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Sunday, April 4, 2010

अम्माँ का परसा खाना (वादे के मुताबिक अमिया वाली ग़ज़ल)

जो बौराते उनको अक्सर फलना पड़ता है
मीठी अमिया भी पहले खट्टी ही फलती है

चूल्हे पर जब अमिया वाली दाल उबलती है
अम्माँ के परसे को भूखी जीभ मचलती है
दूर-देस कोई अपनी माटी का मिल जाए 
बातों से फिर देखो कैसे बात निकलती है

चातक ने तो प्राण दे दिये प्यासे रह-रह कर
बादल पूछ रहे हैं बोलो किसकी गलती है

दिल की दूरी मुस्काते होंठों से क्या कम हो
लोगों को ख़ुद उनकी ये हुशियारी छलती है

शाम ढले यादों-यादों ख़ुश रहता है बचपन
फिर धीरे से उम्र सरीखी रैना ढलती है

मिले-हँसे-बोले-शर्माए जब-जब तुम ऐसे
क्या बतलाएँ कैसे नीयत-नज़र सँभलती है

इधर हमें भी चैन नहीं दिन-रैन कभी पल भर
छाया उस छत पर भी यारो रोज़ टहलती है

महफ़िल में सूनेपन के हंगामे बरपा हैं
तन्हाई से अपनेपन की ख़ुश्बू मिलती है

हमने क्या ऐसे ही तुमको दर्द सुनाए हैं
दर्दे-दिल की बात कहीं ग़ैरों से चलती है

बात वही जो कहनी थी तुमसे पहले दिन से
और बहुत कुछ बोले बस वो चर्चा टलती है

फलने पर डण्डे मिलते - दस्तूर पुराना है
सबकी अपनी-अपनी नीयत, कहाँ बदलती है


और ये शे'र दुमछ्ल्ले की तरह - 
महिला आरक्षण के दिन से मौसम भी बदला
भौंहें ताने नाक चढ़ाए धूप निकलती है

प्रोफ़ाइल में लगा दिया तन्वंगी का फ़ोटो
चिट्ठों पर अब अपनी चर्चा अक्सर चलती है
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2 comments:

आलोक साहिल said...

आहा...क्या खूब लिखी आपने भाई दी...
दिल खुश हो गया...बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति

आलोक साहिल

दिलीप said...

bahut khoob....