जहाँ ख़ुदा की नहीं गली दाल, वहाँ बुद्ध की क्या चलती चाल?
वे थे पूजा के विरुद्ध - इसने उन्हीं को दिया पूज,
उन्हें ईश्वर में था अविश्वास - इसने उन्हीं को कह दिया भगवान,
वे आए थे फैलाने को वैराग्य, मिटाने को सिंगार-पटार - इसने उन्हीं को बना दिया श्रृंगार।
* * * * * * *
…सबके अंदर उन्हें डाल, तराश, खराद, निकाल
बना दिया उन्हें बाज़ार में बिकने का सामान।
* * * * * * *
शेर की खाल, हिरन की सींग
कला-कारीगरी के नमूनों के साथ - तुम भी हो आसीन,
लोगों की सौंदर्य-प्रियता को देते हुए तस्कीन,
इसीलिए तुमने एक की थी आस्मान – ज़मीन?
* * * * * * *
(अंत में – यह ज़िक्र करते हुए कि नाचघर में एक तरफ़ बड़ी सी बुद्ध की मूर्ति शोभायमान है, रंग-बिरंगे जलते-बुझते बल्बों के बीच रंगीली सज्जा में – और दूसरी तरफ़ लाइव-ऑर्केस्ट्रा के जाज़ पर जोड़े थिरकना शुरू कर चुके हैं…)
"मद्यं शरणं गच्छामि,
मांसं शरणं गच्छामि,
डांसं शरणं गच्छामि"
मांसं शरणं गच्छामि,
डांसं शरणं गच्छामि"
--------------------------------------------
इसी तरह एक अन्य पृष्ठ पर उनका फ़ुटनोट देखा -
"यह कविता और गीत – आकाशवाणी केन्द्र में इस दिन फीतांकित किए गए"
और मैं चौंका – टेप-रिकार्ड किए जाने का सार्थक सशक्त अनुवाद –“फीतांकन”! वाह!!
मैंने अब तक नहीं देखा कहीं भी यह प्रयोग।
मेरी अज्ञानता हो सकती है इसमें, मगर यही बातें तो एक सामान्य कवि को विशिष्ट बनाती हैं।
क्या ब्लॉगरी भी सप्रयास ऐसी ही समृद्धि दे नहीं रही हिन्दी को? बिना नारे लगाए भी, मुक्त और स्वच्छ्न्द यह हिन्दी आन्दोलन अब तक के सारे आन्दोलनों, सारे ***वादों और सारी धाराओं को पीछे छोड़ देगा, इसमें मुझे ज़रा भी संदेह नहीं।
मेरी अज्ञानता हो सकती है इसमें, मगर यही बातें तो एक सामान्य कवि को विशिष्ट बनाती हैं।
क्या ब्लॉगरी भी सप्रयास ऐसी ही समृद्धि दे नहीं रही हिन्दी को? बिना नारे लगाए भी, मुक्त और स्वच्छ्न्द यह हिन्दी आन्दोलन अब तक के सारे आन्दोलनों, सारे ***वादों और सारी धाराओं को पीछे छोड़ देगा, इसमें मुझे ज़रा भी संदेह नहीं।
और मुझे समझ में आ गया कि पुस्तक खरीदनी पड़ेगी - जबकि कविता पढ़ने को मैं अच्छी आदत नहीं समझता। वो भी ख़रीद कर–प्रवीण पाण्डेय के शब्दों में कहूँ तो - “शिव-शिव, हर-हर!”
* * * * * * * * *
मैंने पहले भी बहुत कविताएँ नहीं पढ़ी थीं उनकी, और विशेष रुझान भी नहीं था। इसी से उनका गद्य लेखन तो पढ़ा गया – बचपन में, जब समय ख़ूब रहता था मगर कविताएँ – उफ़्! कविता पढ़ना मुझे उबाऊ काम लगता था, और लगता है।कविता सुनना अच्छा लगता था, मगर कुछ ख़ास तरह की, और गेय।
बाद में प्रसाद जी की कविताएँ अच्छी लगीं, निराला की भी। पन्त और महादेवी जी की कविताओं के प्रति वैसा रुझान कभी उत्पन्न नहीं हुआ। महादेवी जी का गद्य भाता है। फिर बिहारी, गुलज़ार, रसखान जमे। फिर मैं समझ पाया कि मेरी पसन्द छोटी, उक्ति-वैचित्र्य से भरपूर और व्यंग्य या तंज़ से भरपूर रचनाओं के प्रति है। आनन्द और दिल तक पहुँचना ज़्यादा ज़रूरी है मेरी पसन्द के लिए।
काका ‘हाथरसी’ जमते थे। उनकी कविताएँ याद करनी पड़ीं, क्योंकि पाँच साल की उम्र में ही उनका रोल अदा करना पड़ा था मुझे, स्टेज पर। वहीं से स्टेज की सवारी शुरू हुई थी, जो अभी जारी है।
9 comments:
aapka safar yunhi chalta rahe iske liye shubhkaamnayein..
