साथी

Saturday, May 8, 2010

कंपनीबाग, इलाहाबाद

उसी उद्यान परिसर में विक्टोरिया स्मारक तथा गोल पार्क व अन्य क्रीड़ा मैदान। इसी परिसर मेँ मदन मोहन मालवीय स्टेडियम भी है।

यही बाक़ी निशाँ होगा


चन्द्रशेखर आज़ाद की प्रतिमा, शहीद हुए जहाँ वो उसी स्थान पर लगभग। मेले हर बरस लगने की उम्मीद भी कुछ ज़्यादा ही लगा ली क्या रामप्रसाद बिस्मिल ने?
सालाना माल्यार्पण तो होता है यहाँ और उस दिन आइस्क्रीम और चुरमुरे के ठेले भी आ जाते हैं एक दो, मेला..
पता नहीं और जगहों पर यह भी होता है या नहीं!
अब सेलेबुलता के आधार पर मेले प्रायोजित किए जाते हैं।
जय हो!

अच्छी रचना वही जो रचने को उकसाए

मेरा अपना मानना है कि उत्तम कृति हमेशा कुछ और नया रचने की प्रेरणा देती है, बाद में याद आती है और हॉण्ट करती रहती है।
जितनी तीव्रता हो इन अनुभूतियों में, उतना ही उस चित्र, मूर्ति या रचना की गुणवत्ता ऊपर समझता हूँ मैं। यहाँ तक कि ईश्वर प्रदत्त रूप-शारीरिक सौष्ठव संबंधी सौन्दर्य हो या जीवन यात्रा में शनै:शनि: और क्रमश: विकसित व्यक्तित्व के गुण या सम्पूर्ण व्यक्तित्व, उसकी भी सार्थकता इसी में है कि वह सर्जना और कल्पना के नए आयामों को जन्म दे, नया कुछ रचने की उत्कण्ठा जगाए।
मैं अक्सर जब कोई रचना पढ़ कर आनन्दित होता हूँ तो तुरन्त वहीं उसी सोच और अन्दाज़ में कुछ रचने की कोशिश करता हूँ।

विचार करने पर बाद में मैंने पाया कि यह एक प्रतिक्रिया है मेरे अवचेतन की जो एक ओर तो यह जताती है कि मैंने भाव और सोच के उसी स्तर पर पहुँचने का प्रयास किया जिस पर रचना हुई, और दूसरे यह भी कि पढ़ी जा रही रचना इतनी अच्छी है कि प्रेरणा दे रही है, कुछ नया रचने जैसी।वास्तव में रचना को ठीक से समझ पाने की ही कोशिश है यह भी, उस रचना से सामञ्जस्य बिठाने की अवचेतन प्रक्रिया।
मगर दोस्त का कहना था कि यह स्पष्टीकरण साझा करना चाहिए मुझे। यह इसलिए साझा करना ज़रूरी है कि कभी किसी को यह खटक भी सकता है और नकल उतारने या चुनौती देने जैसा भी लग सकता है, जो उद्देश्य नहीं है, बिल्कुल नहीं है। अपनी इस आदत पर पहले कभी ध्यान नहीं गया मगर अब एक दोस्त के ध्यान दिलाने पर देखा तो बात मुझे तो कुछ अटपटी नहीं लगी। मैं अपनी ख़ुशी और पसन्द का इज़हार अगर ऐसे ही करता हूँ तो करता हूँ; इसमें अटपटा क्या है?
सो दोस्त के कहने से स्पष्टीकरण तो दे दिया,  मगर अपनी इस आदत को नहीं बदलूँगा मैं। एक तो ये मेरा रचना से आनन्दित होने का अपना तरीक़ा है, और तिस पर यही मेरी सहज प्रतिक्रिया की प्रक्रिया है।

Friday, May 7, 2010

क्या हम समाज का अंग नहीं हैं?

कई दिन से यहाँ कुछ पोस्ट नहीं किया - जो पोस्ट यहाँ के लिए लिख रहा था वह अब बाद में आएगी। आज ज्ञानदत्त जी की ताज़ा पोस्ट पढ़ी-आशा और प्रयास के प्रति आस्था को सुदृढ़ करती हुई। जिज्ञासा बनी थी उनकी पिछली पोस्ट के बाद से - कि यारो अब क्या होगा?
जो लोग प्रवीण पाण्डेय के शब्दों में छ्लक जाने को आतुर हों, उन्हें छलकने से रोकने को प्रयत्नशील।
पोस्ट पढ़कर, टिप्पणी देकर ही चुका था कि नज़र पड़ गयी इस पोस्ट के लिंक पर, सो फ़ोन का झुमका देखने चला गया। पढ़ कर सवाल पैदा हुआ मन में - सो आप सब से शेयर करने को ले आया - कि क्या हम लोग भी समाज का हिस्सा ही नहीं हैं? अगर समाज-सेवा के लिए, समाज की बेहतरी के लिए हम प्रयत्न करना अच्छा समझते हैं तो व्यक्तिगत उन्नति के लिए प्रयास जल्दी क्यों बन्द कर देते हैं?
क्या ज्ञानदत्त जी को अपनी समस्या, जो उन्होंने साझा सरकार को अविश्वास मत से बचा ले जाने वाले "जुगाड़" से निपटा ली थी, उसके बाद भी निकम्मेश्वरों को चेताने के लिए आगे ठेलनी चाहिए थी या नहीं?
यह मैं स्पष्ट कर दूँ कि यह विभाग मेरे ही अधीन है, जिसे इस सुविधा के प्रदान करने का प्रबन्ध और यत्न करना था, मगर मेरी प्रतिक्रिया इसलिए नहीं - बल्कि इसलिए है -कि मैं स्वयं भी निजी मामलों में सक्रियता का स्तर इसी तरह कमज़ोर और नीचा ही रख पाता हूँ। आज तक मैं इस बात से स्वयं अनभिज्ञ था कि ऐसी कोई समस्या कभी कहीं उठी।
यानी समाज के लिए तो सब कुछ, और अपने लिए प्रयत्न क्यों नहीं? हम भी तो इसी समाज का अंग हैं - या नहीं हैं? अगर अपने को भी समस्या से उबारा - तो समाज के ही एक हिस्से की समस्या दूर हुई न!
मैं भी ऐसा ही कुछ करता शायद, जैसा और जो उन्होंने किया, शायद मैं उससे बहुत अलग कुछ नहीं करता, मगर प्रश्न उठा तो ले आया - सार्वजनिक कर दिया कि झुमका है, तो उसको गिराना भी तो पड़ेगा न!
अब झुमके के लिए मैं यही शुभकामना देता हूँ, कि बरेली के बाज़ार में गिरे या न गिरे,  यहीं गिरे या चाहे कहीं भी गिरे, मगर गिरे ज़रूर।