यथासंभव यह ब्लॉग हिन्दी में, हिन्दी हेतु रहेगा। सर्च इंजनों या अन्य तकनीकी कारणों से कुछ कोटि-शब्द अंग्रेज़ी में भी हो सकते हैं। मूलत: यह एक इलाहाबादी ब्लॉग है उस संगम के तीर(तट) से, जिसमें पवित्र नदियों गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती का मिलन होता है जो यहाँ की साहित्यिक-सांस्कृतिक अन्तर्धारा में प्रवाहित है।
साथी
Saturday, February 27, 2010
यादें : मेरे कुछ पुराने तैलचित्र (1)

गणपति के इस चित्र में मुझे पता नहीं क्या और कहाँ से प्रेरणा मिली थी जो मैंने कई चिह्न एक साथ पेण्ट किए थे। कलश, नारियल, स्वस्तिक, मोदक सहित स्वयम् एकदन्त गणपति। गणपति का शरीर और कलश एकाकार हैं और ताम्बूल, आम्रपल्लव, बाँस की टहनी, पत्तियों सहित भी दिख रहे हैं। वास्तविक तण्डुल ही तिलक के साथ चित्रित भी हैं और कुछ चिपकाए भी गए हैं, कलश पर मौलि जो गुलाबी रंग की दिखाई गई है, उसके सहित हल्दी और रोली के रगों से बनी है सूँड। मस्तक पर ॐ का चिह्न भी तिलक के नीचे दिख रहा है जिसका चन्द्रबिन्दु ही वैष्णव तिलक का रूप ले रहा है और गणपति की शैव और वैष्णव, दोनों मतानुयायियों में समान महत्ता दिखाता शैव तिलक चिह्न भी साथ ही मस्तक पर है।
मेरा लगाव इस चित्र से इसीलिए है कि एक तो मैं इस चित्र के बनाने के चार-पाँच साल बाद इन प्रतीकों के परस्पर संबन्ध और उनके महत्व को कुछ-कुछ समझ पाया था, दूसरे अब यह फफूँदी से खराब होना शुरू हो गया है।
Friday, February 26, 2010
मौन

बचपन में सुना था कि-
"मौनम् स्वीकृतिलक्षणम्"
अर्थात् मौन को सहमति ही समझना चाहिए। यह ज्ञान अब पुराना पड़ गया।
अब मैं रोज़ कार्यालय में लगी इस सुभाषित पट्टिका को देखकर सोच में पड़ जाता हूँ। लगता है संदर्भ अलग रहा होगा बाबा बेन जॉनसन का, इस उवाच में।
एक वरिष्ठ ने समझाया भी कि-
"जहाँ कोई सुनने को तैयार ही न हो, पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो, वहाँ कुछ बोलने से भी क्या और न बोलने से भी क्या? सिवाय ऊर्जा के अपव्यय के!"
अब और सोच में पड़े हम। यानी जिन्हें बोलने का शौक़ है, वो ऊर्जा का अपव्यय करते हैं।
यानी ब्लॉगिये भी। बल्कि ब्लॉगिये तो और ज़्यादा - क्योंकि एक तो कम्पूटर बाबा जो ऊर्जा खाते हैं वो एक्स्ट्रा हुई।
दूसरे स्वयं भी सिर्फ़ बोलने से ज़्यादा ऊर्जा खर्च करते हैं हाथों को हिलाने पर, की-बोर्ड, माउस आदि पर।
तीसरे सोचते भी हैं - सोचने में भी काफ़ी ऊर्जा व्यर्थ नष्ट करते हैं। अब बोलने के लिए सोचना थोड़े ही पड़ता है। अगर ब्लॉगियाने के बदले बोल कर काम चला लेते तो कितनी ऊर्जा बचती!
ऊर्जा के ई संकट कइसे कटै? यानी ब्लॉगिए ऊर्जा की कमी के, यानी उद्योगों के, यानी सेंसेक्स के अउर साथै पर्यावरण के, सबके दुश्मन निकले।
उधर अजय झा जी लिखते हैं - "सोचता हूँ ब्लॉगिंग पर न लिखूँ"
यानी लिख नहीं रहे, मगर सोच तब भी रहे हैं। सोचने से बाज़ नहीं आएँगे।
अब अभिषेक बच्चन जी अगर काग़ज़ बचाने पे बिंगुआ सकते हैं तो हम क्या एनर्जी पर नहीं?
फिर जो ज़्यादा ऊर्जा खर्च करेगा वो ज़्यादा खाएगा भी, वर्ना ऊर्जा की कमी से मर नहीं जाएगा?
फिर अगर ब्लॉगियाने में अनियमित हुए तो जब-जब नहीं ब्लॉगियाए तब-तब ऊर्जा बची, यानी मुटाए। सो अच्छे ब्लॉगिए का स्थूलकाय, विशालकाय होना तय पाया गया।
साथ ही यह भी तय पाया गया कि ब्लॉगिए अन्तर्राष्ट्रीय खाद्यान्न संकट के प्रमुख और मूलभूत कारणों में से एक हैं। यानी कुल मानवता के ही दुश्मन हैं का ई ब्लॉगिए?
हैं क्या, हई हैं।
औ ई जो हम ब्लॉगिया गए हैं सो?
ब्लॉगिए इसके दुश्मन, ब्लॉगिए उसके दुश्मन, मानवता के, पर्यावरण के, …अबे धत्!
जानौ ब्लॉगिए खुदै दुसरे-दुसरे ब्लॉगियों के ही दुश्मन होते हैं का!
नहीं जी। ई सब आपस में बड़े एक हैं। मार एक दूसरे के चिट्ठे पे टिप्पणियाए पड़े हैं। लगता है हम भी सोचने लगे का?
अमें लगता है भंग ज़्यादा हो गयी…
मीठा खाने का मन कर रहा है।
मौनए रहब ठीक रहा…
Monday, February 22, 2010
पुष्प प्रदर्शनी
Sunday, February 21, 2010
मंगलायतन : अन्य चित्र
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