जब कोई ग़ज़ल अच्छी लगती है तो उसी बह्र में वहीं कुछ कहने की कोशिश करता हूँ के ये टिप्पणी भी हो जाए और तोहफ़ा भी नज़राने और शुकराने के तौर पर। कभी-कभी ग़ज़ल को ला के पोस्ट भी बना देता हूँ। कितनी पुर्जियाँ तो यूँ ही पा'माल हो गईं। आप सब का शुक्रिया कि आप की बदौलत कम्प्यूटर पर लिखने से बाद में अगर चाहूँ तो कुछ बचा खुचा मिल तो जाएगा। तो मुफ़्लिस साहब की ताज़ा ग़ज़ल पर टिप्पणी -
हमने आकर अब देखा है
बह्रो-वज़्न ग़ज़ब देखा है
ग़ज़ल कुआँरे हाथों मेंहदी
रचने सा करतब देखा है
ढाई आखर पढ़ते हमने
क़ैस* सर-ए-मकतब* देखा है
शौक़ बहुत लोगों के देखे
हुनर मगर ग़ायब देखा है
टूटी खाट, पुरानी चप्पल
शायर का मन्सब* देखा है
मुफ़्लिस के अंदाज़े बयाँ में
अपना वज्हे-तरब* देखा है
जब-तब हमने सब देखा है
मत पूछो क्या अब देखा है
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सर-ए-मकतब=पाठशाला में, क़ैस=मजनूँ;
वज्हे-तरब=प्रसन्नता/आनन्द का कारण, मन्सब=जागीर, एस्टेट
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मुफ़्लिस साहब की ग़ज़लगोई पसन्द आई, सो ये टिप्पणी दे रहा हूँ। इसे ले जाकर अपनी पोस्ट भी सोचता हूँ बना दूँ के लोग देख सकें…
बहुत अच्छे, जनाब मुफ़्लिस साहब! जारी रहिए…
5 comments:
ग़ज़ल कुआँरे हाथों मेंहदी
रचने सा करतब देखा है
-बेहतरीन कहा, जनाब!!
मुफलिस साहेब की गज़ल का लिंक तो दिजिये..
गजल पढने में मजा तो बहुत लेकिन उर्दू शब्दों को समझने में कठिनाई होती है,अपने हिसाब से कठिन शब्दों के हिन्दी मायने भी लिखेंगे तो सहूलियत होगी।
गजल पढने में मजा तो बहुत लेकिन उर्दू शब्दों को समझने में कठिनाई होती है,अपने हिसाब से कठिन शब्दों के हिन्दी मायने भी लिखेंगे तो सहूलियत होगी।
वाह ।
पहले सोचा कि काव्यात्मक टिप्पणी दें फिर लगा कि मखमल में टाट का पैबन्द हो जायेगा । वाह अपने टाट को नहीं, आपके मखमल को कहा ।
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