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Friday, April 9, 2010

हमने हर शै कभी-कभी बेची (ग़ज़ल)

हमने सर बेचा कलम भी बेची
नौकरी क्या की-हर ख़ुशी बेची

लोग आवाज़ बेच देते हैं
हमने चुप रहके ख़ामुशी बेची

कलाकारों ने ज़िन्दगी बेची
बीमाकारों ने मौत भी बेची

बेचने वालों ने बेची दुनिया
और परलोक की गली बेची

दर्द बेचा हो या हँसी बेची
हमने हर शै कभी-कभी बेची

दोस्ती-सच-वफ़ा-ईमान-ख़ुलूस
दर्द-राहत-अना सभी बेची

बेचने से अगर बचा कुछ तो
हमने वो चीज़ क्यूँ नहीं बेची
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2 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया!

Himanshu Mohan said...

@वीनस केशरी
भाई भीष्म इसी बिकी हुई ख़ामोशी के कारण ही तो चुप हैँ, यही प्रवीण जी को बताना चाहता था। अब सब को बता दिया।