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Saturday, May 15, 2010

ब्लॉगरी में महानता के मानक : संदर्भ समसामयिक प्रश्न

हाल में महानता के मानक चर्चित रहे। अब अगली कड़ी में जैसे ही ब्लागरी में महानता के मानक तय करने की बात आई, लोग मूल प्रश्न से भटके हुए लगते हैं। यहाँ तक कि प्रश्न स्वयम् भी।
ज्ञानदत्त जी की मानसिक हलचल में प्रश्न उठा कि कौन बड़ा ब्लॉगर, और शुरू हो गए पत्थर चलने, सिर-फुटव्वल।
मैं अभी तक यही सोच रहा था कि “बड़ा” तय करने के आधार कोई बताएगा, तब खेल शुरू होगा। बिना नियम बताए तो कोई मैच नहीं हो्ता, न कोई शास्त्रार्थ्। और अपनी पसंद के आधार पर ही अगर तय करना हो तो फिर तो यह निजी मामला हो गया। यदि मतदान करना हो, तो चुनाव घोषणापत्र चाहिए, और फिर उस पर उम्मीदवारों की चर्चा।
अक्सर तो यही होता है, पर यहाँ कोई समिति भी नहीं बनी है जो सर्व-सम्मति से ऐसे नियम तय कर दे। कमाल यह है कि इण्टरनेट चल रहा है, खुले में, मगर हिन्दी-ब्लॉग-जगत में मूल्यांकन क्या केवल व्यक्तिगत सुविधा के आधार पर होगा?
मेरे अपने सुझाव हैं, जिनके तहत मुझे लगता है कि ब्लॉग या ब्लॉगर का क़द नापने की कोशिश में जो बातें महत्वपूर्ण रहेंगी, उनमें से कुछ बिन्दु हैं -
Rose-Petals-redz 1) ब्लॉग पर कुल हिट्स
2) ब्लॉग पर कुल टिप्पणियाँ
3) ब्लॉग की उपयोगिता
4) ब्लॉगर की सामाजिकता और व्यावहारिकता (वैसे यह न भी हो तो भी लोग अंत में अपने पसंदीदा ब्लॉगर को ऊँची रैंकिंग देंगे ही)
5) ब्लॉग की कुल संख्या और वर्गीकरण – जैसे कोई कविता, कहानी, चर्चा, लेख और तकनीकी सहायता आदि में से किस-किस कोटि में सक्रिय है। अब एक दर्शन-फ़लसफ़े पर बने ब्लॉग की तुलना चुटकुलों के ब्लॉग से करना तो असंगत ही होगा न?
6) ब्लॉग-सामग्री की गुणवत्ता – यह कोटि के अनुरूप ब्लॉग पाठकों द्वारा ही 1 से 10 के पैमाने पर अंकित की जानी हो।
7) ब्लॉग का अद्यतन किया जाना – दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक या अनियमित
8) ब्लॉग पर सबके लिए उपयोगी सामग्री जो कॉपीराइट उल्लंघन से परे, नि:शुल्क डाउनलोड हो सकती हो या चि्त्र, विजेट, टेम्प्लेट आदि जो अन्यत्र प्रयुक्त हो सकें।
यह बाध्यता भी हो कि मूल्यांकन के लिए मत उसी ब्लॉग-पाठक का गिना जाय जो मूल्यांकन अवधि में कम से कम पाँच बार, या प्रति पोस्ट एक बार, या प्रतिमाह कम से कम तीन बार (या ऐसी ही कोई सर्वसम्मत संख्या) तक कम से कम उस ब्लॉग पर जा कर टिप्पणी कर आया हो। बिना पढ़े या टिपेरे कैसा मत?
जो भी हो, अगर खेल होना है, तो नियम तय किए जाएँ, शुरू करने के पहले।
अब मेरे प्रश्न स्वयं से ही हैं कि-
1) क्या ब्लॉगरी स्वान्त: सु्खाय ही नहीं होनी चाहिए?
2) ज़्यादातर लोग जो ब्लॉगरी में लगे हैं, क्या वे अपनी किन्हीं महानता की अधूरी रह गयी इच्छाओं की पूर्ति के लिए आए हैं, या बस अच्छा लगता है इसलिए? प्रोफ़ेशनल ब्लॉगर को यकीनन शौकिया ब्लॉगर से अलग देखना होगा।
