साथी

Saturday, March 27, 2010

अच्छा लगा

फ़ेसबुक पर किसी प्रशंसक ने पिछले दिनों कहा कि -" विभागीय बातों - रेल से हट कर कुछ देखकर - अच्छा लगा"। बस जनाब, हम अपने शुकराने में जोश में आ गए और उनके कमेण्ट के जवाब में कुछ शे'र अर्ज़ कर दिए वहीं के वहीं। आज ख्याल आया कि क्यों न वो शेर आप सबकी नज़्र किए जाएँ? आख़िरश आप भी तो प्रोत्साहन देते हैं, और प्रोत्साहन देने की सिर्फ़ दो वज़ूहात हो सकती हैं - और दोनों भी हो सकती हैं - पहली कि आप को रचना अच्छी लगी, दूसरी - आप ख़ुद बहुत अच्छे इन्सान हैं और इसीलिए आपको अच्छाई नज़र आती है। वहाँ भी, जहाँ थोड़ी कम होती है। तो पेशे-नज़्र है -
"आप को अच्छा लगा ये जानकर अच्छा लगा।
क़द्रदाँ की क़द्र को पहचान कर अच्छा लगा

लोग क्या जानें किसी को क्या बुरा लग जाय क्यों;
कौन कब पूछे दोनाली तानकर-"अच्छा लगा?"

क़द्र है गुल की कभी खुश्बू से - रंगों से कभी
लायँगे हम और गुल ये ठानकर अच्छा लगा

रेल वाला हूँ, बहुत कुछ रेल सकता हूँ अभी
पर इशारा सिग्नलों का मानकर अच्छा लगा

ताज़ा-ताज़ा शे'र लाया हूँ कि फिर अच्छा लगे
वर्ना हमको ख़ाक जंगल छानकर अच्छा लगा
हिमान्शु मोहन
दस बहाने, इब्तिदा=आग़ाज़=शुरूआत=पहल

मौसम : एक ग़ज़ल

गुलों  पे  तारी  हुआ जबसे  ख़ार का मौसम
कैसा गुमसुम सा है फ़स्ले बहार का मौसम

बेरुख़ी या अदा - कि हो के भी नहीं मौजूद
रू-ब-रू   होके  तेरे  इंतज़ार  का  मौसम !


सुकून ले गया अम्नो - क़रार का मौसम
उनके  वादों  पे  मेरे  ऐतबार  का  मौसम

हार - नूपुर - चूड़ी - टिकुली - सिंगार का मौसम
जाने  फिर  आए - न - आए ये प्यार का मौसम


साल-दर-साल दुखे दिल, हो जैसे कल की बात
कैसा  गुज़रा  था  मेरे  पहले  प्यार  का  मौसम

दग़ा-साज़िश-फ़रेब-झूठ-भितर्घात के बीच
याद आया बहुत माँ के दुलार का मौसम

हिमान्शु मोहन का गूगल प्रोफ़ाइल 
इब्तिदा-आग़ाज़-शुरूआत-पहल

Friday, March 26, 2010

बाघ के बहाने (1411 ही बचे हैं, बस!)

