानें - चलेगा। मगर आप किसी के भी धर्म का अपमान करें - यह नहीं चलेगा। आलोचना चल सकती है, दायरे में रह कर।
इस से नतीजा यह निकला कि मैं कभी कम्युनिज़्म के बारे में ठीक से यह समझ नहीं पाया कि किताबों के स्तर पर समाज के लिए इतना प्रभावी और आकर्षक होते हुए भी कभी यह प्रथम विकल्प क्यों नहीं बन पाया।
एक अकेले मेरे न समझ पाने और कम्युनिज़्म से अरुचि सी हो जाने से क्या फ़र्क़ पड़ता है? सही है, मगर मेरे जैसे और भी तो होंगे। विरोध में विकसित हो चुके पूर्वाग्रहों वाले मस्तिष्क को भी यदि बात समझाई जा सके, तभी सफलता है प्रचारकों की, तभी सफलता मिल सकती है किसी आन्दोलन को; या फिर स्वेच्छा से रुचिकर लगे, ऐसा कुछ हो उस धारा में।
इस मामले में भी मैंने अधिकतर कम्युनिज़्म-प्रवर्तकों को अधैर्य-ग्रस्त पाया जो शीघ्र ही वाचिक हिंसा और / या बौद्धिक आतंकवाद का सहारा ले बैठते हैं।
मुझे लगता है कि जो धारा प्रमुखत: उन्हीं का आह्वान करती हो, उन्हीं पर आधारित हो जिनको सर्वहारा कहें तो एक जन्मजात आक्रामकता होना लाज़मी है उस समूह में।