साथी

Tuesday, May 18, 2010

कीड़े काटने से सावधान

यह व्यंग्य नहीं है, और अगर पढ़ें तो पूरा पढ़े बिना निष्कर्ष न निकालें, कृपया।
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कीड़े काटने के चिह्न
आपने देखा कि नहीं पता नहीं, आजकल कीड़े बहुत काटने लगे हैं। अधिकतर किशोर-युवा पीढ़ी को ज़्यादा काट रहे हैं कीड़े।
महानगरों में, पूर्वोत्तर प्रान्त में, विभिन्न उच्चवर्ग (धन-आधारित) के प्रश्रय प्राप्त हलकों में, कॉलेजों में ख़ासकर, जहाँ डोनेशन आधारित प्रवेश-व्यवस्था लागू हो वहाँ भी। अमूमन ऐसा समझा जाता है कि अच्छे और महँगे इंस्टीट्यूट्स में पर्यावरण भी बेहतर होगा और आए दिन कीड़े-मकोड़े बच्चों-युवाओं को काट लें, यह तो न हो।
सुई लगाने के चिह्न
पूर्वोत्तर और कोलकाता के क्षेत्रों में बात समझ आती है, उस इलाक़े में कीट-पतंग अधिक होते हैं गर्म और नम जलवायु के कारण। चैन्नै-मुम्बई में भी यह बहाना चल सकता है।
मगर बेंगलूरु, हैदराबाद, मनिपाल, चण्डीगढ़, दिल्ली, आगरा, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, गोरखपुर… हर जगह कीड़े काट रहे हैं और ये ज़्यादातर हाथ पर ही काटते हैं। काला-काला सा निशान पड़ जाता है हाथों पर इनके काटने के बाद। कभी-कभी किसी-किसी को कई बार काट लेते हैं - तो कई निशान पड़ जाते हैं। कभी-कभी कमर या कन्धे पर भी काट ले रहे हैं। 
सुई लेने के पहले बाँह कसना
अभी बरसात का मौसम नहीं, ऐसे में और अब से पहले के मौसम में कीड़ों का इतना काटना कुछ अजीब नहीं है?
सरकार को माहौल में सुधार लाने के लिए कुछ करना होगा। मगर आप भी कुछ कीजिए, देखिए कहीं आप के आस-पास तो किसी को कीड़े बार-बार नहीं काट रहे। आप किसी का जीवन बचा सकते हैं ऐसा करके।
ठीक ऐसे ही निशान पड़ते हैं उन हाथों पर भी जिन पर ड्रग्स/नशे का इंजेक्शन लिया जाता है, और बार-बार लिया जाता है। बहुत बार हाथों पर, कन्धे पर या अन्य शरीर पर जो टैटू बना होता है, उसमें इंजेक्शन लिए जाने पर निशान नज़र नहीं आता। इसलिए भी एकाएक टैटू चलन में आया है।
टैटू-बिच्छू
मुझे तो पता नहीं था अब तक, मगर ऐसी चौंकाने वाली बातें पता चलते ही मैंने इसी लिए साझा करना चाहा कि शायद किसी एक को भी ज़्यादा नुकसान से बचा सके कोई, तो यह प्रयास सफल हो जाएगा।
हाथ में नशे की सुई
दूसरे यह भी ध्यान देने की बात है कि अगर आप के सेवक, ड्राइवर या आस-पास के दुकानदार, वीडिओ-डीवीडी पार्लर वाले, या ऐसे ही अन्य किसी के हाथों पर कीड़े काटने का निशान अक्सर और लगातार ज़्यादा दिन तक दिखे तो उस पर नज़र रखने व सावधान रहने की ज़रूरत हो सकती है, अपनी सुरक्षा के लिए। नशे का आदी किसी भी अपराध में संलिप्त होने के लिए मजबूर हो सकता है, कई कारणों से।
पाँव में नशे की सुई
विश्व स्तर पर इस सम्बन्ध में अब तक उपलब्ध जानकारी के अनुसार भारत में नशाख़ोरी की प्रवृत्ति भी और एच आई वी संक्रमण भी ग़रीबों-झोंपड़पट्टियों में ज़्यादा है। मुझे लगता है कि यह आँकड़े संख्या-जनित होंगे, प्रतिशत-जनित नहीं।
ऐसे लोग, ज़्यादातर एड्स के ख़तरे की ज़द में भी होते हैं क्योंकि इंजेक्शन का प्रयोग लापरवाही से या अदला-बदली से भी हो सकता है।
ये कोई सनसनी फैलाने के लिए नहीं है। हो सकता है कीड़े वाकई काट रहे हों कहीं-किसी को, मगर सावधान रहने में हर्ज है क्या?

