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Saturday, April 3, 2010

………और कल (आधुनिक कविता में एक शब्द-चित्र)

कल:
धरती: शस्य-श्यामला
वन में उपवन से -
धरती के सीने पर यत्र-तत्र बिखरे गाँव;
जहाँ माटी के पुजारी - माटी के पुतले, माटी के मंदिर में-
मूरत से नहीं, पुजारी से रहते हुए;
जिनके ख़्वाब मटियाली धरती से ऊँचे - बहुत ऊँचे,
सुनहली धूप से खिले और नीले आसमान से बहते हुए…


माटी का ही चूल्हा - बना हुआ घर में
उसके क़रीब गृहणी,
फूलों पर इठलाती तितलियों के पीछे भागते नौनिहाल,
खेतों में पसीना बो-कर मोती उगाता हलवाहा,
आते-जाते पगडण्डियाँ और गलियारे, बैल और बैलगाड़ी…
* * * * * * * * *


आज
धरती: उर्वरा
विस्तृत नगर, गगन-चुम्बी अट्टालिकाएँ
मकानों में रहते हम।
फ़ुटपाथ पर कटोरे और कंकाल - कितने सुखी हम!
किसी फ़्लैट में ब्रेड-एन-बटर से क्षुधा की शान्ति;
वीडियो गेम्स खेलते बच्चे : माँ और जननी की समानता को नकारते बच्चे;
सड़कों का जाल-
नभ - जल - थल में दौड़ती मशीनें;
मशीनों पर सवार,
अपने को मालिक बताता मनु का लाडला-
जिसके ख़्वाब -
आसमानों के नीले और धूप के सुनहले रंगों से आगे - बहुत आगे…
अन्तरिक्ष में
किसी अँधियारे कोने की कालिमा सहते हुए।
* * * * * *


…और कल:
धरती: कहाँ है?
इमारतें और सिर्फ़ इमारतें,
ताकि किसी हम जैसे पिछ्ड़े ग्रह के,
तथाकथित सभ्यता और विकास की ओर उन्मुख वासी-
प्रगति-गति को जान लें,
यह प्रयोग किए बिना ही परिणाम को पहचान लें;
कि प्रगति की अति
की क्या है नियति;
फिर भी काश-
काश हम थम सकते!
पल भर को सहम सकते!
क्योंकि सभ्यताओं में-
हम हो सकता है प्रथम हों-
संभवत: अंतिम भी हम हों!
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यह रचना 1979 सितम्बर की, बचपने की है, जब मैं कविता से ज़ोर आजमाइश किया करता था । इस तरह की कविता का साथ छूटे ज़माना गुज़र गया। बचकानी चीज़ें भी ख़ुद को अच्छी लगती हैं, सो आज पुरानी डायरी मिलने पर इसे ले आया…

बौराने का परिणाम


जो बौराते उनको अक्सर फलना पड़ता है
मीठी अमिया भी पहले खट्टी ही फलती है
* * * * * * * * *
ग़ज़ल की शक्ल पाकर ये शेर जल्दी ही हाज़िर होगा, संगम-तीरे पर
ग़ज़ल, वादे के मुताबिक हाज़िर हुई - अप्रैल 4, 2010 को।

Friday, April 2, 2010

मोरःप्राकृतिक जीवन

आँखेँ जुड़ा गईँ और गरम दुपहरी भी खली नहीँ, मोर परिवार से मिल कर।

कोंहड़े आगे हाय टमाटर यही कहानी

ज्ञानदत्त जी के कोंहड़े की जवानी को देखकर हमारे टमाटर को उसकी जवानी असमय ही छोड़ गई। देखिए तो ज़रा कैसा मुँह निकल आया बेचारे का…
ज़माना ही ऐसा है कि कोंहड़ों के आगे टमाटरों की यही नियति हो गई है…
मीर तक़ी 'मीर' ने ये शेर लगता है ऐसे ही किसी टमाटर की सोहबत में कहा होगा -
"यूँही शेवा नहीं कज़ी अपना
यार जी टेढ़े-बाँके हम भी हैं"
शेवा=शारीरिक गठन, ढाँचा…बोले तो चेसिस (शैसी…शुद्धता से)


