समझ दुनिया की कम है
लहू अब तक गरम है
व्यथा उनकी अनूठी
ख़ुदाई का वहम है
यही बस एक ग़म है
अकारथ सा जनम है
मिलन की हर कथा में
मेरा संदर्भ कम है
सुबह से ही उदासी-
उजाला है कि तम है
वफ़ाओं का भरम है
इनायत है, सितम है
तेरी ज़ुल्फ़ों से ज़्यादह
ज़ुबाँ में पेचो-ख़म है
अजब दर्दो-अलम है
सुकूँ से नाकों-दम है
भरी-पूरी है दुनिया
मगर कुछ है जो कम है
हँसे हम आज इतना-
अभी तक आँख नम है
शिकायत है न शिक्वा
फ़कत झूठी कसम है
ग़रीबों को ख़ुशी पर
अभी विश्वास कम है
करे ख़ुश्बू को बेघर
हवा भी बेरहम है
किसी आँसू को पोंछो
धरम का ये मरम है
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नवें शे'र का थोड़ी हेराफेरी से चमत्कार देखिए -
उधर कुछ है जो कम है
इधर जो कुछ है कम है
या
उधर कुछ-कुछ है कम-कम
इधर जो-जो है कम है
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ये ग़ज़ल मैंने श्री पंकज 'सुबीर' को, उनकी ग़ज़ल सेवाओं से अभिभूत होकर सस्नेह समर्पित की है, सद्भावनाओं और शुभेच्छाओं सहित
5 comments:
रचना की तारीफ करनी होगी।
हमारे गुरु जी है ही ऐसे, करोडो में एक
तेरी ज़ुल्फ़ों से ज़्यादह
ज़ुबाँ में पेचो-ख़म है
ग़रीबों को ख़ुशी पर
अभी विश्वास कम है
किसी आँसू को पोंछो
धरम का ये मरम है
उधर कुछ है जो कम है
इधर जो कुछ है कम है
ये शेर खास पसंद आये
करे ख़ुश्बू को बेघर
हवा भी बेरहम है
किसी आँसू को पोंछो
धरम का ये मरम है
bahut khub
shekhar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/
हिमांशु जी आपके द्वारा लगाई गई इस पोस्ट से अभिभूत हूं । बहुत बहुत धन्यवाद । आपकी प्रोफाइल में आपकी उम्र 103 वर्ष देख कर चौंक गया हूं ।
सुबीर जी, 103 वर्ष की वय से पता चलता है पाठक कितनी गंभीरता से लेते हैँ आपको। अब तक 2 लोगोँ ने यह बात नोट की है, वर्ना nice टिप्पणी से तो डरना चाहिए।
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