1411 बचे हुए बाघों की दुहाई देकर कहा जा रहा है कि बाघों के बारे में कुछ भी कर के, मेल भेज कर, ब्लॉग लिख कर, फ़ोटोशूट में हिस्सा लेकर…आप सहयोग दे सकते हैं बाघों को बचाने में।
बचाना किससे है, पता ही है - आदमी से। अब आदमी से कौन किसको बचा सकता है ?
आदमी से जंगल नहीं बचे। न बचे जंगली।
पहाड़ नहीं बचे आदमी से। खोद डाले।
आदमी से सागर नहीं बचे। मछलियाँ मर रही हैं, कछुए मर रहे हैं। अन्य जल-जीव भी।
आदमी से अन्तरिक्ष नहीं बचा। वहाँ भी कचरा तैर रहा है।
आदमी से आदमी तक को तो बचा नहीं पाते हम लोग। लड़कियों औरतों की बात तो ख़ैर जाने ही दीजिए
*   *   *   *   *   *   *   *   *
मगर हालात अभी भी ऐसे नहीं कि लाचार हो कर बैठ जाया जाए।
असली दिक्कत इसी बात की है कि बाघ ख़ुद भी तो बचने को तैयार हों। लगता है ख़ुद ही बचना नहीं चाहते ये बाघ।
आदमी के साथ-साथ रहने का सबसे आसान उपाय बताया था दुम हिलाना सीख लो। अब बाघ हैं कि दुम हिलाने को राज़ी ही नहीं। दुम हिलाते भी हैं तो बड़े आराम से, धीरे-धीरे और घात लगाते हुए। बाघ की दुम हिली, यानी झपटने को तैयार है बाघ।
सावधान! बाघ की दुम का हिलना कोई अच्छा शकुन नहीं आदमी के लिए।
*   *   *   *   *   *   *   *   *
मिट जाएँगे, पर दुम नहीं हिलाएँगे। यह भी ठीक है।
दुम हिलाने लगे तो बाघ थोड़ा ही रह जाएँगे वो! वही बन जाएँगे जो दुम हिलाने वाले कहलाते हैं।
और इसीलिए उन्हें दुम हिलाने की सलाह मंज़ूर नहीं।
पर यह दुम हिलाने की सलाह अगर उनकी समझ में आ जाती तो गिनती के ही क्यों बचते?
अब ऐसी भी क्या बाघियत? अब अगर यह बाघियत वाली बात हमारी समझ में आ जाती, तो हम ही कौन सा आदमी रह जाते? बाघ न बन जाते!
मगर तब कोई जनसंख्या-समस्या न होती आदमी को लेकर। गिनती के बचते 1411, या और कम। पर तब क्या बाघ या दूसरे जन्तु हमें बचा रहे होते?
*   *   *   *   *   *   *   *   *
कमज़ोर सबसे पहले धर्म-परिवर्तन, वफ़ादारी परिवर्तन, स्थान-परिवर्तन आदि करके अपने को जिलाए रखने की कोशिश में लगे रहे हैं। जो मज़बूत हैं उन्हीं के मिट जाने का ख़तरा नज़र आता है अक्सर। गधे और कुत्ते-बिल्ली को कोई ख़तरा नहीं है, ख़तरा बाघ-शेर वगैरह को है। बकरे-मुर्गे-बतख़ें-सूअर-भेड़ आदि नियमित व्यञ्जन-सूची का हिस्सा बनकर भी शान से अपनी जनसंख्या बरक़रार रखे हैं। पैदा होने से भी पहले - अण्डे को ही खा जाता है आदमी, मगर मिट जाने का कोई ख़तरा नहीं उन्हें।
बाघों को हमेशा ही ख़तरा रहा है।
अब तो आदमी भी उसे बचाने पर तुल गया है। 
नेता भी। मीडिया भी। कोशिश जारी है कि ब्लॉगिए भी आस्तीन चढ़ा कर जुट जाएँ। 
यानी इस बार कुछ ज़्यादा ही ख़तरा है बाघ को । मज़बूत जो हैं बाघ ।


"जब से वो बाग़बाँ हुए यारो!
सारे जंगल धुआँ हुए यारो!" 

बस तालिबान और अल-क़ायदा या इण्डियन मुजाहिदीन और जुट जाएँ बचाने में… 
*   *   *   *   *   *   *   *   *
वैसा ही एक ख़तरा हिन्दी को भी बताया जाता रहा है, कि अगर लचीलेपन को न अपनाया तो मिट जाने का ख़तरा है। तो अगर वाकई ख़तरा है तो ये ख़ुश होने की बात है कि हिन्दी भी मज़बूत है। और ये बात भी खुशी की है कि ब्लॉगरी का बड़ा अहम योगदान होगा इस मज़बूती को बनाए रखने और बढ़ाते जाने में।
हिन्दी को बहुत फलता-फूलता देखना है अभी हमारी ही पीढ़ी को, बल्कि हमसे पिछ्ली पीढ़ी भी देखेगी, मगर ये भी ज़रूरी है कि ख़ुशफ़हमियाँ और मुग़ालते पहचान कर उन्हें दूर करने की कोशिश करें हम हिन्दीभाषी, समय रहते।
हिन्दी का स्वर्ण-युग आने को है।                
और शायद हिन्दुस्तान – हिन्दुस्तानियों का भी।