Wednesday, March 31, 2010

मेरी ख़ुश्बू

ज़र्रा-ज़र्रा मेरी ख़ुश्बू से रहेगा आबाद
मैं लख़्त-लख़्त हवाओं में बिखर जाऊँगा

ज़र्रा-ज़र्रा   मेरी   ख़ुश्बू   से    रहेगा   आबाद

मैं लख़्त-लख़्त हवाओं में बिखर जाऊँगा

अपठनीयता और हम


डॉ0 जगदीश गुप्त कहा करते थे - "कवि वही जो अकथनीय कहे"
हमें कुछ गड़बड़ प्रेरणा मिल गई लगता है, सो हम समझे बिलागर वही जो अपठनीय लिखे।
बस इसीलिए गड़बड़ा रहे हैं, बड़बड़ा रहे हैं…
* * * * * * * * *
"यक्षत्व" लगता है "बुद्धत्व" की ओर पहला कदम है।
लगता है कि "यक्षत्व" में बड़ा तत्व है,
अधिक यक्षत्व प्राप्त ही "बोधिसत्व" है…
नहीं, ऐसा है कि जिसे प्रश्न मिले, उत्तर नहीं - उसमें तो "यक्षत्व"
जिसे उत्तर भी मिल गए - वही बना "बोधिसत्व"
* * * * * *
बात में है थोड़ा "गूढ़त्व"
बढ़ाता है "मूढ़त्व"
* * *
पहले जब "छाया" प्रति नहीं होती थी
(तब "छाया" मन को छूती थी, गिरजाकुमार माथुर परेशान थे बिचारे, मना करते रहते थे कि छूना नहीं - छूना नहीं - मन को। ये बात सोचने की है कि आज क्या वो अस्पृश्यता के अपराध में धरे जाते या नहीं? वैसे भी "छाया" तो फ़ीमेल हुई, सो दो-दो एक्ट लगते उनके खिलाफ़। अरे हम कहाँ बहक गए? वापस पोस्ट पर चलें)
हाँ तो जब छायाप्रति नहीं होती थी, तब भी प्रमाणित प्रतिलिपि होती थी महत्वपूर्ण दस्तावेजों की। उसे राजपत्रित अधिकारी के हस्ताक्षर और मुहर के तले प्रमाणित किया जाता था, ताकि मूल दस्तावेजों की प्रामाणिकता जाँचने तक इन्हें आधिकारिक माना जाए।
(अब आजकल जो सुविधा और संभावना का युग है उसमें आप मूल प्रमाणपत्र भी तीन-चार बनवा लें तो हम क्या करें? मगर तब ऐसा ही था।)
तो उसमें प्रमाणपत्र की जो हस्तलिखित या टंकित प्रति तैयार की जाती थी उसमें मूल हस्ताक्षर की नकल तो उतार नहीं सकते थे, (कहा न, ये तब की बात है, आजकल की नहीं! समझा करो यार) तो उसकी जगह लिखा जाता था "अपठनीय" या "अपठित"।
बोले तो "इल्लेजिबुल" अंगरेज़ी में। (इल्लेजिटिमेट नहीं, कहा न ये तब की बात है,…फिर वही…)
तो मतलब समझे आप?
यानी कि जो सबसे महत्वपूर्ण चीज़ थी उस दस्तावेज में, वही अपठनीय।
इस से यह भी आसानी से समझा जा सकता है कि जो जितना अपठनीय, उतना महत्वपूर्ण।
* * *
हो सकता है गुप्त जी ने "अकथनीयता" वाली बात की इंस्पिरेशन (अब बड़े लोग ये सटही प्रेरणा आदि थोड़े ही लेते होंगे) भी ऐसी ही अपठनीयता से ली हो!
सो हम भी कभी-कभार अपठनीय होते रहेंगे, ऐसा सोचा है।
फ़ुटनोट- सबसे ज़रूरी, सबसे काम की बात फ़ुटनोट में या हाशिए पर ही लिखी जाती है। काम ज़्यादा करने वाले आदमी भी हाशिए…छोड़िए, हम कह ये रहे थे कि छायाप्रति न हो पाने के दौर में काग़ज़ की बर्बादी कम होती थी और काग़ज़ खर्च भी कम जीएसएम का होता था, कई-कई प्रतियाँ जो टाइप करनी पड़ती थीं, कार्बनपेपर लगाकर।
तब प्रवीण पाण्डेय के 37 पेड़ बचे रहते थे और होली में पेड़ ज़्यादा जलाए जाते थे बनिस्बत टायरों के या काग़ज़ बनाने पर पेड़ों के खर्च से। यानी काग़ज़ की क़श्ती, काग़ज़ के फूल, काग़ज़ के शेरों के बदले केवट की क़श्ती, टेसू-गुलाब और शायरी के ही नहीं असली शेरों का ज़माना था।
फ़ुटनोट का फ़ुटनोट - पिछ्ले नवरात्रि के दौरान अधिकांश चित्र माता दुर्गा जी के जो दिखे, उनमें उनका वाहन बाघ चित्रित था, शेर नहीं। कल को 1411 बचे बाघ…माता वाहन न बदल लें कहीं।

