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Monday, April 5, 2010

अपेक्षाएँ : ब्लॉगरी से और संचार माध्यमों से

अपनी पढ़ी पुस्तकों में से जिन पुस्तकों को मैं सबसे ज़्यादा प्रभावकारी मानता हूँ, उनके नाम लिखने चाहे, याददाश्त के आधार पर तो ये नाम याद आए-
अनलिमिटेड पॉवर (अन्थोनी रॉबिन्सन), सर्वाइवल ऑफ़ द सिकेस्ट (डॉ0 शैरोन मोलेम और जोनाथन प्रिंस), राग दरबारी (श्रीलाल शुक्ल), ब्लिंक (मैल्कम ग्लैडवेल)…कि अचानक ठिठक गई मेरी कलम। क्या भारतीय भाषाओं में चमत्कारी पुस्तकों का टोटा है? या फिर भारतीय नॉन-फ़िक्शन लेखन में पीछे हैं?


खोज-परक या विश्लेषण-परक पुस्तकें या लेख भी विश्वस्तरीय नहीं मिलते मुझे भारतीय लेखकों के। हो सकता है मेरी जानकारी, मेरा परिदृश्य का मूल्यांकन वास्तविकता से परे हो, मगर अंग्रेज़ी को छोड़ अन्य भारतीय भाषाओं में तकनीकी दृष्टि सहित तथ्यपरक लेखन भी कम ही दिखता है।


यह तो भला हो ब्लॉगरी का जिसने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नए आयाम दिए हैं। छ्पास और व्यावसायिक लेखन से परे यह एक ऐसा पटल भी है जो उन्हें सीधे जनता से जुड़ने दे रहा है जिनके पास जानकारी है, जज़्बा है मगर संसाधन कम हैं, ख़ासकर समय।


एक औसत अच्छे लेख या पुस्तक से जो शोहरत या आमदनी मिल सकती है, उसके प्रति ज़्यादा रुझान नहीं ऐसे लेखकों का क्योंकि उनमें से कई उससे ज़्यादा पहले ही कमा रहे हैं। उन्हें प्रेरित करती है ब्लॉगरी की चुनौती, यहाँ अपना योगदान देने को, ख़ुद को आज़माने और हिट हो जाने को। ब्लॉगरी का एक अहम् कारण अपने को अपने जैसी सोच के लोगों से जोड़ने और एक सामाजिक समूह बनाने की भावना भी है, मगर चर्चा यहाँ लेखन पर है, ब्लॉगरी के कारणों पर नहीं।


यह चुनौती है सीधे प्रतिक्रिया झेलने की। जैसे स्टेज की चुनौती फ़िल्म से अलग तरह की है, यहाँ कीचुनौती स्टेज से भी बड़ी है।


ऐसे समझें कि फ़िल्म में आपको बार-बार दुहराव के बाद भी आपका सर्वोत्तम एक बार तैयार करना और संपादित करना सुलभ है, स्टेज पर आप उसी नाटक को अगली प्रस्तुति के लिए हर दुहराव के साथ तो बेहतर कर सकते हैं, पर अभी तो जैसा भी परफ़ॉरमेंस दिया, उसी के अनुसार प्रतिक्रिया मिलेगी और आकलन होगा। अगर सर्कस से तुलना करें तो वहाँ जैसे ही आपके आइटमों का नयापन ख़त्म हुआ, आपको अपना डेरा-तंबू उखाड़ कर नए दर्शक तलाशने पड़ते हैं। स्टेज इसीलिए 'खेल' की तरह है और नाटक 'खेला' जाता है, सिनेमा या सर्कस 'खेले' नहीं जाते।


यहाँ ब्लॉगरी में आपको गुणवत्ता बनाए रखकर, सतत रचनाशील रहना पड़ता है और दुहराव की गुंजाइश 'न' के बराबर होती है। प्रतिक्रिया तुरन्त और आप कठघरे में। दुहराव 'न' कर पाना इसे स्टेज से अलग - सर्कस के गुण बख़्शता है।


जो बपुरा बूड़न डरा - सो क्या ब्लॉगरी करेगा? मगर साथ ही जो बात आपने ब्लॉगरी मंच पर कही 'इधर', 'उधर' वह तुरन्त ही प्रसारित हो गई, द्विपक्षी वार्तालाप के लिए। जनमत संग्रह, जनमत विवेचना और जनमत अनुकूलन के लिए यह ग़ज़ब का प्रभावशाली माध्यम है। इसीलिए मुझे ब्लॉगरी से उम्मीद है कि चमत्कारी लेखन की भारतीय भाषाओं में कमी को यही ब्लॉगर दूर करेंगे।


इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यम जो आपके समय और सुविधा से समझौता करके आपके दरवाज़े ही नहीं, आपकी मेज़ (डेस्कटॉप), आपकी गोद (लैपटॉप) हथेली (पामटॉप) से होता हुआ आपकी जेब तक आ घुसा है (मोबाइल सेलफ़ोन पर) वह है ब्लॉग। आप अपनी सुविधा से कहें (या लिखें, वीडियो/ ऑडियो/ चित्र भेजें), मैं अपनी सुविधा से पढ़ूँगा या देखूँगा और अपनी प्रतिक्रिया दूँगा।


अभी भी इसकी पूरी शक्ति का दोहन तो क्या, दशांश भी उपयोग नहीं कर पा रहे हैं हम। फ़िल्म, राजनीति ही नहीं, विक्रयशील हर चीज़ या बात को आना होगा सीधे जुड़ने के लिए, अपने लक्ष्यगत उपभोक्ताओं के पास।


मुझे तो लगता है कि अगले चरण में, जो बहुत दूर या देर से नहीं होगा, टाटास्काई या अन्य डिश-टीवी जैसी डायरेक्ट-टू-होम सेवाओं को अपने 'प्लस' वर्शन में एक-आध 'प्लस' और जोड़ कर आना होगा अपनी एक्टिव सेवाओं में ब्लॉग भी जोड़ कर। जब ब्लॉग पर जाने के लिए आपको मोबाइल, लैपटॉप की नहीं, सिर्फ़ अपने डिश-टी-वी रिमोट भर की ज़रूरत पड़ेगी।


इस सूचना क्रांति के युग में आप मुझे देरी के लिए माफ़ कीजिएगा अगर आप जब यह ब्लॉग पढ़ रहे हों तब तक ऐसी सेवाएँ शुरू भी हो गई हों।
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