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Tuesday, September 14, 2010

इससे पहले कि बारिश बीत जाए…

इससे पहले कि बारिश बीत जाए…

बारिश हिन्दी सिनेमा की प्रिय ॠतु रही है। गीतकारों को नायक-नायिका को भिगोने में जो आनन्द प्राप्त होता है, उससे ज़्यादा कैमरामैन को शूटिंग करते हुए सुखानुभूतियाँ होती हैं।
दिग्दर्शक को भी आसानी - ज़्यादा विस्तृत प्रबन्ध नहीं करना पड़ता सेट आदि का - बस फ़ुहारा गिराना होता है, और पब्लिक भी ऐसे में क्लोज़-अप शॉट से ज़्यादा परहेज़ नहीं बल्कि उसका स्वागत करती है। महँगी ड्रेसें नहीं लगनीं - सो प्रोड्यूसर भी प्रसन्न।

फिर भी अगर भीगने को ज़ीनत अमान मजबूर हों(मजबूर का अर्थ उद्यत पढ़ें-महिलाओं की शिष्ट भाषा में)- तो 'भारत' झूमने और भीगने को मजबूर हो ही जाता है। वो तो पहले भी कह चुकी हैं कि "मैंने होठों से लगाई तो - हंगामा हो गया"। अब यहाँ क्या कहें क्या हुआ…



मगर यही नहीं समझ पाते नायक अक्सर कि वो नायक हों या नायिका - जिसने भी कहा कि "मैं ना भूलूँगा" या -"मैं ना भूलूँगी" तो उसी को बाद में सेंटियाने की सज़ा भुगतनी पड़ती है। मगर ये नौबत अगर हिन्दी फ़िल्मों में आई हो तो फिर से एक गाना सुनने को तैयार रहिए…



और फिर बिन बादल ही नहीं - बिन बारिश भी बरसती हैं अँखियाँ - मगर अगर ये नैना सावन-भादों न हो पाए हों - क्योंकि हो सकता है कि नायक की भूगोल सम्बन्धी जानकारी कमज़ोर रही हो (जैसा पुराने ज़माने में बहुत संभव था - ज़्यादा पढ़ने-लिखने वाले थोड़े ही आते थे हिन्दी फ़िल्मों के नायक-नायिका बनकर!) या फिर उसे हिन्दी के महीनों के नाम ठीक से न याद हों (जैसा आजकल होता है - कान्वेण्टीयता ने भारतीयता की बलि तो ले ही ली है - बाक़ी आप कहें कुछ भी), या फिर उसे अपने आभिजात्य के तहत नैना सिर्फ़ भिगोना ही जमता हो - तो सिर्फ़ भिगो कर तो यही कह सकता है नायक, कि-



बारिश के मौसम से ता'अल्लुक रखने वाले पसन्दीदा गानों की फ़ेहरिस्त बड़ी लम्बी होती है - हर किसी की, और ये भी काफ़ी दिलचस्प रहता है कि कोई शेयर करे अपनी पसंद के दो-चार गीतों के मुखड़े - तो उस बारिश में भीगकर जाने कितने जंगल हरे हो जाएँ ('जंगल' को 'घाव' पढ़ें)।
ध्यान दें - सदाबहार वनों की बात नहीं हो रही है - जैसे वो गाम्भीर्य ओढ़े ढीले-ढाले लबादे जो कभी अपनी नसीर-हुसैनीय छवि से उबर ही नहीं पाते - जो लगता है कि एक बड़ा सा घाव इन्सानी शक्ल में फिर रहा है।

नसीर हुसैन कौन? अरे याद नहीं - जो पुरानी फ़िल्मों में ज़्यादातर लड़की के पिता बनते थे - और पहले शॉट को अगर बचा भी ले गए तो भी ज़्यादा से ज़्यादा दूसरे शॉट तक रुआँसे हो जाते थे - और तीसरा शॉट (अगर मौक़ा मिला-तो) तो अँखियों से सराबोर किए बिना जाने ही नहीं देते थे… उन्हें फ़िल्म में एण्ट्री लेते देख के ही हम समझ जाते हैं कि इन्हें दिल का दौरा पड़ना तो तय है - अब सट्टा इस बात का खेलना है कि ये इण्टरवल के बाद होगा - या पहले। अगर मध्यान्तर के पूर्व होगा तो फिर भाई! ये निकल भी लेंगे - मगर अगर मध्यान्तर पार कर ले गए तो शायद आख़िर में हैप्पी एण्डिंग की फ़ोटो में आ जाएँ। बाद में इनसे ये चार्ज लेने की ओमप्रकाश जी ने बहुत कोशिश की - रोना और रुलाना तो ठीक, मगर उतना सड़ाक् से मरना नहीं सीख पाए ओम जी।
मगर हम उनकी चर्चा थोड़े ही कर रहे थे… हम तो कह रहे थे कि बारिश बीत जाए इससे पहले ये भेद तो खोल दें हम, कि…



तो चलते-चलते, आप सबको और हिन्दी सिनेमा उद्योग को "दबंग" होने की बधाई - सारे रिकार्ड तोड़ डाले इसने व्यवसाय और अर्जन के - वो भी बिना टिकट के दाम बढ़ाए। जितनी कुल कमाई थी "वाण्टेड" की यूके में - उससे थोड़ा ज़्यादा तो पहले दो दिनों में ही कमा लिया "दबंग" ने - यूके में। आप लोग भी देख लीजिए, मौका निकाल के - सच कहें! हमें तो बड़ी फ़िक्र हो रही है "माननीया मुन्नी जी" की। हम गए थे देखने - हर बार हमारी ही तरफ़ देख-देख के कह रही थीं -"तेरे लिए - तेरे लिए"; अब हम क्या तो कहें? हम तो लजाते भी जा रहे थे और काँपते भी, साइड में देखते जा रहे थे - मैडम बगलै में बइठी रहीं न! क्या यार तुम लोगन को कुच्छौ बुझाता नहीं है - समझता नहीं है कुछ भी… ऊ त ठीक रहा कि मैडम भी - यानी कि सामने ही देखती रहीं - और बादौ में हमसे कुच्छ नाहीं पूछीं। हम तो अब बयान भी देने को तैयार हैं कि महिलाओं की बदनामी हमें व्यक्तिगत स्तर पर ज़रा भी पसन्द नहीं। कहिए तो सरकार से इसी बात पर इस्तीफ़ा माँग लेहा जाए।
……मगर सच्ची बताएँ - अच्छा भी लग रहा था……(इश्श्…)