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Wednesday, August 4, 2010

हिन्दी फ़िल्मों और समाज का साथ-2 (राज कपूर और चार्ली चैप्लिन से आगे)

"मेरे देश की धरती…"
अवसर का फ़ायदा उठाने, शहर जाने और 'देस' या 'माटी' को छोड़ने की सोच को हिक़ारत से देखना इस क़दर था कि नायक हमेशा मज़दूर की मशीन पर जीत का हामी होता था और 'माटी' को छोड़ने वाले का चरित्र निभाना प्रेम चोपड़ा सरीखे खल-सहनायक के हिस्से आता था (उपकार)।

मगर ज़माना बदलना शुरू हो चुका था।

समय के साथ किरदार बदले, ज़रूरतों और सहिष्णुता की जगह अवसर-वादिता ने ली और दमित इच्छाओं को साकार करने के लिए नायक का अवसर को भुनाना आम हो चला। पहले राज कपूर अप्रासंगिक हुए और 'मेरा नाम जोकर' की व्यावसायिक असफलता इसकी पहली चेतावनी थी। फिर धीरे से भावुकता और सच्चाई - ईमानदारी जैसी 'वैल्यूज़' ही 'आउट ऑफ़ फ़ैशन' हो चलीं।

वैसे तो परिवर्तन एक सतत प्रक्रिया है और इसीलिए हर पीढ़ी को अपना दौर संक्रमण-काल लगता रहा है, मगर भारत के संदर्भ में यह वास्तव में यह पहला गंभीर संक्रमण काल था। आज़ादी मिले 25 बरस हो चले थे और लोगों ने आज़ादी के बाद की उपलब्धियों का मूल्यांकन अपने तौर पर, अपने संदर्भों से अपनी-अपनी उम्मीदों के हिसाब से करना शुरू कर दिया था।

अभी वो पीढ़ी - जिसने आज़ादी की लड़ाई में सक्रिय योगदान दिया था, पूरी तरह परिदृश्य से बाहर नहीं हुई थी, और न ही आज़ाद भारत में जन्मी पीढ़ी अभी सत्ता पर काबिज़ हो सकी थी। यह सभी जगह लागू था - राजनीति, खेल, कॉर्पोरेट (इसका तब नाम भी नहीं सुना था लोगों ने) व्यवसाय, फ़िल्म और समाज। अभी वैयक्तिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर कुछ भी कर गुज़रने की सोच नहीं पुख़्ता हुई थी और न ही कोई वाद।

नारीवाद की बातें हो रही थीं - प्रोतिमा बेदी की बॉम्बे की सड़कों पर नग्न दौड़ को विरोध का प्रतीक कम और चटख़ारे ले कर फुसफुसाने की चीज़ ज़्यादा समझा गया था। "बॉबी" को आज देखने वाले यह समझ ही नहीं पाएँगे कि उस समय इस फ़िल्म के प्रति कैसा रुझान और कैसी दीवानगी रही होगी और क्यों किशोर-वय दर्शकों में एक नए तरह की सनसनी फैलाई थी ॠषि-डिम्पल की जोड़ी ने।

"मेरा नाम जोकर" की कलात्मक सोच से बाहर आकर व्यावसायिक, सफल परन्तु कलात्मक मसाला फ़िल्म देने में एक बार फिर राजकपूर ने अपनी दिग्दर्शकीय प्रतिभा का लोहा मनवाया - संगीत की समझ और सेटीय भव्यता से भी बढ़कर - मानव मनोविज्ञान की गहरी पकड़ और अपने से आधी से भी कम उम्र की किशोर पीढ़ी की नब्ज़ पहचानने की अपनी क़ाबिलियत का झण्डा लहरा दिया।

दुश्मन : वादा तेरा वादा
'दुश्मन' राजेश खन्ना भी राज कपूर और सुनील दत्त के मिले-जुले रूप की ही नौजवान परछाईं थे। अदाएँ उनकी अपनी भी थीं, दिलीप कुमार और बलराज साहनी से प्रेरित भी थीं मगर पेश करने का अन्दाज़ मौलिक था। पहनावा राजेन्द्र कुमार से प्रेरित, उछ्ल-कूद शम्मीकपूर से - मगर नकल किसी की नहीं।