प्रश्न : एक अपठनीय कविता


प्रश्न कितने हैं न जाने, एक भी उत्तर नहीं
यक्ष आतुर प्रतीक्षारत, वह स्वयम् प्रस्तर नहीं 
प्रश्न करने या न करने से भला क्या प्रयोजन
परस्पर भाषा-कलह में एक भी अ-“क्षर” नहीं

जूझती बैसाखियों पर मौत लादे प्रश्नहीन
मूर्त्त जीवट स्वयं, निस्पृह लोग ये कायर नहीं

प्रश्न-उत्तर, लाभ की संभावनाओं से परे
अर्थवेत्ता-प्रबन्धक कोई अत: तत्पर नहीं

सब सहज स्वीकारने का मार्ग सर्वोत्तम सही
साधना-पथ पर “सहज” से अधिक कुछ दुष्कर नहीं
अन्यत्र "यक्ष-प्रश्न" पर यह कविता फ़ॉर्मैट कर के छापी, यहाँ ऐसे ही। प्रयोग जारी है।

प्रश्न-जिज्ञासा और यक्षत्व


प्रश्न इकट्ठे होते जाएँ और समाधान न हो पाए तो अपनी बौद्धिक क्षमता की सीमाओं का एहसास और शिद्दत से होता है।
जब दूसरों से भी उत्तर न मिले तो असहायता का।
क्या होता है जब प्रश्न-ही-प्रश्न हों चहुँ-ओर? अस्तित्व ही प्रश्न लगे?
प्रश्नों से घिरे रहकर मनुष्य यक्षत्व को प्राप्त हो जाता है।
दूसरों को धमकाता है प्यासे रहो!
यदि मेरी जिज्ञासा की प्यास बुझाए बिना जल पिया तो पत्थर के हो जाओगे।
वास्तव में धमकाता नहीं, यक्ष सचेत करता है कि यदि प्रश्नों के उत्तर न खोजे तुमने, तो आज नहीं तो कल, पत्थर का तो तुम्हें होना ही है।
मगर उनका क्या जो प्रश्न ही नहीं पूछते?
जिन्हें सब-कुछ सहज स्वीकार्य है?
चैन नहीं खोना है तो प्रश्न मत पूछो। स्वीकार में शान्ति है और जिज्ञासा में बेचैनी। मुमुक्षु को या तो अपनी सब जिज्ञासाएँ शान्त करनी होंगी, या फिर प्रश्न न पूछ कर, सब कुछ सहज स्वीकारना होगा।
और हम यहाँ सदियों से पड़े प्रश्नों के तर जाने की आस में उत्तरों की भागीरथी के अवतरण हेतु किसी शिव की जटाओं की तलाश में, निरन्तर…

Monday, March 29, 2010

आपबीती : ब्लॉगरी

जो आपको बताने का वादा किया था कि गड़बड़ क्या हुई, क्या बीती हम पे ब्लॉगियाने के चक्कर में, वही किस्तों में बयान कर रहा हूँ। भई बीती भी तो किस्तों में ही है -
स्वर में गंभीरता उड़ेलते हुए देवी जी ने पूछा - "घर में कम्प्यूटर पर ये क्या करते रहते हो आजकल?"
उत्तर में मैंने क़बूला - "ब्लॉगरी सीख रहा हूँ।"
"तो ऑफ़िस में दिन भर क्या करते रहते हो?"
"जल्दी ही सीख जाऊँगा तो फिर इतना वक़्त नहीं लगाया करूँगा"
"ठीक है"
* * * * * * * * *
इस सम्वाद को भी एक महीना होने को आया। हालात सुधरने के बदले बिगड़ ही रहे हैं। देवी एक तो पहले ही रुष्ट, उनके हिस्से का समय अब कम्प्यूटर पर जो जाने लगा। निगहबानी शुरू हो गई कि आख़िर ऐसा क्या चक्कर है? क्या है जो लत जैसा पकड़ रहा है? एकाएक आ-आकर पीछे से देखा जाता था कि स्क्रीन से ही कोई क्लू मिले। दूसरे किस्मत से उन्होंने जब देखना चाहा, कुछ न कुछ गड़बड़ मिला। अगर सुरागरसी के लिए बच्चों की मदद ली होती, तो शायद बात कुछ सँभल भी जाती, मगर यहाँ तो सारी करमचन्दई भी मैडम ख़ुद कर रही थीं।

