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Monday, August 9, 2010

हिन्दी फ़िल्मों और समाज का साथ-3 (राज कपूर और चार्ली चैप्लिन से आगे)

हिन्दी फ़िल्मों और समाज का साथ-2 से आगे...

देश की विस्फोटक स्थिति तो आपात्काल से नियन्त्रित की जा सकी पर फ़िल्मों में आपात्काल के हटने के बाद यह स्थिति और भी अनियन्त्रित हो चली। जनता भी अपने चुने हुए विकल्प "जनता" की सरकार की गति देख चुकी थी और वैकल्पिक सरकार के अवयवों से मोहभंग की मनोदशा में आ चुकी थी। {यहाँ मैं अमृतलाल नाहटा की फ़िल्म "किस्सा कुर्सी का कोई चित्र देना चाहता था - जो दुर्भाग्य से मैं ढूँढ नहीं पाया।}

फ़िल्मों के प्रिय विषय राजनेता, राजनीति और माफ़िया का गठबन्धन के इर्द-गिर्द घूमने लगे। आने वाले समय में श्रीमती गान्धी की हत्या के बाद विदेशी जासूसी संस्थाओं, आतंकवादियों के मसाले फ़िल्मों में ख़ूब इस्तेमाल हुए। इसी संदर्भ में आगे चलकर बोफ़ोर्स और विश्वनाथ-प्रताप सिंह के घटनाक्रम से मिलने वाले मुद्दे भुनाने योग्य भी थे और जनता की जिज्ञासा के केन्द्र भी। कथानक में अब ये उसी तरह उलझाए जाने लगे जैसे पिछले दौर में कैबरे, डिस्को और बलात्कार। मानव बमों के संदर्भ भी 1991 की दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद कई फ़िल्मों में दिखाए गए।

"कर्मा" और "तहलका" इनमें से प्रमुख हिट फ़िल्में रहीं।
"कर्मा" में "डॉक्टर डैंग" तो तहलका में "डौंग";
"कर्मा" में विश्वप्रताप के साथ "क़ैदी" (शोले) तो
"तहलका" में कोर्ट्मार्शल्ड फ़ौजी "धरम सिंह" - यानी
बारह मसाले के एक सौ आठ स्वाद…
तहलका में नसीर, जावेद भी बिकिनी में आ गए

यह हिंसा आधारित दौर थोड़ा लम्बा चला क्योंकि पाश्चात्य प्रभाव और नई मौलिक सोच का अभाव जहाँ एक ओर था, वहीं दूसरी ओर हिंसा के इस दौर में अपनी जेनुइन और नैसर्गिक भागीदारी का हक़ माँगते हुए वह हाजी-मस्तान, वरदाराजन, दाऊद-नुमा माफ़िया अपने पर फ़िल्में बनाने और स्वयं को महिमामण्डित करने का आकांक्षी हो चला जो अभी तक काला-बाज़ार और काला-धन के रास्ते से हिन्दी सिनेमा पर परोक्ष नियन्त्रण रखता था। नायक स्वयं अब प्रतिनायक से आगे जाकर खलनायक ही हो गया, परन्तु महिमामण्डन की बदौलत केन्द्रीय चरित्र बना रहा।

जैसे मुग़ल साम्राज्य के पतन के कारणों में से एक प्रमुख कारण था "अयोग्य उत्तराधिकारियों का होना" या "योग्य उत्तराधिकारियों का न होना" वैसे ही हिन्दी सिनेमा में भी स्टार-पुत्रों का चलन धीरे-धीरे वीभत्स रूप पा चला था। राज कपूर स्वयं भी स्टार-पुत्र कहे जा सकते थे, परन्तु उन्हें स्वयं के श्रम और प्रतिभा के बलबूते अपनी पायदान हासिल हुई थी।

रणधीर और ॠषि को भी लॉञ्च ज़रूर किया गया, मगर उनकी सफलता उनकी अपनी कमाई हुई और छवि स्वयं की गढ़ी हुई थी - सश्रम। अब के दौर में जो लाए जा रहे थे, और जो ला रहे थे - वे दोनों ही प्रोफ़ेशनल वैल्यूज़ के मामले में कहीं नहीं ठहरते थे।
इस भेड़चाल में सनीदेओल और संजय दत्त के अलावा किसी की गाड़ी न दूर तक चली, न देर तक - बावजूद कुछ हिट फ़िल्मों के।

इसी पतनोन्मुख दौर में हताशा से ग्रस्त सिनेमा को तकनालॉजी की उन्नति (जो जनता के लिए वरदान थी) के अभिशाप भी झेलने पड़े - पहले वीसीआर और फिर सीडी/डीवीडी जनित पायरेसी। ऑडियो उद्योग को तो यह पायरेसी लील ही गयी।

हिंसा के रथ पर सवार महानायक भी इस बीच प्रायोजित सफलता प्रचारों के बीच व्यावसायिक असफलता चख चुके थे। अपनी प्रतिभा और चातुर्य से उन्होंने भी कॉमेडी का च्यवनप्राश लेना प्रारम्भ कर दिया और रोल भी थोड़ा बड़ी उम्र के करने लगे - सो उनकी जीवन-अवधि और बढ़ी।

चेहरे और चरित्र : महानायक
समय रहते ही उन्होंने बड़े भाई और पिता के रोल के रूप में केसरी-जीवन लेकर "साठ साल के बूढ़े या साठ साल के जवान?" के प्रश्न को आधार प्रदान किया और बहुतों को आयुर्वेद में आस्था रखने और "बनफूल" के प्रयोग के लिए प्रोत्साहित किया। इस घटनाक्रम की अवश्यम्भावी परिणति थी एक योग्य कलाकार के लिए रिक्त हिन्दी सिने-उद्योग में स्टारडम की गद्दी जो समय रहते शाहरुख़ ख़ान ने लपक ली।
बाज़ीगर "किंग" ख़ान