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Monday, May 17, 2010

लिखने की ठेलुअई

लिखने के कई कारण होते हैं। डायरी लिखना उनमें से सिर्फ़ एक है। ठेलुअई दूसरा है। man-sitting-clip-art-silhouetteसोचना तीसरा। सोचने की ठेलुअई… अब सब हमीं गिनाएँ क्या?
जो लोग डायरी लिखते हैं, वो उसे गोपनीय रखते हैं। तभी ईमानदार रह सकते हैं, लेखन में। जीवन में सब कुछ पारदर्शी नहीं होता। न होना चाहिए। ऐसा सबके साथ है, फिर भी लोग चाहते हैं कि दूसरे सब सच और यथार्थ तो लिखें ही, कुछ छुपाएँ भी नहीं।
जो हम ख़ुद नहीं करना चाहते, मगर दूसरों से उसकी अपेक्षा करते हैं, वह है "आदर्श"। "आदर्श" चूँकि आदर्श है, अत: वह यथार्थ से परे होगा ही। बहकी हुई बौद्धिकता से उपजा अहंकार ही व्यक्ति को उस आदर्श स्थिति को प्राप्त करने को उकसाता है, जो सैद्धान्तिक रूप से जीवनकाल में कभी संभव नहीं।

मगर इसी “आदर्श” स्थिति को प्राप्त करने को सिद्धान्त गढ़ता-बटोरता है व्यक्ति। बीमारी बढ़ जाय तो अपने "नए सिद्धान्त" की होमियोपैथी या कपाल-भाति शुरू कर देता है।
ऐसे सिद्धान्त का फ़ायदा ही क्या - जिस पर आप चल रहे हों, और दूसरे न जानें? तो दूसरों को जताना - कि बड़ा "सिद्धान्तवादी" व्यक्ति है, यह इच्छा नैसर्गिक परिणति है इस अवपथित बुद्धि और अहंकार-जनित सिद्धान्त-उन्मुख जीवन की।
यह बात कि कुछ ऐसा जो सामान्य-जन को अलभ्य है, उसके लिए हम प्रयास-रत हैं। इसी के प्रचार में उत्कण्ठा होती है कि लोग जानें सिद्धान्तवादिता हमारी। (जैसे गाँव-जवार में चर्चित होना-कि "आईएएस के इम्तहान में बैठ रहा है फलाने का लड़का। फारम भर दिया है" - बहुधा इतने पर तो शादी तय हो जाती है।)
ऐसे प्रयास की भी उन्मुक्त प्रशंसा होती है, और प्रशंसा बड़ी कमज़ोरी है मनुष्य की। ठीक निन्दा की तरह।

प्रशंसा की इच्छा वास्तव में एक मनोवैज्ञानिक सम्बल (ठीक से पढ़े – कम्बल नहीं) की भीख है कि अनुमोदन करो हमारे कृत्यों का, आचरण का। बचपन की अधूरी इच्छाओं का प्रेत है यह प्रशंसा पाने की इच्छा-बैताल सरीखा। इच्छा तो शरीर छूटने पर भी नहीं छूटती। (टिप्पणी पाने की इच्छा भी टॉफ़ी पाने की इच्छा का ही बुढ़ाता बचपना है।)
निन्दा भी प्रशंसा का ही अवतार है। निन्दा एक अवसर है-प्रशंसा पाने का-जो दूसरे के पैरों के नीचे से खींच लिया हमने - भले ही सफल हों या नहीं - प्रयास तो किया।
बड़े-बड़े लोग अत्यन्त निष्काम भाव से निन्दा करते हैं। फल मिले चाहे न मिले, हमने अपना कर्म कर दिया। बड़ा संतोष मिलता होगा निन्दा में, अपना धर्म निभा कर। कुछ-कुछ वैसा ही जैसा दूसरे का घर या पूजास्थल जला कर मिलता है। बगल वाले की दुकान ज़्यादा चल रही है, कसमसा रहे हैं। मौका मिला-दंगा बरेली में हुआ, दुकान रायबरेली में फूँक दी उसकी। फूँकने के पहले अगर लूट नहीं भी पाए, तो तोड़फोड़ तो करनी ही है।
Danda Guru मास्टर साहब ने टिल्लन को मारा, होमवर्क न कर पाने पर। अगले दिन मास्टर साहब के घर के सामने, सड़क के दोनों तरफ़ दिवालों पर कोयले से टिल्लन को लिख देना है कुछ। अब कुछ अच्छा तो नहीं ही लिखेंगे टिल्लन।
अब जैसे हम लिख रहे हैं। लिख रहे हैं अपनी सनक, मगर किसी ने अगर पढ़ लिया तो बढ़िया। कुछ बोला तो और बढ़िया। टिप्पणी कर दी तो अति उत्तम। अगर तारीफ़ कर दी, तो क्या बात है! छा गए गुरु! मगर टिप्पणी के ऐसे निरर्थक गंभीरता से पगे उत्तर देंगे, जैसे हमने लिखा तो सिर्फ़ अपने लिए था, आपने पढ़ लिया तो पढ़वा कर हमने अहसान किया, और आपकी इस ताक-झाँक को माफ़ किया। अरे अगर अपने लिए ही लिखा था, तो ब्लॉग पर क्यों लाए?
लोग टिप्पणी अगर देंगे, तो वह भी अहसान के भाव से: कि "जाओ टिप्पणी दी-तुम भी क्या याद करोगे!…”

