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Wednesday, May 26, 2010

अभिव्यक्ति - 3

सत्यार्थमित्र की इस पोस्ट ने प्रेरित किया हमें अपने विचार आज साझा करने को। यह शुद्ध मौजी पोस्ट है, यदि किसी को भी अपमान-जनक या अश्लील लगे तो अवश्य बताएँ। आपत्ति देखने तक यह पोस्ट लगी रहेगी और आपत्ति की दशा में अविलम्ब हटा ली जायगी, मगर आपत्ति का प्रभावित-जनों में से किसी के द्वारा होना अनिवार्य है।
हमारे एक मित्र हैं, बड़े गर्व से जब हो तब कॉलर ऊँचा करके फ़र्माते हैं - "देखिए जनाब! अब हम कोई मेहरा तो हैं नहीं, जो…"
उन्हें कॉलर ऊँचा करने का बहुत शुक़ है। फ़र्माने का भी। और उनकी निगाह में "मेहरा" होना जैसे कोई हेय-निन्दनीय लेबल हो।
"मेहरा होना" अपने लाक्षणिक अर्थ में ही प्रयुक्त होता है। इस शब्द के लाक्षणिक अर्थ हैं - घर में घुसे रहने वाला, जो आसानी से दबाव में आ जाय, कोमल स्वभाव का, विनम्र, हिंसात्मकता और आक्रामकता से परे, विवादों से बचने वाला…इत्यादि। मूल रूप में इसे "स्त्रैण" के पर्याय के रूप में ही समझा जाता था, मगर बदलते समय के साथ अगर अब भी इसे "स्त्रैण" का पर्याय ही मान लें तो अर्थ बदल जाएँगे, काफ़ी कुछ विपरीत होंगे वर्तमान प्रचलित अर्थों के।
"मेहरा" तत्व की प्रधानता होने पर उस मेहरात्व को "मेहरपन" कहा जाता है। मगर "मेहरपन" होते ही लाक्षणिकता एक और अंगड़ाई लेकर सीमित हो जाती है "स्त्री-सुलभ श्रृंगार-प्रियता, नज़ाकत या कोमलता और ख़ासकर चुगली - एक की बात दूसरे से कहना, निन्दा इत्यादि रसों का समावेश करके" तक। इनमें से भी चुगली और इधर-की-बात-उधर करना प्रधान।
ब-हर-हाल, अक्सर यह प्रमादी-प्रलाप उनकी पत्नी भी सुनती रहती थीं, मगर एक दिन उन्होंने बड़े मज़े में दिलीप वेंगसरकर का प्रिय शॉट खेला - लेग-ग्लान्स किया अपने पतिदेव के कमेण्ट को। (कलाई के सहारे खेले जाने वाले इस "ग्लान्स" शॉट की ख़ूबसूरती यही है कि आप केवल दिशा देते हैं गेंद को, सिर्फ़ सही टाइमिंग का प्रयोग करके आप गेंदबाज़ की सारी आक्रामकता का लाभ अपने हित और उसकी टीम के विपरीत कर लेते हैं)
उन्होंने इस मेहरा शब्द का एक अन्य अर्थ जो पंजाबी उपजाति या सरनेम के तौर पर प्रयुक्त होता है (जैसे विनोद मेहरा) के सफल प्रयोग के सहारे कहा- "हम कहाँ कहते हैं कि आप मेहरा हैं - आप की तो उम्र ही इसी में बीत रही है कि 'कपूर' बने रहें, कपूरी कम न होने पाए।"
"सो तो हई है, और क्या हम तुम्हारे भाइयों की तरह मेहरा हैं? क्यों दोस्त?"
- इस बार उन्होंने हमसे तस्दीक़ चाही अपने कपूरत्व की।
हमें मौक़ा मिला, और राह तो दिख ही गई थी उनकी धर्मपत्नी के उवाच से - सो हम भी उवाचे - "अरे नहीं भाई! आप पक्के कपूर हैं। ये अलग बात है कि कभी-कभी 'चड्ढा' हो जाते हैं"
अब उनकी पत्नी हँसीं - ज़ोर से - और बोलीं - "सही कहा आपने, 'चड्ढा' तो ये होते ही रहते हैं। 'कपूर' तो इनका सबसे अच्छा फ़ॉर्म है।"
हम ने आगे जोड़ा - "हाँ ये भी सही है, 'चड्ढा' भी बने रहें तो ग़नीमत, वर्ना ये तो 'खुल्लर' भी हो सकते हैं, क्योंकि मेहरा तो हैं नहीं। क्यों भाई?"
और बात सिर्फ़ छह-सात महीने पुरानी होने पर भी, भाई ने अपने कपूर होने की बात पर काफ़ी अंकुश लगाया है। दूसरों को मेहरा बताने पर भी। आख़िर, उन्हें अपनी कपूरी क़ायम जो रखनी है, क्योंकि मेहरा तो वो हैं नहीं!
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इशारों को अगर समझो…
पिछली बार एक टिप्पणी थी कि दक्षिण भारतीय भाषाओं की भी सहभागिता हिन्दी में बढ़ाने पर प्रयास हो। मेरी जानकारी दक्षिण भारतीय भाषाओं की कम ही है, मगर दक्षिण भारतीय भाषाओं ने अंग्रेज़ी को किस तरह अंगीकार किया है, उसकी बानगी आप पा सकते हैं भोजन के लिए प्रयुक्त शब्दों में। आपके लिए जो "मील्स" है, वही मील्स उनके लिए भी है, मगर मील्स के लिए स्थानीय शब्द है -"सापड़"। यदि आप "सापड़" माँगते हैं तो आप नवागन्तुक से अधिक आत्मीय बनने की दिशा में चल पड़े समझिए।
मगर यह "सापड़" है क्या? "सपर" या बोले तो "SUPPER"।
क्या स्वाभाविक सहज अंगीकार है! वाह…