3) क्या विभिन्न रैंकिंग्स जो दी जा रही हैं, तरह-तरह की सेवाओं द्वारा, वे ब्लॉगरों के अहम् की मानसिक तुष्टि के लिए पर्याप्त नहीं हैं?
शायद कुछ अन्तराल पश्चात् मैं अपनी राय स्थिर कर सकूँगा, और तब उत्तर भी ढूँढ लूँगा।
और अन्त में, अपनी व्यक्तिगत राय, जितनी स्थिर है, उसे भी व्यक्त कर दूँ।
मैं समझता हूँ कि मेरे लिए अच्छा पढ़ लेना ही पर्याप्त नहीं है, जिसके लिए अच्छे से अच्छे रचनाकारों की अच्छी से अच्छी कृतियों से बाज़ार, पुस्तकालय पटे पड़े हैं, उन्हें पढ़ने के लिए पूरा जीवन कम है और यहाँ तक कि नेट पर भी रुचि के अनुरूप सामग्री उपलब्ध है, नि:शुल्क भी। ऐसे में मुझे कोई मुग़ालता नहीं अपने लेखन को लेकर, न दूसरों के।
Rose_Petalsमेरे लिए ब्लॉगरी में ज़्यादा महत्व की बात है आपसी सम्वाद, अन्तर्कथन और अन्तर्संवाद जो जान है इस नेटीय सामाजिक संरचना की। मेरे लिए दोस्ती और भावनात्मक संबल ज़्यादा बड़ी बात है।
इसी से मैं ब्लॉग पर हूँ, वर्ना किसी के ब्लॉग पर जा कर पढ़ने के बाद टिप्पणी देने की क्या ज़रूरत? क्या मेरे प्रतिक्रिया न देने से लेखन की गुणवत्ता घट जाएगी? नहीं, मगर देने से बढ़ सकती है, सुधार हो सकता है। इसी से जो चटते हैं मेरे साथ चैट पर, वे मेरे दिल के ज़्यादा करीब आ चुके हैं, और उनकी कमियाँ अगर कोई हों तो उनसे मुझे फ़र्क नहीं पड़ता उनकी अच्छाइयों के आगे।
मेरे लिए शुरुआती दौर में भी ऐसा था, और बाद में भी, जो महत्व आपसी संवाद का है, हौसला बढ़ाने वालों का है, वह गुणवत्तापरक लेखन का न है, न हो सकता है। कौन से अध्यापक अच्छे लगते थे – जो स्वयं बहुत उच्च योग्यताधारक थे? या जिन्होंने अपनी कमियों को जीतना सिखाया? या जिन्होंने ख़ुद से ज़्यादा ऊँचाई तक पहुँचाने के लिए अपने शिष्य में उच्चतर योग्यता पैदा की? और उन अध्यापकों से पहले क्या वह माँ, बहन, बड़े भाई, चाचा याद नहीं जो आपकी ग़लती होने पर भी साथ ही खड़े हुए?
आदर्श कुछ भी हों, जो मेरा साथ दे, हर परिस्थिति में - मेरा अपनत्व भी उसी के साथ है, और इस संशयविहीन सोच पर मैं ख़ुश हूँ।
सबकी अपनी-अपनी सोच है, मगर मेरी सोच तो यही है कि -
प्यार तो करते हैं दुनिया में सभी लोग, मगर;
प्यार जतलाने का अंदाज़ जुदा होता है
कोई भी ठोकरें खा जाय तो गिर सकता है,
झुक के जो उसको उठा ले – वो ख़ुदा होता है
ब्लॉगरी की मान्यताएँ और उसूल वास्तविक जीवन से अलग नहीं हो सकते। मुझे यह स्वीकारना पड़ता है कि यदि मेरे अपनों की व्यक्तिगत उपलब्धियाँ कुछ कम भी हों तो भी मैं उन्हीं के साथ रहूँगा, व्यक्तिगत उत्कृष्टता का मोल पारस्परिक सहभागिता में उत्कृष्टता के आगे कम है मेरे लिए।
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(काव्यपंक्तियों के रचयिता:अज्ञात; सभी चित्र गूगल से साभार)

Friday, May 14, 2010

मद्यं शरणं गच्छामि : 'बच्चन' के बहाने

बच्चन जी की स्वयं चुनी हुई कविताओं संकलन पलट रहा था, “मेरी श्रेष्ठ कविताएँ”। अचानक एक पृष्ठ पर निगाह ठहर गयी – नीचे उद्धृत करता हूँ आपके रसास्वादन के लिए: (अंश: “बुद्ध और नाचघर” से)
जहाँ ख़ुदा की नहीं गली दाल, वहाँ बुद्ध की क्या चलती चाल?
वे थे मूर्ति के ख़िलाफ़ - इसने उन्हीं की बनाई मूर्ति,
वे थे पूजा के विरुद्ध - इसने उन्हीं को दिया पूज,
उन्हें ईश्वर में था अविश्वास - इसने उन्हीं को कह दिया भगवान,
वे आए थे फैलाने को वैराग्य, मिटाने को सिंगार-पटार - इसने उन्हीं को बना दिया श्रृंगार।
*  *  *  *  *  *  *
…सबके अंदर उन्हें डाल, तराश, खराद, निकाल
बना दिया उन्हें बाज़ार में बिकने का सामान।
*  *  *  *  *  *  *
शेर की खाल, हिरन की सींग
कला-कारीगरी के नमूनों के साथ - तुम भी हो आसीन,
लोगों की सौंदर्य-प्रियता को देते हुए तस्कीन,
इसीलिए तुमने एक की थी आस्मान – ज़मीन?
*   *   *   *   *   *   *
(अंत में – यह ज़िक्र करते हुए कि नाचघर में एक तरफ़ बड़ी सी बुद्ध की मूर्ति शोभायमान है, रंग-बिरंगे जलते-बुझते बल्बों के बीच रंगीली सज्जा में – और दूसरी तरफ़ लाइव-ऑर्केस्ट्रा के जाज़ पर जोड़े थिरकना शुरू कर चुके हैं…)
"मद्यं शरणं गच्छामि,
मांसं शरणं गच्छामि,
डांसं शरणं गच्छामि"
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इसी तरह एक अन्य पृष्ठ पर उनका फ़ुटनोट देखा -
"यह कविता और गीत – आकाशवाणी केन्द्र में इस दिन फीतांकित किए गए"
और मैं चौंका – टेप-रिकार्ड किए जाने का सार्थक सशक्त अनुवाद –“फीतांकन”! वाह!!
मैंने अब तक नहीं देखा कहीं भी यह प्रयोग।
मेरी अज्ञानता हो सकती है इसमें, मगर यही बातें तो एक सामान्य कवि को विशिष्ट बनाती हैं।
क्या ब्लॉगरी भी सप्रयास ऐसी ही समृद्धि दे नहीं रही हिन्दी को? बिना नारे लगाए भी, मुक्त और स्वच्छ्न्द यह हिन्दी आन्दोलन अब तक के सारे आन्दोलनों, सारे ***वादों और सारी धाराओं को पीछे छोड़ देगा, इसमें मुझे ज़रा भी संदेह नहीं।
और मुझे समझ में आ गया कि पुस्तक खरीदनी पड़ेगी - जबकि कविता पढ़ने को मैं अच्छी आदत नहीं समझता। वो भी ख़रीद कर–प्रवीण पाण्डेय के शब्दों में कहूँ तो - “शिव-शिव, हर-हर!”
*  *  *  *  *  *  *  *  *
मैंने पहले भी बहुत कविताएँ नहीं पढ़ी थीं उनकी, और विशेष रुझान भी नहीं था। इसी से उनका गद्य लेखन तो पढ़ा गया – बचपन में, जब समय ख़ूब रहता था मगर कविताएँ – उफ़्! कविता पढ़ना मुझे उबाऊ काम लगता था, और लगता है।कविता सुनना अच्छा लगता था, मगर कुछ ख़ास तरह की, और गेय।
बाद में प्रसाद जी की कविताएँ अच्छी लगीं, निराला की भी। पन्त और महादेवी जी की कविताओं के प्रति वैसा रुझान कभी उत्पन्न नहीं हुआ। महादेवी जी का गद्य भाता है। फिर बिहारी, गुलज़ार, रसखान जमे। फिर मैं समझ पाया कि मेरी पसन्द छोटी, उक्ति-वैचित्र्य से भरपूर और व्यंग्य या तंज़ से भरपूर रचनाओं के प्रति है। आनन्द और दिल तक पहुँचना ज़्यादा ज़रूरी है मेरी पसन्द के लिए।
काका ‘हाथरसी’ जमते थे। उनकी कविताएँ याद करनी पड़ीं, क्योंकि पाँच साल की उम्र में ही उनका रोल अदा करना पड़ा था मुझे, स्टेज पर। वहीं से स्टेज की सवारी शुरू हुई थी, जो अभी जारी है।

Thursday, May 13, 2010

अभिव्यक्ति-2

अभिव्यक्ति को अगर अभि-व्यक्ति लिखा जाए तो इसका अर्थ भिन्न हो जाएगा। ये अलग बात है कि प्रचलन में न होने से वह दूसरा अर्थ न लेकर लोग रूढ़ार्थ से ही काम चला लेंगे। अभि=सीधा, व्यक्ति=आदमी यानी "-" से जुड़ा होने पर यह भाव-वाचक संज्ञा से विशेषण में बदल जाएगा क्या? तकनीकी दृष्टि से - "हाँ"।
रूढ़ार्थ का कमाल देखिए - अक्सर ब्लॉग पर टिप्पणीकर्ता, जो तेज़ी में रहते हैं, कई जगह और भी जाना है उन्हें; "उम्दा" "अति सुन्दर" "नाइस" "ग़ज़ब!" से काम चला लेते हैं।
अब 'ग़ज़ब' का अर्थ देखिए - इसका अर्थ हर कोश में दैवी आपदा, क्रोध, कोप, रोष, ग़ुस्सा, आपत्ति, आफ़त, अंधेर, विपत्ति, ज़ुल्म वगैरह मिलेगा। विशेषण के अर्थ में प्रयुक्त होने पर इसका प्राथमिक अर्थ होता है -"बहुत" या "बहुत अधिक" और द्वितीयक अर्थ होता है -"विलक्षण"। मगर इसका रूढ़ार्थ क्या है? "विलक्षण" या "विस्मयकारी" या "चमत्कारी" और आप कितना भी ढूँढें, इस अर्थ के अलावा इस शब्द का प्रयोग लगभग नगण्य मिलता है।
ऐसा ही बहुत से अन्य भाषाई शब्दों को जब कोई भाषा अंगीकार करती है, तो एक ख़ास रूढ़ार्थ को ध्यान में रखकर। फिर उस भाषा में उस शब्द का वही एक अर्थ हो जाता है। जैसे 'स्कूल' का हिन्दी में एक ही अर्थ है - विद्यालय।
'स्विच' का भी हिन्दी में एक ही अर्थ है, और भी कई शब्द हैं ऐसे।
कई बार ऐसा भी होता है कि शब्द एक भाषा से दूसरी में गया और उसके साथ एक ऐसा अर्थ जुड़ गया जो उस शब्द का मौलिक अर्थ कहीं से था ही नहीं, पर अब नई भाषा में उस शब्द का वही अर्थ हो गया। जैसे 'धारीदार' कपड़ा ख़रीदते समय उसे "लाइनिंग"दार कहा जाना, निहायत ग़लत मगर स्वीकृति की हद तक प्रचलित प्रयोग है। "लाइनिंग" का अर्थ अस्तर होता या फिर तनिक उच्चारण भेद से "आकाशीय बिजली", तो संभाव्य था। मगर नहीं, हम तो धारीदार के लिए ही इस्तेमाल करेंगे।
"बियरिंग" जब हिन्दी में आया तो बहुत समय तक इसका एक ही अर्थ था जो विशेषण "बियरिंग" का अर्थ था और उसे हम "बैरंग" कहते और पत्रों से जोड़ते थे जिनका पूरा डाक-ख़र्च प्रेषक द्वारा अदा न किया गया हो। अब डाकसेवा की लोकप्रियता और सेवा - दोनों के अभूतपूर्व ह्रास के कारण यह अर्थ खो गया है। इस बीच ही आटोमोबाइल व अन्य मशीनों, पंखा, ट्रैक्टर आदि की उपलब्धता बढ़ी और दाम भी अधिक लोगों की पहुँच में आ गए - तो "बियरिंग" के संज्ञा रूप से लोग परिचित हुए और अब रूढ़ार्थ यही है। ऐसा ही 'ट्रैक्टर' और 'ग्लास' के साथ भी है और इनके तो रूढ़ार्थ ही प्रचलन में हैं, मूल अंग्रेज़ी में भी।

Monday, May 10, 2010

मेरे नए ब्लॉग अनुभव

कुल मिला कर बीते दिनों को याद करके हँसी आ रही है।
बीते दिनों को याद करके कोई हँसता है, कोई रोता है। जिसे लगता है कि “कितनी बेवकूफ़ी की बीते दिनों!” - वो हँसता है। जिसे लगता है कि बेवकूफ़ी बीते दिनों नहीं हुई, अब हो रही है, वो नहीं हँसता।
HM CHARLIE Sसबसे पहले तो हँसी आती है अपनी समझ पे - बज़ देखी, कमेण्ट किया या आगे बढ़े और उस कमेण्ट के बाद सब बज़ को म्यूट कर देता था मैं। मज़े की बात ये है कि अब भी मैं बज़ से आगे बढ़ते ही म्यूट कर देता हूँ, क्योंकि मुझे पता नहीं कि और क्या करना चाहिए बज़ का। ज्ञानदत्त जी ने अभी पिछले हफ़्ते पूछा कि मैंने “अपने ब्लॉग बज़ से तो जोड़े हैं न?” तो कबूलना पड़ा कि “नहीं”। पता ही नहीं था कि कैसे जोड़ूँ। अब तो कुछ सीखा और कर लिया पिछले रविवार को।
फिर एक पुरानी बज़ जिसमें मैंने अपने अनुभव इसी तरह दर्ज किए थे, उसको पा गया बज़ को टटोलने में। बहुत से कमेण्ट थे – सलाहें थीं कि इसे पोस्ट बना देना चाहिए। मैं बज़ म्यूट करके मस्त था! कुछ पता नहीं था कि कितनी बड़ी अभद्रता कर रहा था – अजाने में। सो अब यह पोस्ट पर ही दर्ज कर रहा हूँ और लिंक सहित (देखिए मैं सलाह पर अमल करता हूँ – अच्छे बच्चों की तरह!)।
फ़ॉलो करने वालों के ब्लॉग पर जाना आसान होता है। यही सोच कर फ़ॉलो करने वाला विजेट लगा लिया अपने ब्लॉग पर, ऊपर ही। नतीजा – प्रवीण त्रिवेदी जी, माणिक का माणिकनामा, पद्मसिंह जी का पद्मावलि और (पद्मसिंह जी का साथ पहले ही कुछ प्रगाढ़ लगता है, शुरूआत के साथी हैं न!) दिलीप जी का ब्लॉग तथा प्रणव के अमित्राघात पर जाना आसान हो गया मेरे लिए। कुछ ब्लॉग हटाए भी - जिन पर मैं कुछ पसन्द का नहीं पा रहा था, और जिन पर नई सामग्री नहीं थी। गूगल रीडर पर मुझे आसान नहीं लगा मनचाहे ब्लॉग पर जाना।
आराधना और स्तुति पाण्डेय दोनों ब्लॉग पर भी सक्रिय हैं और बज़ पर भी। अजीब सी आदत होती है लड़कियों की - लड़कियाँ चाहती हैं कि उन्हें कोई छेड़े - तभी तो पहले बताती हैं कि उन्हें चिढ़ किस बात से है, फिर चिढ़ाई जाने पर ख़ुश होती हैं। ये बात मैं अपने बचपन से नोट कर रहा हूँ, ज़्यादातर दीदियाँ तब भी ऐसी ही होती थीं, अभी भी मेरी बेटी पहले अपने भाई से ख़ुद ही कुछ शेयर करेगी, फिर उसी पर घमासान छिड़ेगा।आराधना का ब्लॉग, भानुमती का पिटारा - स्तुति पाण्डेय, ई-गुरू राजीव उर्फ़ आरएनडी, प्रवीण त्रिवेदी मास्साब के ब्लॉग, शेफ़ाली पाण्डे का कुमाऊँनी चेली इन सब पर मैं नियमित जाता रहता हूँ, अक्सर अच्छा पढ़ने को मिल जाता है यहाँ। मन हुआ तो टिप्पणी भी करी – न हुआ तो न करी।
और ब्लॉगर जो नज़र में आए, उनमें हैं अदा जी जिनके ग़ुरूर, अदा और हुनर का परस्पर संबंध अन्योन्याश्रित है, मगर मेरी नज़र में तो उनके लाडले मयंक की रेखाएँ बसी हैं - कृष्ण! प्रकट ही हो गए आप तो मयंक की रेखाओं में! उनकी काव्यमञ्जूषा भी खोल के देख आता हूँ कभी-कभी। पिछले दिनों कुछ खिन्न सी थीं, ब्लॉगजगत की किन्हीं घटनाओं से; मुझे अच्छा लगा कि मैं पूर्णकालिक ब्लॉगिया नहीं हूँ – मेरे पास अपने सरदर्द पहले ही कम नहीं हैं। अब यशोधरा पर एक अच्छी रचना लाई हैं आज मदर्स डे पर।
