साथी

Wednesday, March 17, 2010

कोशिश

ये वो बकवास है जिसे पढ़कर आदरणीय ज्ञानदत्त पाण्डेय जी मुझे ब्लॉगरी में घसीट लाए। ये उसी भूमिका के साथ वैसे ही प्रस्तुत है-


ये मेरा हालिया दौर में ताज़ा-ताज़ा लेखन है जिससे अभी तक धुआँ उठ रहा है। अब आप इस फ़िक्र में मत पड़ जाइए कि-


देख तो दिल-कि-जाँ से उठता है
ये    धुआँ-सा    कहाँ    से    उठता   है


भाई ये मेरे इस ‘अंश’ को लिखने या लिख डालने के पीछे सारी तोहमत, ज़िम्मेदारी या प्रेरणा, जो कुछ है सब कपिल भाई की वजह से। इस जोश से और इतना ठीक-ठाक लिख रहे हैं कि साथ निभाने को दो कदम चलना ही पड़ा। काव्य में पुराना हूँ मगर गद्य कभी लिखा नहीं सिवाय फ़ाइलों पर नोटिंग या परीक्षा में उत्तर के अलावा सो वही लिखने की कोशिश की है। कोशिश के सहारे शायद आगे ठीक भी लिखने लगूँ, इसी उम्मीद से लिखा और अब आपको भेज रहा हूँ “ताकि सनद रहे और वक़्त-ए-ज़रूरत काम आए”।

*   *   *   *   *   *   *   *   *   *   *   *

आसान नहीं है लिखना, सोच-सोच कर। इसी से ब्लॉग लिखने की कोशिश नहीं कर रहा, कभी-कभी दिल में खयाल आने के बावज़ूद।


मगर जब से यह सोचना शुरू किया कि लिखना तो आसान ही है, मुश्किल तो सोचना है, तब से यह कठिनाई दूर हो गयी। अब सोचना तो मुझे पहले से ही आता है। यह खुशफ़हमी वैसे तो कई लोगों को होती है मगर मेरे बारे में मेरे अलावा और लोगों को भी है।


तो आसानी से यह माना जा सकता है कि मैं सोच तो पहले से ही लेता हूँ, अब समस्या सिर्फ़ लिखने की बची। जो सोचा उसके सही या गलत का विचार करना ज़रूरी नहीं क्योंकि सही और गलत की परिभाषा का खुद में सही या गलत होना ही तय नहीं है। तो सोच भी लिया और लिख भी लिया – यानी हो गये लिक्खाड़। यानी लिखाई न हुई, पहलवानी हो गयी!


मेरे एक परिचित हैं-बड़े विश्वास और आस्था से कहते हैं-“भई लिखते रहिए। रोज़ कुछ-न-कुछ लिखिए ज़रूर। मैं तो जिस दिन कम से कम चार-छ्ह पेज न लिख लूँ। मुझे नींद ही नहीं आती। लगता है कुछ खाली-खाली सा है। कुछ ‘मिस’ करने जैसा लगता है”।


गोया लिखना न हुआ – सुबह-शाम टहलना या बाबा रामदेव के तरह-तरह के प्राणायाम जैसा कुछ हो गया।
यानी मानसिक व्यायाम! वैसे मुझे भी इसमें कुछ-कुछ ‘मान’ और कुछ-कुछ ‘सिक’ जैसा लगता तो है।


अब मेरा खयाल ये है कि इनके लिए लिखना ‘क्रिएटिव’ कैसे हो सकता है? रचनात्मकता है तो इस लिखाई में, मगर 19वीं सदी की किसानी जैसी लगती है। अपना काम खेत तैयार करने, बीज बोने, खाद लगाने, निराई करने का। पानी बरसाना ऊपर वाले का-अल्ला मेघ दे! फिर लगान लेना ज़मींदार का, फसल कटवा लेना ज़मींदार का और कभी-कभी जलवा देना भी, नाराज़ होने पर। भूखे रह कर तरसना-तड़पना परिवार का, सूद पर पैसा देना साहूकार का और अगली फसल तक ज़िन्दा रह जाने पर फिर खेती करना फिर से मेरा। यानी काम का बँटवारा अच्छी तरह कर रखा था सभी भागीदारों ने।


मगर किसान हर हालत में खेती का काम रोज़ाना करता ही था – बिना ‘मूड’ होने या न होने की परवाह किए। तो ऐसी लिखाई की ही उम्मीद की जा सकती है ‘रोज़ कुछ पेज’ लिखने वाले की लिखाई में। बहुतायत से गद्यात्मकता की उम्मीद। शायद मेरी और उनकी सोच के फ़र्क की वजह भी यही है कि मुझे कविता की विधाओं से वैसा लगाव है जैसा उन्हें लेख, उपन्यास आदि से।


मगर ‘करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान’। जिन की मति ‘जड़’ नहीं थी ओरिजिनली, उनके बारे में कहावत लागू है या नहीं यह किसी दानिश से पूछ्ना पड़ेगा। सो लगे हाथ यह भी पूछ लेंगे कि ‘मेघ दे’ का काम अल्ला मियाँ के भरोसे ही क्यों छोड़ा हुआ था इतने बरस तक भाई लोगों ने?