“ऐं…! क्या याद करोगे? अबे याद रखना-और हमारे उधर भी आना टिपियाने। जैसा भी हमने उधर लिखा है, तुमने कौन सा अच्छा लिखा है? अगर तुम्हारे ब्लॉग पर देखा जाय तो तुम्हारे लिखे से अच्छी तो टिप्पणी दी है हमने।"
इसी तरह के पारस्परिक अहसान से दुनिया चलती है, चाहे वह भौतिक हो या ऐन्द्रजालिक। हमारे रेलवे पर वर्क-रूपी (कामरूपी नहीं) अहसान से रेल का काम चल रहा है और रेल के हम पर तनख़्वाह-रूपी अहसान से हमारा घर। इसी अहसान के आदान-प्रदान से देश में यातायात और देश की प्रगति चल रही है।
Clipart Thinkerयानी इच्छा और अहसान के बिना न व्यक्तिगत जीवन जिया जा सकता है, न सामाजिक। यही आदर्श सिद्धान्त है।
(हम भी तो बूँक लें!)
अगर लम्बा लिखा जाय और आपकी टाइपिंग गति धीमी हो, या बीच में व्यवधान आते रहें-फ़ोन कॉल, पत्नी, आवश्यक कार्य या फिर सू-सू ही आ जाय, तो विचार-गति की दुर्गति हो जाती है क्योंकि मूड बदल जाता है। और मूड बदले तो अपनी बेवकूफ़ियाँ और तीव्रता से समझ में आने लगती हैं। इसीलिए एक ब्लॉगिये को अपनी पोस्ट जल्दी से ठेल कर किनारे हो लेना चाहिए, ताकि कहीं अपनी बेवक़ूफ़ी को पहचान कर - अवसाद से बचने के लिए वह डिलीट ही न कर दे अपनी लिखाई।
बचना ऐ ……… लो मई आ गया … अरे भाई! मई भी तो अब आधा चला गयाऽऽऽऽ

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15 comments:

डा० अमर कुमार said...


स्पष्टतः विशुद्ध ठेलुअई के पीछे कुछ निहित कुँठायें भी तो हो सकती हैं ?
तुरत फुरत में लिखी गयी सप्रयोजन पोस्ट !

दिलीप said...

sahi kaha fatafat likho aur thel do...

Amrendra Nath Tripathi said...

आचार्य राम चन्द्र शुक्ल ने 'निंदा-रस' की चर्चा की है | आपको
पढ़ते - पढ़ते याद आने लगा वह लेख , आपने तो देखा ही होगा !
प्रशंसा - विशिख अचूक है , 'वार न खाली जाय ' !
--- "जाओ टिप्पणी दी-तुम भी क्या याद करोगे!…” का सन्दर्भ
लग रहा है नजदीक का ही है ..... :)
ठेलुहई का भी अपना मजा है , मान गए !

Randhir Singh Suman said...

nice

प्रवीण पाण्डेय said...

चिन्तन बहुत ऊपर से चलना प्रारम्भ करता है । एक स्तर से ठेलुआई का स्तर प्रारम्भ होता है और वह उस स्तर तक बना रहता है जहाँ तक वह आम नहीं हो जाता है । उसके बाद वह प्रभावहीन हो जाता है ।
कुछ लिख कर रखे हैं, ठेलने लायक नहीं है । अब आप के आने से लगता है कि ठेला जा सकता है ।

Amitraghat said...