अरविन्द मिश्रा का क्वचिदन्यतोऽपि, अमित्राघात, ज्ञानदत्त पाण्डेय जी की मानसिक हलचलमेरी हलचल उन्होंने इस बीच शुरू किया और स्थगित भी कर दिया, प्रवीण पाण्डेय और उनका ब्लॉग प्रवीण और ज्ञान पाण्डेय, शिवकुमार मिश्रा और ज्ञानदत्त पाण्डेय का ब्लॉग परिष्कृत रुचि की माँग को पूरा करते हैं और हिन्दी ब्लॉग में प्रवीण पाण्डेय जैसे और ब्लॉगियों की ज़रूरत है, उसे समृद्ध बनाने और विश्वस्तर का बनाने के लिए। और भी ऐसे ब्लॉगिये हैं, मगर प्रवीण की तरह अपने स्तर का निर्वहन करते रह पाने में देखें कब तक ये सब सक्षम रहते हैं। शरद कोकास भी गुणवत्ता का उच्च स्तर बनाए रखते हैं, और संवाद में भी रहते हैं। फुरसतिया के बारे में भी यही राय है कि वह स्तरीय लेखन करते हैं, और जब ठेलुअई करते हैं तो वह भी स्तरीय।
रानी विशाल का काव्यतरंग, माणिक का माणिकनामा बढ़िया हैं। रतन सिंह शेखावत का ज्ञान-दर्पण बहु्त काम का ब्लॉग है, हिन्दी तक सीमित ब्लॉगरों के लिए। प्रियदर्शिनी तिवारी शौकिया लिखती हैं, अनियमित हैं मगर अच्छा लिखती हैं। जिन्न्श वाला लेख तो कमाल था। ताऊ का अड्डा भी बड़ा रोचक है और अपनी रोचकता भी बनाए हुए है और सरोकार भी। प्रणाम इसी बात पर। बस ये नहीं जान पाता कि ये चिम्पैंज़ी की खाल का बुर्क़ा ओढ़े रहने वाला ताऊ है कौन?
इयत्ता, चोखेर बालीवन्दना पाण्डेय, अन्जना का ब्लॉग - पॉवरव्योम के पार-अल्पना वर्मा, वन्दना अवस्थी 'दुबे' की अपनी बात और किस्सा कहानी इन सब पर पढ़ने को अच्छी सामग्री मिलती रहती है। एक चर्चा मंच है जहाँ कृति देव से यूनिकोड में और उल्टा परिवर्तन संभव है, वहीं दाएँ हाशिए में इसका लिंक है। मैं वन्दना गुप्ता जी के संदर्भ से पहुँचा था यहाँ। वन्दना जी के ज़ख़्म जो फूलों ने दियेज़िन्दगी……एक ख़ामोश सफ़र और एक प्रयास तीनों ही अच्छी रचनाओं के ठिकाने हैं, मगर उनकी अपनी ही रचनाएँ क्रॉस-पोस्ट भी होती हैं इन पर।
बहुत रंगीन से कई लेबल लगे होते हैं जहाँ- वहाँ से मैं जल्दी ही भाग लेता हूँ। ईमानदारी से स्वीकार करता हूँ मुझे सज्जा करनी नहीं आती – मेरे ब्लॉगों की थीम भी ज्ञानदत्त जी ने सहेज दी है – सो लगी है।
वास्तव में यह सहजता, मृदुता और नए ब्लॉगियों को प्रोत्साहित करने का बड़प्पन ही “उड़नतश्तरीtn64समीर लाल जी और ज्ञानदत्त जी को वह दर्जा दिलाए हुए है जिस तक पहुँचने के लिए सिर्फ़ एक अच्छा ब्लॉगिया  ही नहीं, और भी बहुत कुछ होना पड़ता है। उड़नतश्तरी आप के यहाँ से गुज़रेगी सर्रर्रर्रर्रर्र और टिप्पणी कर के आप को दे जाएगी ऑक्सीजन आपके ब्लॉग को जिलाए रखने के लिए – जब तक आप यह प्राणवायु देना स्वयं न सीख लें –या जब तक उड़नतश्तरी दुबारा सर्राटा न भरे…!
अमित्राघात पर नई रचना बहुत ख़तरनाक हालात को बयाँ करता हुआ सशक्त ताना है, समाज की महिलाओं के प्रति संवेदनहीनता और दोहरे मापदण्डों के प्रति।
पंकज उपाध्याय ने ग़ज़ब ढा दिया है अपनी नई पोस्ट में- मेरे विचार मेरी कविताएँ पर। कभी गुमसुम, कभी उदास और मासूम, कभी रंगीला-छ्बीला ये लड़का मेरी नज़र में लड़कियों के लिए एक सॉफ़्ट टारगेट है – एलिजिबुल कुँआरा और जैसा है वैसा होने के नाते। अरे पण्डितो! और कुँआरी कन्याओ! मौसियो! चचाओ! पकड़ो – जाने न पाए!
पीडी - मेरी छोटी सी दुनिया और कॉमिक्स, ललित शर्मा ललितडॉटकॉम, अजित वडनेरकर का शब्दों का सफ़र, सुख़नसाज़, सुख़नवर2सुख़नवर, संजीत त्रिपाठी का ब्लॉग सब बहुत अच्छे लगे। पीडी यानी प्रशान्त प्रियदर्शी की लेखनी में तो दम है ही, उन्होंने बड़े-बड़ों को बच्चा बना दिया, और यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि मेरी कॉमिक्स पढ़ने की प्यास अभी भी अधूरी ही है।
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी, अरुणेश जी और झनकार के ब्लॉग तथा राजे शा का हँसना मना है,  भी अच्छे लगे। संजीव तिवारी जी की पत्रकारिता स्तरीय है। सुमन “nice” जी को कौन भूल सकता है? बहुत-बहुत धन्यवाद उनके प्रोत्साहन के लिए। इसके साथ ही एक आनन्द का ब्लॉग देखा था जो संस्कृत में था, शायद इन सबको फ़ॉलो करना भूल गया या शायद लिंक हट गया - तभी इस समय लिंक नहीं मिल रहा। बाद में ढूँढ कर लगाऊँगा।