क्या दूसरे लोगों के धर्म में गरीब-ज़रूरतमन्दों के लिए पानी बरसाने की मनाही है? या फिर पानी बरसाने का काम अल्ला मियाँ का, बर्फ़ गिरवाने का जीसस क्राइस्ट का, पत्थर बरसाने का जेहोवा का, निहाल करने का वाहेगुरू का (चाहे अपनी गर्दन ही क्यों न कटवानी पड़ जाए) और हाथ-पे-हाथ रख के बैठे रहने का भरोसा देने का भगवान का – कुछ इस तरह बँटवारा है क्या कामों का ऊपर आस्मान में? यहाँ यह बात दर्ज करना मैं ज़रूरी समझता हूँ कि ये ख्यालात कम्यूनल क़तई न समझे जायँ, बस थोड़ा सा सोचने के तरीके का मामला है यहाँ।


यहीं यह भी साफ़ कर देना ज़रूरी है कि अगर ग़ौर से देखा जाय तो समझ में आता है कि जो जितना ज़्यादा नियम से, लगातार और बिना फल की परवाह किए काम किए जाता है, उसे समाज में उतना ही निचले दर्जे का समझा जाता है और जो जितना ज़्यादा अपने ‘मूड’ के वशीभूत होकर काम करे, उसका दर्ज़ा उतना ही ऊपर। क्या यही ईश्वरत्व की पहचान है? या साफ़ हिन्दी में कहें तो ‘ऐश्वर्य’ की?


यानी ‘मूड’ नहीं था तो पानी नहीं बरसाया और ‘मूड’ किया तो फागुन में भी बारिश-ओले! यानी और ज़्यादा मूड किया तो ओले-ओले! और उधर हमारे कपिल भाई की तितलियाँ - बेचारी फूल ढूँढती फिर रही हैं फागुन में। और फूल नहीं मिलते, डैमफूल भले बौराए-फगुनाए-वैलेण्टियाए घूम रहे हों।


और यहाँ बारिश-कोहरा और बाढ़ आ जाए तो ज़िम्मेदारी ‘ख़ान’ की? बेचारा पहले ही लोगों को नाम (सॉरी! नेम) बताता घूम रहा है और लोग हैं कि ध्यान ही नहीं देते; ‘ख़ान’ से इंस्पायर नहीं होते – ‘शाह-रुख़’ पर सारा अटेंशन है।
वैसे भी ‘ख़ान’ होने में रखा ही क्या है? किसी को ऑस्कर नहीं मिला, किसी को ऐश्वर्य…


वो भी सब के सब राजा(शाह) का मुँह (रुख़) देख रहे हैं, यह भी देख रहे रहे हैं कि बादशाह का अब क्या रुख़ है? वो ज़माने अब गए जब लोग डरे-डरे रहते थे कि जाने कब कोई जाने किधर से ‘ठाँ’ करे! अब तो ‘ठाँ’ करके गले से लग जाते हैं लोग। सबका ध्यान इसी पर है कि राजा साहब अब किधर को देख रहे (रुख़ कर रहे) हैं? भाई ‘शाहरुख़’ का मतलब ‘जड़’ मति से तो ‘शाह जैसे चेहरे वाला’ ही समझ पाते हैं लोग। तभी तो अभ्यास करत-करत, करत-करत, करत-करत…


‘हाँ’ समझ गए ना? ये आराम का मामला है। आराम क्लासेज़ का भी।


उधर भइया हैं कि जो अब भइया रहे नहीं, ‘पा’ बन गए हैं। मगर खुद नहीं बने, खुद तो खाली बोलते हैं ‘पा’ और बिटवा को ही बना दिया ‘पा’। जो दूसरा ‘पा’ था ना ‘पापा’ में, सुनते हैं इन्कमटैक्स वाले ले गए बकाया उगाही के तौर पर। कोई ये भी कह रहा था कि शायद इन्कमटैक्स से तो छूट गया था, मगर दूसरा ‘पा’ जो पापा से अलग होकर निकला (या शायद निकाल दिया गया) वही ‘अमर’ हो गया है। ये बचा हुआ पा भी अकेला रह जाने से अब आजकल काफ़ी ‘मुलायम’ है। सब माया का खेल है।


माया महा-ठगिनि हम…


और देखिए कि ऐसी बकवास…


बेसिर-पैर की, फिर भी आप यहाँ तक पढ़ गए। यानी काफ़ी खाली वक़्त है भाई लोग के पास। अगर इतना वक़्त कुछ सरकारी काम-काज करने या सुधारने में लगाया होता…


तो क्या…


तो उसका भी ऐसा ही बण्टाधार किया होता जैसा लिखने की विधा का, इस अपने और हमारे वक़्त का और दमाग़ का किया है। चलो अच्छा ही किया जो ये किया, वो नहीं किया।


अच्छा है दिल के पास रहे पासबान-ए अक़्ल
लेकिन   कभी-कभी   उसे   तन्हा   भी   छोड़  दे
इससे जुड़ीं अन्य प्रविष्ठियां भी पढ़ें


No comments: