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Wednesday, March 31, 2010

प्रश्न : एक अपठनीय कविता


प्रश्न कितने हैं न जाने, एक भी उत्तर नहीं
यक्ष आतुर प्रतीक्षारत, वह स्वयम् प्रस्तर नहीं 
प्रश्न करने या न करने से भला क्या प्रयोजन
परस्पर भाषा-कलह में एक भी अ-“क्षर” नहीं

जूझती बैसाखियों पर मौत लादे प्रश्नहीन
मूर्त्त जीवट स्वयं, निस्पृह लोग ये कायर नहीं

प्रश्न-उत्तर, लाभ की संभावनाओं से परे
अर्थवेत्ता-प्रबन्धक कोई अत: तत्पर नहीं

सब सहज स्वीकारने का मार्ग सर्वोत्तम सही
साधना-पथ पर “सहज” से अधिक कुछ दुष्कर नहीं
अन्यत्र "यक्ष-प्रश्न" पर यह कविता फ़ॉर्मैट कर के छापी, यहाँ ऐसे ही। प्रयोग जारी है।
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