राकेश कौशिक जी का हृदय-पुष्प, पूनम जी का झरोखा, शारदा अरोरा जी का गीत-ग़ज़ल, ज़िन्दगी के रंग  सब बहुत अच्छे लगे मुझे। शारदा जी को चेतावनी दे आया था कि उनकी कोई रचना –या यों कहें कि उनका “आइडिया” चुराऊँगा किसी दिन, अभी चुराना शेष है।
शरद कोकास का ब्लॉग एक ऐसा ब्लॉग है जहाँ जाकर कभी निराश नहीं लौटना पड़ा। ज़ाहिर है कि ये भी न केवल अच्छे रचनाकार और कवि हैं, बल्कि साथ ही अच्छी चयन की समझ भी रखते हैं। अनूप शुक्ल ही फुरसतिया हैं ये जानने में देर लगी,जब से मैंने प्रोफ़ाइल देखना शुरू किया तब जाना। फ़ोटो लगाते हैं ब्लॉग पर, मगर प्रोफ़ाइल पर नहीं–शायद फ़ुर्सत न मिली हो! :)
ग़ज़ल के बहाने - श्याम सखा ‘श्याम’ जी के ब्लॉग पर जाना सुखद रहा, श्रद्धा जैन की भीगी ग़ज़ल तो ख़ैर भिगोती ही है। नीरज गोस्वामी का ब्लॉग, कुमार ज़ाहिद का ब्लॉग, गौतम राजरिशी का “पाल ले इक रोग नादाँ”;  पंकज सुबीर की कुछ प्रेम कथाएँ, सर्वत इण्डिया, वीनस केसरी और उनका ब्लॉग आते हुए लोग, पद्म सिंह, अर्श, मुफ़्लिस और उनका तर्ज़-ए-बयाँ, शाहिद मिर्ज़ा ‘शाहिद’ के जज़्बात ये सब ग़ज़ल से जुड़े अच्छे ब्लॉग हैं, मुझे पसन्द हैं। सतपाल ख़याल बड़ी मेहनत से काम कर रहे हैं आज की गज़ल पर।
जिन्हें मैं लगातार गूगल बज़ पर ही पढ़ता रहा हूँ (कभी-कभी ब्लॉग पर भी जाना होता है) वे हैं दिनेशराय द्विवेदी जी-बज़ पर और अजय झा जी भी-बज़ पर। द्विवेदी जी का संस्मरणात्मक और वर्णनात्मक लेखन उम्दा और सहज है और विधि के तो विशेषज्ञ वे हैं ही।
अविनाश वाचस्पति जी- नुक्कड़ पर, संगीता पुरी जी का गत्यात्मक ज्योतिष जिन्हें मैं लगातार पढ़ता रहा हूँ ऐसे नियमित और अच्छे ब्लॉग हैं। इन्दु पुरी गोस्वामी जी का ब्लॉग भी बहुत रोचक और प्रेरणास्पद बना रहता है, बाक़ी स्वयं वे “हक़ से माँगो प्रिया गोल्ड” टाइप लगीं। अपनी बात पूरे हक़ और अपनत्व से कहती हैं; कोई बनाव-दुराव-छिपाव नहीं – सीधा-सरल व्यवहार। हरकीरत ‘हीर’ एक अत्यन्त सशक्त हस्ताक्षर हैं कविता के सभी पृष्ठों पर। अनुवाद में भी उनका योगदान है, मैंने अभी देखा नहीं सो कैसे कहूँ उस बारे में?
जो नए जोड़े -
गुलज़ारनामादिव्या का ब्लॉग, निशान्त मिश्रा का ब्लॉग से ज़्यादा मज़ेदार योगदान ट्विटर पर मिलता है मुझे – यू-ट्यूब लिंक के रूप में। अन्य भी कई ब्लॉग और उनके रचनाकारों का ज़िक्र बाक़ी है, जैसे स्वप्निल कुमार “आतिश” का “कोना एक रुबाई का”, चौधरी, अनामिका की सदाएँ, अनिल कुमार “हर्ष” आदि; सुलभ सतरंगी, पारुल मगर अब अगर आज ही सब को लिख सका तो फिर अगली बार क्या लिखूँगा?
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इस पोस्ट में यदि किसी को कुछ आपत्तिजनक लगे तो मुझे क्षमा कर दें। ये मेरी अपनी राय है, बदल भी सकती है और नहीं भी। मगर ये किसी दूसरे की राय नहीं है, अत: ईमानदारी से सारी ज़िम्मेदारी मेरी अपनी है। वैसे भी मेरी अकिंचन राय से किसी को क्या फ़र्क पड़ सकता है?
स्वार्थपरक निजी कारणों को मैं सार्वजनिक किए देता हूँ : मुझे अपने पसन्दीदा ब्लॉग ढूँढने के लिंक एक जगह मिल जाएँ इस उद्देश्य से मैंने लिंक इकट्ठे किए, और राय इसलिए दर्ज की कि बाद में देखूँ और हँस सकूँ – कि इस समय मैं क्या सोचता था! (और इस बारे में बज़ पर मिली सलाहों का ध्यान रखने की पूरी कोशिश भी की है)