हिमान्शु मोहन
इब्तिदा=आग़ाज़=शुरूआत=पहल

दोहे

आज दोहों पर भी हाथ आज़माया है-

 


हरियाली व्यवहार में, मन में खिसके रेत
झुकने में अव्वल मगर, फूलें-फलें न बेंत







कटता शीशम देखकर, गुमसुम बूढ़ा नीम
धागा   चिटका   प्रेम   का,  रोया बैठ रहीम



 


मन का मोल चुका रही, कमल-पात की ओस
आँखों  भर   दौलत   मिली,  साँसों   भर   संतोष


जाने किसकी याद है, जाने किसकी बात
होठों पर कलियाँ खिलीं, आँखों में बारात


यह सशक्त विधा हिन्दी में अभिव्यक्ति की नैसर्गिक क्षमता को उसी तरह तराशती है जैसे उर्दू में शे'र। मज़ा लेकिन गज़ब है, दोनों का।

दस बहाने : दिल ले जाने के

दस बहाने बेहद ज़रूरी होते हैं आम आदमी की ज़िंदगी में।
दिल ले जाने के लिए।
जैसे सात फेरे ज़रूरी होते हैं हिन्दू पद्धति से विवाह के लिए, सात वचनों के साथ।आप यकीन मानिए, अगर आप बहानेबाज़ी में यक़ीन नहीं रखते तो आप जीवन में और चाहे कुछ भी कर सकते हों, पर दिल नहीं ले जा सकते। हर बहाना दस प्रतिशत दिल ले जाने की गारण्टी नहीं देता। शुरूआती बहाने कुछ कम, बाद के कुछ ज़्यादा ही दिल ले जाते हैं।
बहानेबाज़ क्या-क्या ले जाते हैं, ये तो बाद में ही पता चलता है, मगर धीरे-धीरे अच्छा लगने लगता है और दिल का क्या, ये तो चीज़ ही है "जाने-वाली" -


दिल गया, तुमने लिया, हम क्या करें?
जाने वाली चीज़ का ग़म क्या करें !

कुमुक मोर्चे पर


जंग छिड़ने ही वाली है (गर्मी से), कुमुक (कूलरों की शक्ल में) मोर्चे पर पहुँच चुकी है। रसद (पानी-बिजली) का पता नहीं क्या होगा इस बार जंग के दौरान।
http://www.google.com/profiles/HIMANSHU27
http://kas-me.blogspot.com

अरे बड़ी गड़बड़ हो गई!

अरे वाकई बड़ी गड़बड़ हो गई। हमने इस ब्लॉग पर आकर देखा ही नहीं - अइसे गए फेरि नहिं बहुरे… यानी 'मोहन' नाम सार्थक कर दिया…
और यहाँ भाई लोगों ने इतने ढेर सारे संदेश दे डाले। अशिष्टता हो गई, किसी को धन्यवाद ज्ञापित भी नहीं किया और कुछ लिखा भी नहीं यहाँ। हाथ साफ़ करते रहे पोस्टरस पर जाकर, जगह-जगह ऑटो-पोस्ट करवा कर।
सब को प्रणाम, सलाम, बड़ों को प्यार बच्चों को राम-राम।
देवियों और सज्जनों, यानी ख़वातीनों-हाज़रात! शुरूआत में तो कुछ खुराफ़ात नहीं करनी चाहिए मगर क्या करूँ - जो गुज़री है मुझ पर इस ब्लॉगियाने की कोशिश में - शुरूआती दौर में, पहले वही बयान करूँगा।
कल से शुरू, मगर तब तक आप से निवेदन है कि आप मेरे पोस्टरस यानी इलाहाबादी की बतकही, दस-बहाने और इब्तिदा=आग़ाज़=शुरूआत=पहल में से जहाँ ठीक समझें टहल आएँ, तब तक मैं यहाँ अपने अनुभव दर्ज करता हूँ।


अगर आप को शेर-ओ-शायरी पसंद है तो आप यक़ीन जानें सुख़नवर आपके इंतज़ार में अपना दीवान और याददाश्त के पन्ने, दोनों लिए बैठा है , अपना और दूसरों, दोनों का क़लाम सुनाने को।