फीतांकन ... वाह
मुझे बच्चन जी की जीवनी बहुत पसंद आयी
पता नहीं क्यों शायद इसलिए कि इलाहाबाद की पृष्ठभूमि पर लिखी गई थी
कविता से तो हम भी "थोडा" दूर रहते हैं
जानने की इच्छा है कि गजल के बारे में आपके क्या विचार हैं :)
सहजता की प्रकृति में ढ़ाल कर शब्द निर्मित करने की गजब की
क्षमता थी बच्चन साहब के पास ! 'पर राष्ट्र मंत्रालय' और 'स्व राष्ट्र
मंत्रालय' को सर्वप्रथम विदेश और गृह मंत्रलय उन्होंने ही कहा |
...........
प्रकारांतर से आपने अपने बारे में भी कुछ बताया , यह जानकर अच्छा
लगा |
...........
@ '' जबकि कविता पढ़ने को मैं अच्छी आदत नहीं समझता। वो
भी ख़रीद कर–.......... ''
----------- तब तो आपने जाने कितनी मित्रों की किताबें दबा कर
रखी होंगी :) [ बस ऐ वें ही ... ]
@अमरेन्द्र
न भाई! मेरी बहुत सी किताबें दोस्तों के पास हैं, कई की तो दूसरी या तीसरी प्रति भी ख़रीद चुका। मेरी उक्ति कविता तक सीमित है, अन्य पुस्तकों पर लागू नहीं। जैसे पुराने शराबी को मैख़ाने वाले पहचानते हैं, वैसी पहचान है मेरी अच्छी पुस्तक की दुकान वालों से।
विभिन्न विषयों पर मेरे पास छोटी-मोटी लाइब्रेरी सी ही होगी। बस विषय अलग-अलग हैं; पुराणों से लेकर एक्यूप्रेशर तक, जेफ़्री आर्चर से लेकर इब्ने सफ़ी बी0ए0 तक। पढ़ने में मेरी कोई पूर्वाग्रह-ग्रस्त रुचि नहीं। उसी खुशी से सुरेन्द्रमोहन पाठक, कर्नल रंजीत, वेदप्रकाश शर्मा और उसी उत्साह से चेतन भगत, वैसे ही हरिवंशपुराण।
एक ही पुस्तक है जो एक मित्र सतीशकुमारजी की मेरे पास पड़ी है - "ऐज़ द क्रो फ़्लाइज़" जेफ़्री आर्चर की लिखी।
कविता नहीं, ग़ज़ल पढ़ सकता हूँ ख़रीद कर। ख़रीदता भी हूँ।
और यह आलेख मूलत: इस बात पर था कि बच्चन जी ने कितनी सहजता के साथ, बिना किसी छ्द्म दम्भ के, इस तरह के न जाने कितने शब्दों वाक्यांशों से समृद्ध किया हिन्दी को। उन्होंने हिन्दी में लोकधुन आधारित कई ऐसे गीतों की रचना की जिन्हें हम अक्सर "पारम्परिक" का लेबल लगा कर काम चला लेते हैं, जैसे नज़ीर अकबराबादी के भजन व अन्य रचनाएँ।
@वीनस केशरी
भाई ग़ज़ल के बारे में तो ऊपर लिख ही दिया। कविता भी यदि परिष्कृत हो, तो पढ़ी जा सकती है।
यह अकविता टाइप चीज़ें ब्लैक कॉफ़ी के समान हैं, जिन्हें आदमी अपने से नाराज़ होने पर पी लेता है, और इतना भी नाराज़ नहीं होता कि ज़हर ही पी ले।
अलिये, इसी बहाने पसंद जान गये. :)
वैसे बच्चन जी की जीवनी की सारे भाग प्रभावित करते हैं.
प्रकृति में असंतुलन फैलाना ठीक नहीं । आपसे सीख कर सब कविता लिखना व सुनाना ही प्रारम्भ कर दें और पढ़ें व सुने ना, तब । हम तो फिर भी सुनेगे क्योंकि हमें अच्छी लगती है ।
पुस्तकें पढ़ना, रखना व हाथ में ले फोटो खिचाना, तीनों बहुत भाते हैं ।
बच्चन जी के पास मधुशाला के अलावा भी एक पूरी मधुशाला है ।
अरे, दो चार इब्ने सफी देना - पढ़े जमाना हो गया जासूसी दुनियां को! :)
फीतांकन ...
यहु ऐब पाले हो !!!!!!!!!
जिया सेर...जिया :)
@विभिन्न विषयों पर मेरे पास छोटी-मोटी लाइब्रेरी सी ही होगी।
आपकी बातें बताती हैं यह सच !
कवितांश सुन्दर है ।
आज एक बैठकी में आपकी दो चार पोस्ट पढ़ गया हूँ ! दो चार बाकी हैं आज तक..कल पढूँगा ।
अभी पोस्टरस देखना शेष रहा !
Post a Comment