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Wednesday, March 31, 2010

अपठनीयता और हम


डॉ0 जगदीश गुप्त कहा करते थे - "कवि वही जो अकथनीय कहे"
हमें कुछ गड़बड़ प्रेरणा मिल गई लगता है, सो हम समझे बिलागर वही जो अपठनीय लिखे।
बस इसीलिए गड़बड़ा रहे हैं, बड़बड़ा रहे हैं…
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"यक्षत्व" लगता है "बुद्धत्व" की ओर पहला कदम है।
लगता है कि "यक्षत्व" में बड़ा तत्व है,
अधिक यक्षत्व प्राप्त ही "बोधिसत्व" है…
नहीं, ऐसा है कि जिसे प्रश्न मिले, उत्तर नहीं - उसमें तो "यक्षत्व"
जिसे उत्तर भी मिल गए - वही बना "बोधिसत्व"
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बात में है थोड़ा "गूढ़त्व"
बढ़ाता है "मूढ़त्व"
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पहले जब "छाया" प्रति नहीं होती थी
(तब "छाया" मन को छूती थी, गिरजाकुमार माथुर परेशान थे बिचारे, मना करते रहते थे कि छूना नहीं - छूना नहीं - मन को। ये बात सोचने की है कि आज क्या वो अस्पृश्यता के अपराध में धरे जाते या नहीं? वैसे भी "छाया" तो फ़ीमेल हुई, सो दो-दो एक्ट लगते उनके खिलाफ़। अरे हम कहाँ बहक गए? वापस पोस्ट पर चलें)
हाँ तो जब छायाप्रति नहीं होती थी, तब भी प्रमाणित प्रतिलिपि होती थी महत्वपूर्ण दस्तावेजों की। उसे राजपत्रित अधिकारी के हस्ताक्षर और मुहर के तले प्रमाणित किया जाता था, ताकि मूल दस्तावेजों की प्रामाणिकता जाँचने तक इन्हें आधिकारिक माना जाए।
(अब आजकल जो सुविधा और संभावना का युग है उसमें आप मूल प्रमाणपत्र भी तीन-चार बनवा लें तो हम क्या करें? मगर तब ऐसा ही था।)
तो उसमें प्रमाणपत्र की जो हस्तलिखित या टंकित प्रति तैयार की जाती थी उसमें मूल हस्ताक्षर की नकल तो उतार नहीं सकते थे, (कहा न, ये तब की बात है, आजकल की नहीं! समझा करो यार) तो उसकी जगह लिखा जाता था "अपठनीय" या "अपठित"।
बोले तो "इल्लेजिबुल" अंगरेज़ी में। (इल्लेजिटिमेट नहीं, कहा न ये तब की बात है,…फिर वही…)
तो मतलब समझे आप?
यानी कि जो सबसे महत्वपूर्ण चीज़ थी उस दस्तावेज में, वही अपठनीय।
इस से यह भी आसानी से समझा जा सकता है कि जो जितना अपठनीय, उतना महत्वपूर्ण।
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हो सकता है गुप्त जी ने "अकथनीयता" वाली बात की इंस्पिरेशन (अब बड़े लोग ये सटही प्रेरणा आदि थोड़े ही लेते होंगे) भी ऐसी ही अपठनीयता से ली हो!
सो हम भी कभी-कभार अपठनीय होते रहेंगे, ऐसा सोचा है।
फ़ुटनोट- सबसे ज़रूरी, सबसे काम की बात फ़ुटनोट में या हाशिए पर ही लिखी जाती है। काम ज़्यादा करने वाले आदमी भी हाशिए…छोड़िए, हम कह ये रहे थे कि छायाप्रति न हो पाने के दौर में काग़ज़ की बर्बादी कम होती थी और काग़ज़ खर्च भी कम जीएसएम का होता था, कई-कई प्रतियाँ जो टाइप करनी पड़ती थीं, कार्बनपेपर लगाकर।
तब प्रवीण पाण्डेय के 37 पेड़ बचे रहते थे और होली में पेड़ ज़्यादा जलाए जाते थे बनिस्बत टायरों के या काग़ज़ बनाने पर पेड़ों के खर्च से। यानी काग़ज़ की क़श्ती, काग़ज़ के फूल, काग़ज़ के शेरों के बदले केवट की क़श्ती, टेसू-गुलाब और शायरी के ही नहीं असली शेरों का ज़माना था।
फ़ुटनोट का फ़ुटनोट - पिछ्ले नवरात्रि के दौरान अधिकांश चित्र माता दुर्गा जी के जो दिखे, उनमें उनका वाहन बाघ चित्रित था, शेर नहीं। कल को 1411 बचे बाघ…माता वाहन न बदल लें कहीं।
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1 comment:

महेन्द्र मिश्र said...

बढ़िया जानकारी पूर्ण आलेख ....