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Tuesday, April 20, 2010

खेती और बागवानी : अवैज्ञानिक तरीके और पर्यावरण को नुक्सान

पर्यावरण को नुक्सान पहुँचाने में एक दूसरे की होड़ में हैं सब।
इन चित्रों में देखिए - एक निहायत अवैज्ञानिक तरीक़ा जो अपनाया जाता है पतझड़ के बाद पत्तियों के निस्तारण का -  उन्हें जला डालते हैं। दो चित्रों में झुलसे हुए पेड़ दिख रहे हैं और तीसरे में किस तरह झड़ी हुई पत्तियाँ - जहाँ जैसे थीं, जला दी गई हैं और राख दिख रही है।
दु:खद बात यह है कि यह राजकीय उद्यान में - जहाँ उन्नत तकनीक की कृषि, बागवानी और पौधशाला का विकास आदि करने के लिए एक पूरा सरकारी अमला नियोजित है, वहाँ भी हो रहा है। नासमझी में इसका अनुकरण भी बहुत से लोग कर सकते हैं।
नतीजतन जो पर्यावरण का नुक्सान - धुआँ - प्राकृतिक जैव खाद जो बन सकती थी, उसका नुक्सान - जैव माइक्रोबियल उत्पादों का राख में तब्दील हो जाना - ये सब तो होता ही है; ऊपर से इस सुलगती आग से कई बार अग्निकाण्ड भी हो जाते हैं।
मेरी मुख्य चिन्ता इन सुलगती पत्तियों से झुलसने वाले पेड़ों को लेकर है। पेड़ कई बार तो तना/जड़ें झुलस जाने के कारण मर जाते हैं, कई बार अगले मौसम तक फूल-फल नहीं पाते और कई बार इन पेड़ों पर बसेरा करने वाले पक्षी, मधुमक्खी के छ्त्ते और अन्य कीट-पतंगे आदि भी या तो नष्ट हो जाते हैं या भौगोलिक तौर पर अपना स्थान बदल लेते हैं और इस तरह प्रकृति से अनावश्यक छेड़-छाड़ से प्रकृति की "डाइवर्सिटी" बदल जाती है।
पतझड़ के ठीक बाद गर्मी आ चुकी होती है और पानी का संकट प्रारम्भ हो जाता है, जिससे इस स्थिति में सुधार और भी दुष्कर हो जाता है।
पेड़ों को सीधे होने वाला नुक्सान टाला जा सकता है, सिर्फ़ थोड़ी सी जागरूकता और मालियों व किसानों की शिक्षा से
कि इस तरह जला कर पत्तियों से केवल मच्छर भगाए जाते हैं जो एक या दो दिन में फिर वापस आ जाते हैं, जबकि नुक्सान अनेक हैं।
नई कृषि तकनीकों में एक मशीन भी शामिल है जो गेहूँ, धान आदि की बालियाँ काट लेती है, जिससे अन्न की बर्बादी तो बहुत कम होती है, मगर शेष पौधा खेत में खड़ा ही रहता है। इसके बाद इस डंठल या तने को सीधे आग लगा कर जला दिया जाता है और खेत में बाद में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग कर उर्वराशक्ति बढ़ा ली जाती है।
इस प्रक्रिया में खेत की नैसर्गिक उर्वरा शक्ति का ह्रास तो लम्बी अवधि में होता है, मगर भूसे का नुक्सान तुरन्त ही हो जाता है।
परिणाम यह होता है कि जब तक यह प्रक्रिया केवल कुछ बड़े काश्तकारों तक सीमित है, तब तक शायद असर न पता चले, मगर बड़े स्तर पर यह पशुओं के चारे की समस्या को भी विकरालता प्रदान कर सकती है।
पता नहीं कहीं मेरी चिन्ता अतिवादिता या निराशावादिता का रूप तो नहीं ले रही!

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