"क्या खूब लिखा है आपके इस लेख का लेखों की दुनिया में वही स्थान है जो कि बहुत बरस पहले बनारस की सम्मानित सवारी "इक्का" का था ..ऐकदम झन्नाटेदार...."

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

हमारे पास आजकल ठेलने के लिए कुछ भी नहीं है... टाइम ही नहीं मिल रहा है.... लेख बहुत जानदार है...

प्रवीण त्रिवेदी said...

हम तो टिल्लन वाली बात का समर्थन करने बस आ गए !

Himanshu Mohan said...

@Suman
आभार पधारने का। आप आते रहा कीजिए, आपके बिना कुछ सूना-सूना सा लगता है।

@प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI
आप जानते हैं टिल्लन को? शायद…
कहीं आपने पीटा तो नहीं उसे?
आभार पधारने का, सस्नेह पुन: आगमन का आमन्त्रण

@दिलीप
@ महफूज़ अली
@ Amitraghat
आभार पधारने का, धन्यवाद हौसला बढ़ाने के लिए। आपको भी सस्नेह पुन: आगमन का आमन्त्रण

@अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
@प्रवीण पाण्डेय
भाई पहले जो मूड था, वो रहा नहीं। बार-बार फ़ोन। लञ्च अवधि में भी घेरते हैं लोग, जानते हैं कि भोजनावकाश में गए नहीं होंगे। सो वही तारतम्य भटका और फिर हमारा मन तो है ही मीर का चेला - सो उसी समय ठेल कर निवृत्त हुआ। आगे से सुधार कर लूँगा, समय पर पके फल ही लाऊँगा।

@डा० अमर कुमार
आभार आपके आगमन हेतु। निहित कुण्ठा हो सकती है, ज़रूर हो सकती है, क्यों नहीं हो सकती। कुछ भी हो सकता है। आपके ब्लॉग पर ही टहल कर आया हूँ आज, मगर कुछ गड़बड़ सा था, कुछ संदर्भ-विहीन होने से समझ नहीं पा रहा था।
और वो डिस्क्लेमर के बारे में आपने जो ज्ञानदत्त जी से पूछा था, मुझे लगा कि मेरे लिखे के बारे में कह रहे हैं। अगर ऐसा हो तो सीधे ही पूछिएगा, वे उस बारे में क्या बताएँगे जो वे स्वयम् नहीं जानते।
बहरहाल आपका व्यंग्य लेखन का अन्दाज़ बैसवारे का, बहुत भाया मुझे। बरसों से ये भाषा और लोग छुटे हुए हैं, शायद इसी से और ज़्यादा।
पुन: धन्यवाद सहित,

Arvind Mishra said...

निरंतर विघ्नों के बाद भी ठेलते जाना एक हठयोग है ....और आप निश्चित ही एक हठयोगी .......ब्लॉग से बढियां कोई माध्यम नहीं है इस ठेलू उत्पाद के लिए ......

Gyan Dutt Pandey said...

इसीलिए एक ब्लॉगिये को अपनी पोस्ट जल्दी से ठेल कर किनारे हो लेना चाहिए, ताकि कहीं अपनी बेवक़ूफ़ी को पहचान कर - अवसाद से बचने के लिए वह डिलीट ही न कर दे अपनी लिखाई।
-----------
यह ज्ञान पहले दिया होता तो लेखन कुछ और कचरामय होता और पोस्टें बीस परसेण्ट ज्यादा! :)

Himanshu Mohan said...

@Arvind Mishra
हमारा जन्म कानपुर में हुआ और हम ने धूनी रमाई इलाहाबाद में। सो बोलवचन और हठ, दोनों पर नैसर्गिक अधिकार है हमारा। हमारी स्वीकृति और सहमति से (यानी हमारे अहसान से) शेष जगत का काम चल रहा है…
:)

@ज्ञानदत्त पाण्डेय Gyandutt Pandey
अब आप तो न कहें ऐसा! हम तो समझते हैं कि आप यथानाम-तथागुण हैं!
:)

Stuti Pandey said...

क्या गजब का ठेला है आपने! वैसे टिल्लन वाली बात का समर्थन करते हैं हम. अंत में ये जबरदस्त पञ्च - बचना ऐ हसीनो....लो मई ...
हा हा! मनोरंजक.

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

बढिया ठेलन और आपकी ठेलन प्रतिभा तो विलक्षण है ही.. आते आते आप तीन तीन ब्लोग्स को चला रहे है.. :)

Daisy said...

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