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Wednesday, June 2, 2010

कम्युनिस्ट और कम्युनिज़्म : नज़रिया

अक्सर किसी विचारधारा - किसी आन्दोलन के बारे में राय बन जाती है उस समूह के उन चन्द लोगों के आधार पर जो आपके सम्पर्क में, आपकी नज़र में आते हैं। मुझे पता है कि ऐसा नहीं होना चाहिए, मगर मैं आदर्श स्थिति की नहीं, रोज़ाना की ज़िन्दगी की बात कर रहा हूँ।
बहुत बड़े स्वप्नद्रष्टा– नारों से फटे गले और आदर्शों के बोझ तले झुके कन्धों वाले कम्युनिस्ट जिनके लिए मलिन और गन्दा रहना स्टारडम हो, हर धर्म को गरियाना जिनका धर्म हो और सिगरेट, चाय, शराब या अन्य नशों की लत से जूझते हुए – समाज के नियमों को सिर्फ़ तोड़ने के लिए तोड़ कर – कुछ सन्तानों को अलग-अलग तीन-चार या कभी-कभी एक ही कोख में स्थापित करने की उपलब्धि से निपट कर किसी गन्दी सी बीमारी से यह संसार छोड़ भागने वाले लोग या चरित्र मुझे नहीं सुहाते।
कम्युनिस्ट सब ऐसे नहीं होते, उस विचारधारा में बहुत सी अच्छी बातें भी ज़रूर हैं, मगर ज़्यादातर ऐसे ही लोग मिले मुझे कम्युनिस्ट के चोले में - जीवन में भी और कहानियों में भी, सो कभी सहज नहीं हो पाया इस विचारधारा के साथ।
एक भी शख़्स ऐसा नहीं जानता मैं जो विचारधारा से कम्युनिस्ट हो और चाय-सिगरेट-शराब न पीता हो, जो विवाह की संस्था का सम्मान करता हो - इसलिए नहीं कि जन्मजात यह सीखा हुआ है उसने - बल्कि इसलिए कि यह कम्युनिस्ट विचारधारा में है।
ऐसा कम्युनिस्ट जो ख़ुश रहता हो, ख़ुशियाँ बाँटता हो या बाँटना चाहता हो और नियमित व्यायाम आदि करके शरीर के प्रति भी अपना आदर और सम्मान प्रकट करता हो, नहीं देखा।
कम्युनिज़्म ने क्या सिखाना चाहा था - पता नहीं, मगर यह ठीक लगता है कि सबके बच्चों को अपना बच्चा समझें - अनर्थ यह हुआ कि अपने बच्चों को भी ज़्यादातर सबका बच्चा समझ लिया गया - या फिर किसी का नहीं।
अभी हाल में अशोक पाण्डे के ब्लॉग पर गया था। उनका अपनी बच्ची के प्रति लगाव देख कर बहुत अच्छा लगा मुझे। भीग गया अन्दर तक। वे कम्युनिज़्म से प्रभावित हैं, और कुछ अलग भी हैं। ज़्यादातर कम्युनिस्ट भिगोते नहीं, भिगो कर मारते हैं।
धर्म को अकर्मण्यता या भाग्यवाद के रूप में न लिया जाय, यह बात समझ सकता हूँ मैं, मगर धर्म के प्रति निरादर का भाव - यह किसी को भी गिरा देता है मेरी नज़र में। आप मेरा धर्म न मानें - चलेगा। मगर आप किसी के भी धर्म का अपमान करें - यह नहीं चलेगा। आलोचना चल सकती है, दायरे में रह कर।
इस से नतीजा यह निकला कि मैं कभी कम्युनिज़्म के बारे में ठीक से यह समझ नहीं पाया कि किताबों के स्तर पर समाज के लिए इतना प्रभावी और आकर्षक होते हुए भी कभी यह प्रथम विकल्प क्यों नहीं बन पाया।
एक अकेले मेरे न समझ पाने और कम्युनिज़्म से अरुचि सी हो जाने से क्या फ़र्क़ पड़ता है? सही है, मगर मेरे जैसे और भी तो होंगे। विरोध में विकसित हो चुके पूर्वाग्रहों वाले मस्तिष्क को भी यदि बात समझाई जा सके, तभी सफलता है प्रचारकों की, तभी सफलता मिल सकती है किसी आन्दोलन को; या फिर स्वेच्छा से रुचिकर लगे, ऐसा कुछ हो उस धारा में।
इस मामले में भी मैंने अधिकतर कम्युनिज़्म-प्रवर्तकों को अधैर्य-ग्रस्त पाया जो शीघ्र ही वाचिक हिंसा और / या बौद्धिक आतंकवाद का सहारा ले बैठते हैं।
मुझे लगता है कि जो धारा प्रमुखत: उन्हीं का आह्वान करती हो, उन्हीं पर आधारित हो जिनको सर्वहारा कहें तो एक जन्मजात आक्रामकता होना लाज़मी है उस समूह में।
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12 comments:

माधव( Madhav) said...

nice thought

M VERMA said...

वैचारिक पोस्ट
विश्लेषणात्मक

दिनेशराय द्विवेदी said...

भीड़ में एक तो पाए
अशोक पांडेय तो पसंद आए
तलाशिए अभी और मिलेंगे
और बहुत मिलेंगे

कम्युनिस्टों को आईना दिखाती सुंदर पोस्ट!

ZEAL said...

After all they are also human beings.They will err.

All are blessed with some virtues and vices. Basic traits are same, no matter which philosophy they are following.

अरुणेश मिश्र said...

तेज तर्रार लेख . बधाई ।

Amitraghat said...

"जैसे 2-2 कोस में जलवायु बदल जाती है,खेतों की मिट्टी बदल जाती है जैसे अफीम के खेतों में गेहूँ नहीं उग सकता वैसे ही एक विचार भी हर देश के लिये मुफीद नहीं हो सकता ....मुझे "सत्यकाम" पसन्द है पर मेरे भाई को नहीं क्योकि उसमे नायक बेतहाशा सिगरेट पीता है......."

Smart Indian said...

आप मेरा धर्म न मानें - चलेगा। मगर आप किसी के भी धर्म का अपमान करें - यह नहीं चलेगा। आलोचना चल सकती है, दायरे में रह कर।
अपनी नयी रूढ़ियों, अंधविश्वासों और हिंसा और तानाशाही के प्रति असंतुलित प्रेम के चलते कम्युनिज्म भी एक नया परन्तु असहिष्णु धर्म ही है जो किसी स्थापित धर्म को बर्दाश्त नहीं करता.

अनूप शुक्ल said...

अच्छा लिखा है। बधाई!

प्रवीण पाण्डेय said...

जो विचारधारा मनुष्य को बाटती हो वह त्याज्य और निन्दनीय हो । आपने बहुत सटीक विश्लेषण है । विचारधारा की पहचान उसके उत्पाद से होती है ।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

बड़ी बेबाकी और साफगोई से आपने अपने विचारों को प्रस्तुत किया है. दरअसल हम सिर्फ विचार पढ़ कर ही मोहित होते हैं..जमीनी सच्चाई कुछ और बयान करती है.
....यह भी हो सकता है कि आच्छे कम्युनिष्ट जो अपने शरीर से प्यार करते हों, किसी प्रकार का कोई नशा नहीं करते हों, किसी धर्म की निंदा नहीं करते हों, इसलिए न दिखाई पड़ते हों कि वे ढोल नहीं पीटते ..!

कडुवासच said...

...प्रभावशाली लेख !!

mukti said...

मैं घोषित कम्युनिस्ट तो नहीं, पर इस विचारधारा से प्रभावित अवश्य हूँ... हाँ दुर्गुणों से विरोध है... पर इसे व्यक्तिगत मामला मानती हूँ.
मैं स्वयं को वामपंथी मानती हूँ ---इस अर्थ में कि मैं व्यवस्था से असंतुष्ट हूँ और उसमें सुधार नहीं, परिवर्तन चाहती हूँ... पर घोर अहिंसक हूँ... अशोक जी के लेख और कवितायें मुझे पसंद आते हैं और मैं उनकी प्रसंशक हूँ... सबसे बड़ी बात उन्होंने प्रेम-विवाह किया है... पूरी दुनिया से विरोध करके ...
बेचैन जी की भी बात सही है कि अच्छे लोग दीखते नहीं क्योंकि चिल्लाते नहीं...और द्विवेदी जी की भी कि खोजने पर ऐसे और लोग मिल सकते हैं.
आपने बड़ी साफगोई से अपने विचार रखे हैं. अच्छा लगा. आलोचना इतने संतुलित ढंग से हो तभी अच्छी लगती है न कि पूर्वाग्रहग्रस्त होकर.