परसों से मामला और बिगड़ा।
इधर मैंने एक बढ़िया ब्लॉग फ़ॉलो करने की कार्यवाही पूरी की, चटका लगाया और मैडम तब तक पीछे आकर खड़ी हो गईं - "आजकल बड़ी मेहनत पड़ रही है - ऑफ़िस से आते ही फिर जुट जाते हो"
इससे पहले कि मैं उनकी अनपेक्षित सदाशयता का आभार प्रकट करता, स्क्रीन पर ब्लॉगर बाबा उवाच - "अब आप सफलतापूर्वक कुमारी …देवी का अनुसरण कर रहे हैं" उन्होंने पढ़ना शुरू कर दिया था। क्या करें अब?
ब्लॉग का शीर्षक कुछ और है, मगर ब्लॉगर पर लोगों ने दर्ज अपने नाम से कर रखा है, सो हमने ये तो सोचा ही नहीं था कि ब्लॉग के बदले ब्लॉगर का नाम ही आ जाएगा। हिन्दी में अनुसरण करने का अर्थ तो वही है जो अंग्रेज़ी में फ़ॉलो करने का, पर संस्कृति के फ़र्क से अनर्थ क्या-क्या हो सकते हैं! तो इस हिसाब से तो हम कई कुमारी और कई श्रीमती का अनुसरण करते पाए जा सकते हैं।
पूछा गया कि ये सब किस के चक्कर में पड़ कर सीखा है? तो गुरू ज्ञानदत्त पाण्डेय जी का नाम लेना ही पड़ा हमको। उन्होंने थोड़ा धीरज रखा और हमसे कहा कि ज़रा उनकी भी "हलचल" दिखाओ। बस फिर क्या था, साँस में साँस आई और हमारी उँगलियों ने तुरन्त हलचल दिखाई।
मगर गुरूजी को भी आज ही त्रासदी का फ़लसफ़ा छापना था -
"मेरे जीवन की त्रासदी यह नहीं है कि मैं बेइमान या कुटिल हूं। मेरी त्रासदी यह भी नहीं है कि मैं जानबूझ कर आसुरी सम्पद अपने में विकसित करना चाहता हूं। मेरी त्रासदी यह है कि मैं सही आचार-विचार-व्यवहार जानता हूं, पर फिर भी वह सब नहीं करता जो करना चाहिये।"
और हमारी त्रासदी? भवानी उवाच - "तो ये ही गुरू हैं? चलो ये कम से कम मान तो रहे हैं साफ़-साफ़। तुम तो मानोगे भी नहीं।"
Wife1 भृकुटि तन चुकी थी, आवाज़ में तीखापन और रूप में रौद्र-भाव, भवानी वीर-रस के स्थायी भाव का अवलम्बन लेकर अब कहीं हमारे कम्प्यूटर को वीर-गति न दे दें!
हड़बड़ी में हम भूल गए कि क्या करने जा रहे हैं - सो नाम ले बैठे उड़न तश्तरी का।
मैडम बोलीं "तो तुमको क्या बिलागिया के अब दूसरे ग्रह से संपर्क करना है?"
हम उन्हें यह बताने लगे कि नहीं-नहीं, समीर लाल जी एक बड़े प्रतिष्ठित ब्लॉगर हैं, बड़ी पूछ है उनकी, बड़े पहुँचे हुए हैं, लो ये उनका पेज देखो…और पेज खुला समीर लाल जी का…
सत्यानाश! हमें पहले ही समझना चाहिए था कि आज कनाडा में ही सही, है तो आदमी जबलपुरिया ही; कहाँ लाके मरवाया है बन्दे ने…! आज ही इन्हें ये वैराग्य व्यापना था…!
जो लिखा दिखा, उसमें से भी जो-जो बोल्ड में था - वही पढ़ लिया गृहलक्ष्मी जी ने। सो आप भी देखें कि क्या लिखा था -
"…निंदिया न आये-जिया घबराए……
…इंसान अध्यात्म की तरफ भागता है भयवश…
…आज मजबूरी है, पाप कर्मों के बोझ से खुद को अकेले में उबारना…
…अब तो एक चाहत और जुड़ गई कि किसी तरह नैय्या डूबने से बची रहे…
…खुद को कब नीचा दिखा सकते हैं खुद की नजरों में?…
…क्या पाप, क्या पुण्य, कैसा मुक्ति मार्ग?…"
मैडम बोलीं - "ये पहुँचे हुए तो लग ही रहे हैं। संगत ये कर रखी है, लड़के को क्या सिखाओगे? चलो और पेज खोलो"…
अविनाश वाचस्पति ने लिख रखा था "रम" के बारे में - कि "रम की मौजूदगी की बानगी देखिए- बेशरम में - धरम में - गरम में - मरम में - चलें पीनें!"
यानी…लगता है कि मुहूर्त ही खराब है आज…
अब कुछ बोलीं नहीं मैडम, घूरते हुए पैर पटक कर माता जी के कमरे में चली गईं।