गुलशन-नन्दा के उपन्यासों पर फ़िल्में बनने का यह दौर राजेश खन्ना के नाम पर दीवानगी का दौर था। अपनी ताज़गी भरी अदाएँ - मुस्कान और पलकें झपकाने के मैनरिज़्म उन्हें दिलों पर राज करवा रहे थे, किन्तु वे स्टार नहीं सुपरस्टार थे और जैसे धूमकेतु सा उदय हुआ था उनका - वही गति बनी रही आगे भी।
सो यह मौलिकता और उनका युवा आकर्षण कुछ और समय तक (1975-76 तक) उन्हें ढो पाया और फिर एकाएक लोकप्रियता के चरमोत्कर्ष से उनका पतन उसी तरह हुआ जिस तरह इसी दौरान सत्ता से कांग्रेस और इन्दिरा गान्धी का। देश की सत्ता जाए तो दोबारा मिल सकती है, दिल की नहीं। सो राजेश खन्ना की लोकप्रियता की सत्ता गई - तो गई।

राजेश खन्ना : आपकी कसम
सुपरस्टार युग का अन्त
...और फिर एकाएक लोकप्रियता के चरमोत्कर्ष से उनका पतन उसी तरह हुआ जिस तरह इसी दौरान देश की सत्ता से कांग्रेस और इन्दिरा गान्धी का। देश की सत्ता जाए तो दोबारा मिल सकती है, दिल की नहीं। सो राजेश खन्ना की लोकप्रियता की सत्ता गई - तो गई।

सो अवसरवादिता के चलन के साथ ही भावुकता और राज कपूर जैसे सारे नायक भुलाए जाने योग्य समझे जनता ने। साथ ही भूल गए लोग उन गुणों को - जो वैश्विक स्तर पर पहचाने जाते थे "हिन्दुस्तानी" के रूप में।
अभी तक हिन्दुस्तानी दर्शक अपने 'जनता' होने का नासूर दिल में लिए, फ़िल्म में बहुत देर से आती पुलिस और अपने नायक के मित्रों (कभी-कभी हीरोइन या हीरो की बहन, माँ आदि भी) के सत्प्रयासों से पकड़े गए खलनायक को पुलिस के हवाले कर देने से थक और पक चुका था।

खलनायक भी जो पहले "धन" के सहारे शोषण करते थे और बाद में उनका हृदय-परिवर्तन भी हो जाया करता था, अब अन्त में जेल जाने लगे थे क्योंकि वे अपहरण, बलात्कार आदि तक पहुँच चुके थे। "सुक्खी लाला" की जगह अब "लॉयन" ले चुका था, या फिर कम से कम जग्गा, बिल्ला, मैक या कोई टोनी…

जब खलनायक हीरो बनना
चाहते थे…
इस दौर की फ़िल्में भी अब खलनायक के जेल जाने के बाद से शुरू होने लगी थीं - कि खलनायक ने कैसे जेल से भाग/छूट कर बदला लिया या नायक की तात्कालिक जीत को उसे बाद में कैसे भुगतना पड़ा। तो इस दौर की फ़िल्मों को पिछ्ले दौर की फ़िल्मों से आगे के कथानक के अब वहाँ से सूत्र मिलने लगे जहाँ पहले फ़िल्म समाप्त हो जाती थी। मूलमन्त्र 'बदला' बना अब।

इस "बदला" रोग से ग्रसित सब हुए - देव'आनन्द, राजेन्द्रकुमार, सुनीलदत्त आदि से लेकर नवोदित किशोर पीढ़ी के कलाकार तक।

शेरख़ान प्राण!
पहले नायक की भूमिका देव साहब
को ऑफ़र हुई थी…! 
"ज़ंजीर" निर्विवाद रूप से इस दौर की ऐतिहासिक फ़िल्म रही जो हिन्दी सिनेमा का अति-महत्वपूर्ण टर्निंग प्वाइण्ट थी।

