ब्लॉगियाना एक बीमारी है। स्वाइन फ़्लू से भी बड़ी।
स्वाइन फ़्लू से डरने का नहीं, लड़ने का। सफ़ाई रखने से आप इसे रोक सकते हैं।
ब्लॉगियों से लड़ने का नहीं, डरने का। लड़ने की कोशिश करी तो यही बूँक देंगे।
एच आई वी की जाँच होती है, एड्स का दिवस मनाया जाता है। ब्लॉगियाने में बड़ी आँच होती है और दिवस ये जब चाहे मना लेते हैं।
बाकी लोग साल में एकाध बार होली-ईद मिलन करते हैं, ब्लॉगिये जब देखो तब, जहाँ देखो तहाँ मिलन करते रहते हैं।
छूने से एड्स नहीं फैलता, प्यार फैलता है; ब्लॉगियाने की बीमारी बिना छुए भी फैलती है। और फैलने की गति भी कितनी – प्रकाश की गति से – इलेक्ट्रॉन की गति से।
मन का मैल साफ़ करना आसान नहीं, मगर मेल से ब्लॉगिया देना बहुत ही आसान है।
दरअसल भारत की जनता मरी जा रही है कि कोई तो सुने उसकी। जिसे देखो, जहाँ देखो, बतियाने को तैयार खड़ा है। बोलने को, नारे लगाने को, शिकायत करने को। कोई जब नहीं सुनता तो भगवान को सुना लेते हैं। चिल्ला-चिल्ला कर, गा-गा कर। रात-रात भर जगा कर। जो इस सबसे भी शान्ति नहीं पाते वो ब्लॉगियाने लगते हैं।
पर यह रोग अब दुनिया भर में बुरी तरह फैल चुका है।
दर-अस्ल अपनी शान्ति पाने के लिए ज़रूरी है कि दूसरों को शान्ति न मिलने दी जाए।
इसीलिए, ब्लॉगियाने वाले दूसरे का लिखा पढ़ते नहीं मगर टिप्पणी ज़रूर देते हैं, वर्ना उनको ख़ुद टिप्पणी कैसे मिलेगी। और अगर एक संत-महंत ने अपनी टिप्पणी दी तो बाक़ी भी हुआ-हुआ करके अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगते हैं। "…तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं" के अन्दाज़ में।
टिप्पणी को आप ब्लॉगियों का रक्तदान ही समझिए।
आम तौर पर ये हिंसक नहीं होते। धरना-प्रदर्शन भी नहीं करते। किसी बात पर बहस करना तो इन्हें स्वीकार ही नहीं होता। इस तरह की फ़िज़ूल बातों में वक़्त ज़ाया नहीं करते। अगर इतना ही अवसर मिले तो एक पोस्ट और लिखना पसन्द करते हैं ये।
इस बीमारी के दौरे सिर्फ़ तब तक रुके रहते हैं जब तक ये ब्लॉगर मीट में शामिल रहें। ख़तरनाक स्टेज आने पर ये कहीं से भी, मोबाइल से भी फ़ोटो, टिप्पणी, वीडियो, ऑडियो की ठेला-ठाली मचाए रहते हैं।
घर वालों की नज़र में तो उन्हें जैसे कोई नज़र ही लगी होती है। घर पर लोग समझने लगते हैं कि इस आदमी से अब कोई उम्मीद रखना बेकार है। बाहर वाले भी खूब समझते हैं ब्लॉगियों को कि कोई काम निकालना हो इस आदमी से तो लगतार चार-पाँच दिन रोज़ाना एक-दो टिप्पणी गेर दो, फिर काम कहो- उम्मीद रखो, हो जाएगा।
ज़बानी तारीफ़ की ये "कॉग्निज़ेंस" नहीं लेते।
"जो ब्लॉग पर ही ना दिखे, फिर वो टिप्पणी क्या है?"
टिप्पणी में ये अच्छा-बुरा, अपना-पराया नहीं देखते। गिनती करते हैं। सिर्फ़ "लाजवाब", "उत्तम", "बेहतरीन", "आभार" या फिर "nice " भी चलेगा।
आप समझ तो रहे हैं न?
4 comments:
हा..हा..हा... बढ़िया व्यंग लिखा जनाब....."
nice
आपको भी लग गई आखिर यह बीमारी..
@भारतीय नागरिक
सही पकड़ा आपने :)
"घायल की गति घायल जाने"
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