मैं 'तिपतिया' कहता हूँ, जिसे अंग्रेज़ी में 'क्लोवर' कहते हैं। बचपन में जंगली घास की तरह उगा हुआ पाते थे, पत्ती तोड़कर खा लेते थे - खट्टे से स्वाद का, अजब सी मिठास से जुड़ा, मगर आख़िरश ज़ुबाँ पे खट्टा स्वाद ही रह जाता था। तो मेरी कुछ तिपतियाँ पेश हैं आज…
* ब्लॉगरी
ब्लॉग दुनिया पुराना नीम का पेड़,
ब्लॉगिये पंछी सुबह निकले थे,
शाम को दिन गँवा के लौटे हैँ।
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सुबह पानी में जगमगा के उगा
तवील राहों पे बेवजह तपा
और फिर पानियों में कूद गया
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* पोशाक
रेशमी ख़ाब, हक़ीक़त सूती
पसीनोँ मेँ नहाई रहती है
और बस इसलिए नहीं जलती…
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* बड़े शहर की हसीनाएँ
जिस्म छूने से कुछ गुरेज़ नहीं
दिल नहीं छूतीं,चमकदार हैं सब-
ये हसीं पुतलियाँ क्या फ़ैक्ट्रियों में बनती हैं?
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* लोग
पत्थरों पे सागर की ओर पैर लटकाए-
सर झुकाए बैठे सब - साँझ ढले देर हुई
मेरे फ़्लैट जैसी क्या सब की गुम हुई चाभी?
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* बड़ा शहर
तेज़ रफ़्तारें, चमचमाती कारें, सब रौशन-
दाम कुछ चीज़ों पे, कुछ पे नहीं-बिकाऊ सभी,
ये बड़ा शहर बड़ी सी दुकान लगता है !
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10 comments:
बहुत अच्छा लगा आपके तिपतिया पढकर ...
जैसे गंगा, यमुना और सरस्वती का मिलन है ..
great sir
बहुत सुन्दर
वाह
pehli baar haiku padha ..bahut sundar likha...
@ दिलीप
नहीं दिलीप जी, ये हाइकु नहीं हैं। बस तीन पंक्तियों के मुक्तक हैं। हाइकु में प्रथम, द्वितीय और तृतीय पंक्ति का एक निश्चित अनुपात और वर्ण-संख्या(syllable count)होता है।
आपकी प्रशंसा का धन्यवाद।
"सभी बेहतरीन हैं पर "दिन" को क्या खूबी से समेटा है..."
अहा!! अति सुन्दर!
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