हेरोइन पाउडर और सुई


चित्र और कुछ महत्वपूर्ण जानकारी यहाँ मिल सकती है-
http://www.navajocountydrugproject.com/meth_info.php
http://illegaleconomy.com/drugs/global-spread-of-injecting-drug-use.php
www3.endingsuicide.com/?id=1509:15145
http://www.bbc.co.uk/suffolk/content/image_galleries/drug_awareness_2007_gallery.shtml?6

Monday, May 17, 2010

लिखने की ठेलुअई

लिखने के कई कारण होते हैं। डायरी लिखना उनमें से सिर्फ़ एक है। ठेलुअई दूसरा है। man-sitting-clip-art-silhouetteसोचना तीसरा। सोचने की ठेलुअई… अब सब हमीं गिनाएँ क्या?
जो लोग डायरी लिखते हैं, वो उसे गोपनीय रखते हैं। तभी ईमानदार रह सकते हैं, लेखन में। जीवन में सब कुछ पारदर्शी नहीं होता। न होना चाहिए। ऐसा सबके साथ है, फिर भी लोग चाहते हैं कि दूसरे सब सच और यथार्थ तो लिखें ही, कुछ छुपाएँ भी नहीं।
जो हम ख़ुद नहीं करना चाहते, मगर दूसरों से उसकी अपेक्षा करते हैं, वह है "आदर्श"। "आदर्श" चूँकि आदर्श है, अत: वह यथार्थ से परे होगा ही। बहकी हुई बौद्धिकता से उपजा अहंकार ही व्यक्ति को उस आदर्श स्थिति को प्राप्त करने को उकसाता है, जो सैद्धान्तिक रूप से जीवनकाल में कभी संभव नहीं।

मगर इसी “आदर्श” स्थिति को प्राप्त करने को सिद्धान्त गढ़ता-बटोरता है व्यक्ति। बीमारी बढ़ जाय तो अपने "नए सिद्धान्त" की होमियोपैथी या कपाल-भाति शुरू कर देता है।
ऐसे सिद्धान्त का फ़ायदा ही क्या - जिस पर आप चल रहे हों, और दूसरे न जानें? तो दूसरों को जताना - कि बड़ा "सिद्धान्तवादी" व्यक्ति है, यह इच्छा नैसर्गिक परिणति है इस अवपथित बुद्धि और अहंकार-जनित सिद्धान्त-उन्मुख जीवन की।
यह बात कि कुछ ऐसा जो सामान्य-जन को अलभ्य है, उसके लिए हम प्रयास-रत हैं। इसी के प्रचार में उत्कण्ठा होती है कि लोग जानें सिद्धान्तवादिता हमारी। (जैसे गाँव-जवार में चर्चित होना-कि "आईएएस के इम्तहान में बैठ रहा है फलाने का लड़का। फारम भर दिया है" - बहुधा इतने पर तो शादी तय हो जाती है।)
ऐसे प्रयास की भी उन्मुक्त प्रशंसा होती है, और प्रशंसा बड़ी कमज़ोरी है मनुष्य की। ठीक निन्दा की तरह।

प्रशंसा की इच्छा वास्तव में एक मनोवैज्ञानिक सम्बल (ठीक से पढ़े – कम्बल नहीं) की भीख है कि अनुमोदन करो हमारे कृत्यों का, आचरण का। बचपन की अधूरी इच्छाओं का प्रेत है यह प्रशंसा पाने की इच्छा-बैताल सरीखा। इच्छा तो शरीर छूटने पर भी नहीं छूटती। (टिप्पणी पाने की इच्छा भी टॉफ़ी पाने की इच्छा का ही बुढ़ाता बचपना है।)
निन्दा भी प्रशंसा का ही अवतार है। निन्दा एक अवसर है-प्रशंसा पाने का-जो दूसरे के पैरों के नीचे से खींच लिया हमने - भले ही सफल हों या नहीं - प्रयास तो किया।
बड़े-बड़े लोग अत्यन्त निष्काम भाव से निन्दा करते हैं। फल मिले चाहे न मिले, हमने अपना कर्म कर दिया। बड़ा संतोष मिलता होगा निन्दा में, अपना धर्म निभा कर। कुछ-कुछ वैसा ही जैसा दूसरे का घर या पूजास्थल जला कर मिलता है। बगल वाले की दुकान ज़्यादा चल रही है, कसमसा रहे हैं। मौका मिला-दंगा बरेली में हुआ, दुकान रायबरेली में फूँक दी उसकी। फूँकने के पहले अगर लूट नहीं भी पाए, तो तोड़फोड़ तो करनी ही है।
Danda Guru मास्टर साहब ने टिल्लन को मारा, होमवर्क न कर पाने पर। अगले दिन मास्टर साहब के घर के सामने, सड़क के दोनों तरफ़ दिवालों पर कोयले से टिल्लन को लिख देना है कुछ। अब कुछ अच्छा तो नहीं ही लिखेंगे टिल्लन।
अब जैसे हम लिख रहे हैं। लिख रहे हैं अपनी सनक, मगर किसी ने अगर पढ़ लिया तो बढ़िया। कुछ बोला तो और बढ़िया। टिप्पणी कर दी तो अति उत्तम। अगर तारीफ़ कर दी, तो क्या बात है! छा गए गुरु! मगर टिप्पणी के ऐसे निरर्थक गंभीरता से पगे उत्तर देंगे, जैसे हमने लिखा तो सिर्फ़ अपने लिए था, आपने पढ़ लिया तो पढ़वा कर हमने अहसान किया, और आपकी इस ताक-झाँक को माफ़ किया। अरे अगर अपने लिए ही लिखा था, तो ब्लॉग पर क्यों लाए?
लोग टिप्पणी अगर देंगे, तो वह भी अहसान के भाव से: कि "जाओ टिप्पणी दी-तुम भी क्या याद करोगे!…”