इस समय तक अपनी और अपने नायक की विवशता और चौतरफ़ा ग़रीबी-बेरोजगारी की हालत से ऊबी हुई जनता - जो हक़ीक़त में पहले ही ऐसी स्थितियों से दो-चार हो रही थी अपने नायक की बदले की भावना से की गई हिंसा को सही मानने और सर-आँखों लेने लगी। जब कोई रास्ता नहीं बचता - मजबूर के पास - तो हिंसा जन्म लेती है। हिंसा हमेशा विवशता से उपजती है, चाहे वह विवशता किसी भी चीज़ से उपजी हो - शायद कायरता से भी।

हिंसा और दबे-कुचले आक्रोश की उपज सलीम-जावेद ने ख़ूब काटी और इसी समय बनी 'शोले'।

फ़िल्मों में भारतीय परिस्थितियाँ तो थीं - मगर कथानक अक्सर हॉलीवुड की सफलतम फ़िल्मों से रूपान्तरित और कभी-कभी सीधे आयातित होने लगे। आयातित मसालों में सबसे ज़्यादा असर रहा कराटे और कुंग-फ़ू या मिलती-जुलती मार्शल आर्ट्स सीक्वेंसेज़ से भरी फ़िल्मों का। विदेशी फ़िल्मों की तरह यहाँ पूरी तरह इन युद्ध-कौशलों पर आधारित फ़िल्में तो बन नहीं सकती थीं - क्योंकि हिन्दी फ़िल्मों के नायक को नायिका भी चाहिए होती थी - गाना भी गाना होता था और नाचना भी, और भी बहुत सी मसरूफ़ियात होती थीं। आख़िर नायक है - नाकारा तो नहीं!

 ज़ाहिर है कि जीवन-दर्शन भी इस दौर में पाश्चात्य रंग में रंगा ही नहीं बल्कि आकण्ठ डूब गया और भारतीयकरण के बावजूद हथियारों पर निर्भरता, नायक की सुपरमैनीयता सहित एक साथ चार, फिर छ्ह फिर दस-बीस और आगे जाकर मिथुन चक्रवर्ती - गोविन्दा के दौर तक पहुँचते-पहुँचते तो पूरी सेना को अकेले दम "उड़ा डालने" की क्षमता बढ़ती चली गई। यह दौर हिंसा और उद्दण्ड - उच्छृंखलता के नाम रहा और कुछ दोयम दर्ज़े के गुनगुनाए जा सकने वाले संगीत के भी नाम। हालाँकि कुछ बहुत अच्छी फ़िल्में भी आईं और कुछ उत्कृष्ट संगीत भी दिया इस दौर ने - मगर वह इस दौर के संदर्भों से परे था - ऐसी अच्छी फ़िल्में और घटिया फ़िल्में तो हर दौर में बनती रही हैं।

त्रिशूल: ख़ाली जेब से
नामी बिल्डर की बराबरी
तक का सफ़र
हिन्दुस्तानी जनमानस अपनी छवि देखना चाहता था अपने नायक में - जो शहर में आता था जेब में बिना पाँच फूटी कौड़ियों के (त्रिशूल) और हौसले और जुनून के सहारे टक्कर देता था नामी बिल्डर को - उसी के खेल में - उसी की चालें चल कर,
"तुम मुझे वहाँ तलाश कर रहे हो और मैं
तुम लोगों का इन्तज़ार यहाँ कर रहा हूँ पीटर"
या कंधे पर रस्सी और होठों पर बीड़ी मगर दिल में जज़्बा सर्वहारा जैसा - कि मेरे पास खोने को कुछ नहीं है - हर संघर्ष के अन्त में कुछ-न-कुछ मिलेगा ही मुझे (दीवार)।
आत्माभिमान - ख़ुद्दारी की बिजली जैसी तड़क भी ख़ूब जमती थी दर्शकों-जनता को -"मैं फेंके हुए पैसे आज भी नहीं उठाता"।