हम समझ गए कि अब कुछ नहीं हो सकता। अब कोई ब्लॉग दिखाने या बज़-बज़ाने से फ़ायदा नहीं मगर फिर जब देखा कि मैडम संध्या-भ्रमणातुर हो रही हैं तो चुपचाप साथ निकल लिए। भ्रमणादि से निवृत्त हो आए, लौट कर वो किचेन में और हम चुपके से लैपटॉप पर फिर शुरू हुए।
फिर देखा बज़…तो अब तक ज्ञानदत्त पाण्डेय जी लिख चुके थे …लत के बारे में, और संदर्भ दे चुके थे समीर लाल जी का, पक्की कर चुके थे अविनाश वाचस्पति जी और ये सब देखते हुए हम अन्य बोलागीरों के बोल-वचन देखने निकल पड़े…
एक ब्लॉग पसन्द आया, फिर फ़ॉलो करने लगे कि मैडम चुपके से पीछे से कब देखने आ गयीं पता ही नहीं चला…
मामला इस बार और भी संगीन हो गया जब उन्होंने ये देखा कि अब हम पुरुषों का भी अनुसरण करने लगे हैं।
ज़्यादा कुछ नहीं कहा उन्होंने इस बार सिर्फ़ "थू-थू" करके चली गईं वहाँ से और बोलचाल बन्द कर दी। जाने क्या-क्या शिकायत तो माता जी से करेंगी…
मगर आज नाराज़ हैं सो माताजी के ही कमरे में सो रही हैं और हम मौक़ा पा कर फिर से जुटे हैं कि पूछ तो लें जनमत से और अपनी तकलीफ़ भी बता लें… अब क्या बताएँ - कैसा कैसा लगता है इस ब्लॉगियाने के चक्कर में पड़कर। आप ख़ुद समझदार हैं – बताएँ हम क्या करें, ब्लॉगरी छोड़ कर ख़ुद को "सुधार" लें, या फिर गुरू पाण्डेय जी के घर ले जा कर भाभी जी से समझवाएँ, या फिर…
अब हम कइसे - का करें? छुटती नहीं है काफ़िर ब्लागरी लगी हुई

Sunday, March 28, 2010

काव्यचित्रः अस्तंगत सूर्य और भाप का इंजन


कुछ चित्र ख़ुद कविता होते हैँ।

कल : एक ग़ज़ल

ज़िन्दगी  कल   रही, रही - न  रही !
बात का क्या कही, कही - न कही !

आँख में रोक मत ये दिल का ग़ुबार
कल ये गंगा  बही,  बही - न बही !

मैल दिल का हटा, उठा न दीवार
कल किसी से ढही, ढही - न ढही !

तेरी कुर्सी को सब हैं नतमस्तक
कल किसी ने सही, सही - न सही

अहम्  की  आज  फूँक  दे   लंका
कल ये तुझसे दही, दही - न दही !

हिमान्शु मोहन
इब्तिदा-आग़ाज़-शुरूआत-पहल