“ऐं…! क्या याद करोगे? अबे याद रखना-और हमारे उधर भी आना टिपियाने। जैसा भी हमने उधर लिखा है, तुमने कौन सा अच्छा लिखा है? अगर तुम्हारे ब्लॉग पर देखा जाय तो तुम्हारे लिखे से अच्छी तो टिप्पणी दी है हमने।"
इसी तरह के पारस्परिक अहसान से दुनिया चलती है, चाहे वह भौतिक हो या ऐन्द्रजालिक। हमारे रेलवे पर वर्क-रूपी (कामरूपी नहीं) अहसान से रेल का काम चल रहा है और रेल के हम पर तनख़्वाह-रूपी अहसान से हमारा घर। इसी अहसान के आदान-प्रदान से देश में यातायात और देश की प्रगति चल रही है।
Clipart Thinkerयानी इच्छा और अहसान के बिना न व्यक्तिगत जीवन जिया जा सकता है, न सामाजिक। यही आदर्श सिद्धान्त है।
(हम भी तो बूँक लें!)
अगर लम्बा लिखा जाय और आपकी टाइपिंग गति धीमी हो, या बीच में व्यवधान आते रहें-फ़ोन कॉल, पत्नी, आवश्यक कार्य या फिर सू-सू ही आ जाय, तो विचार-गति की दुर्गति हो जाती है क्योंकि मूड बदल जाता है। और मूड बदले तो अपनी बेवकूफ़ियाँ और तीव्रता से समझ में आने लगती हैं। इसीलिए एक ब्लॉगिये को अपनी पोस्ट जल्दी से ठेल कर किनारे हो लेना चाहिए, ताकि कहीं अपनी बेवक़ूफ़ी को पहचान कर - अवसाद से बचने के लिए वह डिलीट ही न कर दे अपनी लिखाई।
बचना ऐ ……… लो मई आ गया … अरे भाई! मई भी तो अब आधा चला गयाऽऽऽऽ

Sunday, May 16, 2010

बिगुल

भावी भारत के कर्णधार!


प्राचीन संस्कारों पर तुम
अधुना की पहली ईंट धरो
जो सभ्य शिष्ट सब श्व: को दो,
कुत्सित सब ह्य: की भेंट करो


हर सत्य बना डालो सुंदर,
पर सभी अमंगल शिवम् हरे
सारे रत्नों को बाँटे तो,
पर गरल-पान वह स्वयम् करे


विध्वंस करो, पर याद रहे!
उससे दूना निर्माण करो
स्वर्णिम कल की बलिवेदी पर,
अर्पित तुम अपने प्राण करो


जब दर्द हृदय में उठे; नहीं-
आँखें आँसू की ओट करो
हे नवयुग के निर्माता तुम
दूनी ताकत से चोट करो


गढ़-गढ़कर प्रतिमा कल की तुम,
हो सके-आज तैयार करो
कह दो तानाशाहों से- मत
जज़्बातों का व्यापार करो


है आज रुष्ट जो मूर्ति,
तुम्हारी छेनी और हथौड़े से
कल वह महत्व पहचानेगी,
लोगों के शीश झुकाने का


जो आज बना विद्रोही है,
हर रूढ़ि और अनुशासन का-
इतिहास गवाही देता वह-
निर्माता नए ज़माने का!
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चित्र : गूगल से साभार, संपादित