पोस्टर की कला का लोप हो गया - मक़बूल फ़िदा हुसैन जैसे
और जाने कितने कलाकार रहे होंगे जो पोस्टर की कमाई से
ही पले होंगे…
अब तो कंप्यूटर+फ़्लेक्स-प्रिंटिंग ने सबका गला तराश दिया।
मगर इस दौर में जहाँ एक ओर स्थिति इतनी ख़राब हो चली कि आपात्काल घोषित हुआ, वहीं बावजूद सारे प्रशासनिक दमन और सेंसरशिप के, घुटन के साथ ही कानून और प्रशासन का निरादर, अवज्ञा और अवहेलना बढ़ते-बढ़ते अपने चरम तक पहुँचने लगे। आम आदमी के सपने भी बस रोटी से ज़रा ही आगे बढ़ पाते थे - और ख़ास लोगों के सपने मकान तक पहुँच जाया करते थे…

हाए-हाए ये मजबूरी : ज़ीनत अमान और बारिश…
मनोज कुमार-उपकार से यहाँ तक आ गए!
[मैं ना भूलूँगा… ]
और इन हालात में यह हम हिन्दुस्तानियों की जिजीविषा ही कही जाएगी कि हम अपनी मजबूरी में भी रूमान तलाश लेते थे - और हमारे दिग्दर्शक हमारी इसी रूमानियत का फ़ायदा उठा कर हमें वही मजबूरी दोबारा फ़िल्म के रास्ते परोस देते थे और जेबें हल्की करवाने में सफल रहते थे।
यह सर्वमान्य था कि नियम-कानून के रास्ते से जी पाना भी मुश्किल हो रहा था और सुविधा-शुल्क अदायगी के बाद किसी भी विभाग से मनचाहे परिणाम पाना संभव था - इन्स्पेक्टर-लाइसेंस राज की बदौलत। इस नज़र से कहा जा सकता है कि यह व्यवस्था जनता की मूक स्वीकृति भी पा चली थी।

भीड़ धार के ख़िलाफ़ नहीं, उसके साथ बहने को ही तैरने का उत्तम कौशल मानती है और सीमाओं में ही निजी उन्नति के स्वार्थी अवसर भी तलाशती है - भले ही समाज को उसकी कोई भी क़ीमत चुकानी पड़े।

यही दृष्टिकोण आने वाली पीढ़ियों के प्रति भी बनाए रखना ही व्यावहारिक बुद्धिमत्ता के उत्कर्ष की निशानी समझी जाती रही है - सीमित संसाधनों और असीमित लालसाओं से जगमगाते जन-गण-मन में - जहाँ आचरण की शुद्धि के लिए मानदण्ड और मापदण्ड जब-जब तलाशे गए तो उच्च-पदासीन, धनी और लब्ध-प्रतिष्ठ लोगों की ओर ही देखा जाता रहा।

यह क़ाबिले-ग़ौर है कि यही वह समय था जब धीरूभाई और रिलायन्स का उदय भी हो रहा था।
ये कहानी भी कम फ़िल्मी नहीं थी…
यह दौर भी अमिताभ की नायक अवधि की तरह ज़रा लम्बा ही चला - 80-82 के आसपास पहला बदलाव झलका मगर बदलाव आया 1990 के भी काफ़ी बाद - 1995 से - जैसे विण्डोज़ '95 आया हो।

इस लेखमाला पर एक बहुत जायज़ प्रश्न यह बनता है कि यह विवेचना "नायक" के रास्ते ही क्यों?
क्या नायिकाएँ नज़र'अन्दाज़ किए जाने योग्य ही रहीं?
क्या कहानीकार-निर्देशक-पटकथा लेखक का योगदान महत्वपूर्ण नहीं था?
तो कहना यह है कि समग्र रूप में ही सिनेमा और समाज अन्योन्याश्रित रहे हैं, परन्तु नायक-प्रधान युग से अद्यतन, नायक के रास्ते ही विवेचना की गई है। अलग से नायिका और अन्य अंगों पर भी आगे लेखन का विचार है, परन्तु एक ही लेख में सबका विवेचन बहुत कुछ उलझा दे सकता था। इसीलिए सप्रयास इन अंगों को छोड़ा गया है।
(क्रमश:)