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Sunday, March 28, 2010

कल : एक ग़ज़ल

ज़िन्दगी  कल   रही, रही - न  रही !
बात का क्या कही, कही - न कही !

आँख में रोक मत ये दिल का ग़ुबार
कल ये गंगा  बही,  बही - न बही !

मैल दिल का हटा, उठा न दीवार
कल किसी से ढही, ढही - न ढही !

तेरी कुर्सी को सब हैं नतमस्तक
कल किसी ने सही, सही - न सही

अहम्  की  आज  फूँक  दे   लंका
कल ये तुझसे दही, दही - न दही !

हिमान्शु मोहन
इब्तिदा-आग़ाज़-शुरूआत-पहल
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2 comments:

ज्ञानदत्त पाण्डेय Gyandutt Pandey said...

एकहार्ट टॉले की पुस्तक The Power of Now मानो कविता में साकार हो गयी हो!
बहुत सुन्दर। सोचने को बाध्य करती। !

शारदा अरोरा said...

बहुत अच्छे , बात कही ,कही न कही

सुखनवर , विचार कॉपी कर लेना ....ये भी खूब रही चोरी करेंगे पर कह कर |हमें भी पता है कि उधर एक कवि की यानि अपनी ही बिरादरी की रूह है |आपने बेबाक होकर अपने विचार रखे ,अच्छा लगा , अपना दिल भी तगड़ा हुआ , धन्यवाद |