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Tuesday, June 8, 2010

पीपीपी : पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के नए अर्थ

हमारे एक सहकर्मी आईएसबी हैदराबाद में एक सरकारी प्रायोजित सेमिनार से हाल ही में लौटे। हमने अपनी आदत से मजबूर, छेड़ा - "ज़रा ये समझाइएगा भाई! ये पी-पी-पी क्या है? बहुत सुन रहे हैं आजकल कि कई सरकारी प्रोजेक्ट यथा संभव पी-पी-पी मॉडेल के तहत क्रियान्वित किए जाएँगे।"
मैनेजमेण्ट में एक्सपर्ट लोगों की समितियाँ रेलवे में भी गठित हुई हैं, एक ज़ोनल नोडल अधिकारी भी नामित हुए हैं जो सिंगल-विण्डो के रूप में रेलवे और प्राइवेट पक्षों के बीच समन्वय कर सकेंगे।
चर्चा एक अन्य वरिष्ठ सहकर्मी के कक्ष में हो रही थी, दोपहर बाद के चायपानावकशान्तर्गत। वहाँ एक अन्य ज्ञानी सहकर्मी भी उपस्थित थे, जो प्रबन्धन-पाठशालाओं के सेमिनार-प्रेज़ेण्टेशन-केस स्टडी द्वारा मानवीय मस्तिष्क में ठेले जा रहे ज्ञान के बदले अनुभव की पाठशाला से व्यावहारिक जगत में निष्णात होने पर अधिक आस्था रखते हैं।
भाई साहब ने आईएसबी-पलट ज्ञान धैर्यपूर्वक सुना, सरकारी सर्कुलर जनित ज्ञान उनके पास भी था और अन्य लोगों के पास भी - जो चर्चित हुआ। अब भैया उवाच -"देखो! आप लोग दो मिनट हमारी भी सुनो।"
हम लोग उस प्रकार उनकी ओर अपने मन-बुद्धि-विचार केंद्रित कर के बैठ गए जैसे एकदा नैमिषारण्ये…
भाई साहब उवाच -
"देखो मान लो कि हम पॉलिटीशियन हैं। हिमान्शु जी ऐसे पढ़े लिखे आदमी हैं जो हमारे चुनाव में और सत्तासीन होने में प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से सहायक हुए हैं, और अभी आगे भी सहायक या घातक सिद्ध हो सकते हैं, परिस्थिति-जनित हमारे प्रति मोह या मोह-भंग के अनुसार। एतना त समझ गए न?"
हम सबने समवेत हुँकारी भरी।
"तो फिर क्या है? आगे तो सब किलियरै है भाई! अब हम इनसे पार्टनरशिप कर लेंगे, कि कैसे सरकारी-पंचायती-सार्वजनिक या पब्लिक सेक्टर के अन्तर्गत आने वाली चीज़ों का साझा हम कानूनी तौर पर इनसे इस तरह करें कि ये भी लाभान्वित हों और हम भी, और देश-जनता यही समझती रहे कि नए मॉडेल का मैनेजमेण्ट हो रहा है, और फ़ायदा जनता का होगा। समझे?"
कुछ-कुछ तो समझे थे, परन्तु हमने और जानने की जिज्ञासा प्रकट की।
"अरे ई वही है - ढ़ेलिखे-पैसेवाले की पॉलिटीशियन से पार्टनरशिप"
अब हमने पूछा - "तब तो चार 'पी' होने चाहिए थे न इसमें? पैसेवाले का 'पी' कहाँ गया?"
उत्तर मिला - "इसमें, बल्कि ऐसे हर मामले में पैसे वाला 'पी' साइलेण्ट रहता है। काहे से कि पैसा के बिना तो कुच्छो नहीं हो सकता, ऊ तो सबमें हइयै है। अलग से लिखना जरूरी नहीं है - न बोलना।"
एक और प्रश्न उछ्ला - "लेकिन ये पी-पी-पी ही क्यों? कुछ और नाम क्यों नहीं?"
गुरू हँसे। रुके, फिर हँसे, और बोले -"अगर इतना ही समझते होते तो तुम ही लोग न लग जाते पी-पी-पी में?
अरे भाई, जब ये सब कुछ पैसा के ही बारे में है, तो क्या ये पैसा, पैसा और पैसा समझ रहे हो?"
हमने फिर सहमति में गरदन हिलाई।
उन्होंने स्पष्ट किया - " नहीं भाई! पैसा तो साइलेण्ट है, वो प्रकट न हो जाए, इसीलिए पीपीपी - यानी पब्लिक के पैसे को पी,  और पी के प्राइवेट बना, यहाँ तक कि पू्रा पैसा पी जा…"
"और हाँ, ऐसी कोई मीटिंग भी पिए बिना नहीं होती, सो पी, पी, और पी…"
अब तक कई अर्थ और उद्भासित होने लगे थे, सो हम धन्यवाद करते हुए निकल लिए उस बैठक से।
हम तो यही सोच रहे हैं कि पब्लिक का माल प्राइवेट बनाने के लिए पैसा चाहिए, सो है नहीं हमारे पास, इसलिए "पानी पी और पिला।"
आप इस "पी-पी-पी कोष" को और समृद्ध कर सकें तो आपका आभार…