माँ को जादू ज़रूर आता है (मातृ-दिवस पर)

यह मातृ-दिवस पर कल लिखी गयी रचना है, इसीलिए आज ही आ सकी…
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माँ को जादू ज़रूर आता है!
कैसे हर बात जान जाती है
वो भूख-प्यास हो के दर्द हो के नींद लगे
पढ़ाई हो के छुप के शैतानी
किसने लड्डू निकाले डब्बे से
कौन पिल्ले उठा के लाया है
माँ को जादू ज़रूर आता है…


माँ की जब बात न मानो तो पीछे पछताओ
खेलो पानी से फिर हरारत हो
देख लें दादी तो क़यामत हो
जला के माचिसें खेलो तो हाथ जल जाए
काट ले बर्र तो बस जान ही निकल जाए
चोट पे फूँक का जादू सा असर
माँ को जादू ज़रूर आता है…


चीनी खालो तो पेट में गड़बड़
माँ नहीं करती दादी सी बड़-बड़
खाओ अमिया तो फुंसियाँ निकलें
कितनी गन्दी! कहाँ-कहाँ निकलें!
आँख में किरकिटी कि हाथ की फाँस-
माँ के छूते ही दर्द ग़ायब हो
माँ को जादू ज़रूर आता है…


माँ खिलाती है तो भर जाता है जी
बस चले तो पिला ही डाले घी
दूध पीना है सुबह एक गिलास
रात की बात रात को होगी
जब पहाड़े सुनेगी माँ हमसे
सेंकती जाएगी संग-संग रोटी
माँ के हाथों से दाल की ख़ुश्बू
माँ को जादू ज़रूर आता है…


और इक रोज़ बड़े होके सभी
माँ को समझाने लगें जाने क्या
माँ तो सब कुछ समझती है लेकिन
उनके समझाने की नासमझी पे
माँ को आता है तरस बच्चों पे
उनकी मजबूरी - दुनियादारी पे
माँ कहे या न कहे बात कोई-
माँ को जादू ज़रूर आता है.…


फिर भी माँ है के समझ जाती है
कोई हुज्जत नहीं, सवाल नहीं
किसी भी बात पर बवाल नहीं
और इक रोज़ वो भी आता है-
जब कोई दर्द बाँटने के लिए
सदा की तरह माँ नहीं रोती
क्योंकि उस रोज़ माँ नहीं होती
माँ को जादू ज़रूर आता है, माँ को जादू ज़रूर आता है……

Sunday, May 9, 2010

अभिव्यक्ति-1

अंग्रेज़ी का एक्सप्रेशन  हिन्दी के अभिव्यक्ति का केवल भावानुवाद है, पूर्ण अनुवाद नहीं। अभिव्यक्ति में वह भी आ जाता है जो अंग्रेज़ी के इम्प्रेशन का अभिप्राय है।
यह प्रचलन के अनुसार आरोपित अर्थ है अभिव्यक्ति का।
अभिव्यक्ति का सीधा ताल्लुक सीधी बात से है। अभि से 'अभिधा' शब्दशक्ति और व्यक्ति से 'व्यक्त' की भाववाचक संज्ञा से तात्पर्य है। मज़े की बात यह है कि हम आराम से सभी प्रकार के एक्सप्रेशन को अभिव्यक्ति मानकर काम चला लेते हैं, भले ही वहाँ कोई बात कही जा रही हो या नहीं। जैसे हँसना, रोना, शब्दहीन गायन या वादन, चित्रकला इत्यादि। इससे यह भी पता चलता है कि हम कितने भावप्रवण और समझदार हैं जो अबोले को भी बूझते रहते हैं भाषाई खेल में।
भाषाओं को सीखने में यह भी एक मज़ेदार अनुभव होता है कि बहुधा जो शब्द प्रचलित अनुवाद में, यहाँ तक कि कोष में भी दिए होते हैं वे भी सम्यक् रूप से उस शब्द का पूरा और अविचल अनुवाद नहीं कर पा रहे होते। एक उदाहरण तो अभिव्यक्ति ही हो गया। अन्य भी कई शब्द हैं, जिनका सूक्ष्म भेद भाषाओं को समान अधिकार से जानने वाले ही समझ पाते हैं।
जैसे स्लैण्डर, ऐस्पर्शन, बैक-बाइटिंग, बिकरिंग आदि सब थोड़े-थोड़े अन्तर से निन्दात्मक अर्थ में प्रयुक्त होते हैं अंग्रेज़ी में। हिन्दी में कहें तो नमस्ते, नमस्कार, प्रणाम आदि सभी अभिवादन में प्रयुक्त होते हैं - मगर कभी सोचा है कि अभिवादन क्या है?
जो सामर्थ्य एक भाषा में है, वह ज़रूरी नहीं कि दूसरी में भी उस शब्द के अनुवाद में हो या अनुवाद हो ही। जैसे हिन्दी में पत्र लिखते समय, शिष्टाचारवश सभी संबन्धियों को उनकी पात्रता के अनुरूप प्रणाम, आशीष, स्नेह, प्यार आदि लिख भेजने का चलन था। 'था' इसलिए कि अब तो ख़ैर, पत्र लिखना ही 'था' हो चुका है। मगर एक वाक्यांश होता था- "घर में सबको यथायोग्य"। तो ये जो यथायोग्य था - ये था अभिवादन - सबको एक बार में, जिस की जैसी(यथा) पात्रता(योग्य), वैसा अभिवादन!
दूसरी भाषा में नहीं मिलता यह प्रयोग।