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Tuesday, April 20, 2010

ज़िन्दा रहना एक विसंगति

ज़िन्दा रहना मौत का इन्तज़ार भी हो सकता है।
मौत को भी जिया जा सकता है।
सन्नाटे को सुनने वाले ख़ामोशी की आवाज़ पहचानते हैं। भीड़ में तन्हा हो जाने वाले अक्सर गुम हो जाते हैं। जो अकेले होते हैं, वो अक्सर मेले में पाते हैं ख़ुद को-यादों के।
सूखे की पीड़ा में अक्सर आँखें गीली हो जाती हैं और बाढ़ में फँसने पर हलक सूख जाना आम बात है।
शब्दों से खेलने वाले अर्थ (धन के अर्थ में भी) के लिए अक्सर तरसते पाए जाते हैं और जहाँ अर्थ भावों की गूढ़-गंभीरता पहले से लिए हों, वहाँ शब्द अक्सर ढूँढे नहीं मिलते।
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रोना अच्छी बात है। न रोना ख़राब। न रो पाना और भी ख़राब, बल्कि असह्य। न रो पाने वाला दया का पात्र होता है।
हँसना अच्छी बात है।
ख़ुद पर हँसना-सबके बूते का नहीं।
दूसरों पर हँसना-मानवीय कमज़ोरी है।
दूसरों पर हँसना मगर दूसरों के हँसने पर परेशान होना-कि कहीं ये मुझ पर तो नहीं हँस रहे-ख़राब बात है्।
दूसरों पर हँसना, ख़ुद पर भी हँसना, ख़ुद पर न रोना, दूसरों के हँसने पर साथ देना चाहे वो लोग ख़ुद आप पर ही हँस रहे हों और उन्हीं लोगों के रोने पर सहानुभूति बनाए रखना ये दूसरों को परेशान किए रखने की आसान तरक़ीब है।
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जो समझ गया, वही पागल है। जिसे लगता है कि वह सब समझ रहा है - वो नासमझ। कबीर के हिसाब से तो जितने जी रहे थे वो पहले ही मर चुके थे और जो निश्चिन्त मरे - वही जी पाए।
विसंगति में ही विशिष्ट और सम्यक् गति है। यानी जब 'विशिष्ट' और 'सम्यक्' दोनों एक साथ हों - तो विसंगति।
क्या जो विशिष्ट हो उसे सम्यक् न होने दें और सम्यक् को विशिष्ट?
समाज के नैसर्गिक नियम तो ऐसे ही हैं - सम्यक् को विशिष्ट न बनने देने के।
इसी हिसाब से विसंगति को विचारकों की विशिष्ट पहचान भी समझा जा सकता है।
जब संगति ही विसंगति से हो जाए तो फिर?
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आराधना की परछाइयों वाली पोस्ट तो पढ़ी ही होगी आपने। आज टिप्पणी करने गया तो वहाँ से लिंक लेकर अनूप शुक्ल 'फ़ुरसतिया' जी  की तरफ़ चला गया।
उनकी पुरानी जनवरी 13, 2008 की पोस्ट पढ़ी जिसमें 9 जनवरी की घटना का ज़िक्र करते हुए उन्होंने एक जीवनगाथा फ़्लैश-बैक में समेट दी है। जिन हालात में उन्होंने लिखी होगी ये पोस्ट, उस समय इतना और ऐसा लिख पाना, धन्य हैं प्रभु!
प्रभु दर्द भी सोच-समझ कर देते हैं - उसी को, और उतना ही - जितना सह पाए।
पूरा संदर्भ तो उनकी पोस्ट से नहीं मिलता, मगर पता नहीं क्यों ऐसा लगा - "रो पाने" पर अपने ख़्यालात की वजह से (शायद) ऐसा लगा कि समय आ गया है मेरी इस पोस्ट के छपने का, अब जैसी भी है - आज ही, अभी ही भेज रहा हूँ ब्लॉग पर। …
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5 comments:

Rajeysha said...

''केवल कुछ कहना'' और ''केवल हो रहना'' इन दोनों में बड़ा फर्क है।

Amitraghat said...

"अद्भुत लिखा है हर पैरा अपने में विलक्षण है पर हँसने के ऊपर क्या खूब लिखा है वैसे आजकल के ज़माने में सावधानी से हँसने वाले भी लोग मिल जाया करते हैं...."

Udan Tashtari said...

मनन करने योग्य!

रोना अच्छी बात है। न रोना ख़राब। न रो पाना और भी ख़राब, बल्कि असह्य। न रो पाने वाला दया का पात्र होता है।

-सत्य वचन!

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

बहुत सही कहा आपने......

प्रवीण पाण्डेय said...

पते की बात । रो लेना चाहिये और रो लेने देना चाहिये ।