इसीलिए इस दौर के अधिकांश नाम बस भीड़ की तरह गिने जाने और लिस्ट में "इत्यादि" ही कहे जाने योग्य रहे क्योंकि हिन्दी सिनेमा के विकास में कोई सार्थक उल्लेखनीय योगदान नज़र नहीं आता इनका - कम से कम आज, एक सिने कलाकार के तौर पर।
वास्तव में इस दौर में खलनायक ने केन्द्रीय भूमिका नायक से लगभग छीन ही ली थी और इसीलिए नायक स्वयं खलनायक बनने लगे - पापी पेट का सवाल जो था।
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मोगैंबो की ख़ुशियों का दौर चला नायक झींगुरत्व को प्राप्त हुआ |
सलमान-अक्षय का नाम भी फिर कोई बहुत अलग या उल्लेखनीय नहीं रहा - मगर सलमान अपने विवादों के बावज़ूद और अक्षयकुमार अपनी एक्शनहीरो की छवि को तोड़ कर - सफल और स्तरीय कॉमेडी तक पहुँच सके - इतना ही उल्लेखनीय कहा जा सकेगा।
महिमा मण्डित अपराध |
एक अजीब किस्म की हताशा घेरे थी समाज को।
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दरबार-विलास |
संपन्नता और विलासितापूर्ण मनोरञ्जन का चोली-दामन का साथ है।
संपन्न लोग विलासिता, प्रमाद, आलस्य और दरबारी-मानसिकता के तहत मनोरंजन चाहते हैं - अपना समय बिताने के लिए।
उसी तरह जब समाज को हताशा घेरती है तो आम आदमी अधूरी इच्छाओं के पूरे होने के सपने देखने का आसरा तलाशता है सिने उद्योग, नाटक जैसे परिष्कृत माध्यमों से लेकर नौटंकी और जात्रा आदि लोक-कलाओं में। इसी तरह कुछ लोगों की निजी संपन्नता का ताल्लुक़ बहुत से लोगों की सामूहिक विपन्नता और तज्जनित हताशा से होता है -तो दोनों ही वर्ग अपने-अपने कारणों से मनोरञ्जन की ओर उन्मुख होते हैं।
आर्थिक विपन्नता और हताशा का युग लॉटरी-जुआ-मटका-नशा आदि के लिए भी वरदान जैसा साबित होता है। जब सबकुछ सहज हो और जेब में पैसा 25 तारीख़ के बाद भी रह जाता हो - तब मध्यमवर्ग शेयर बाज़ार का रुख़ करता है - हज़ारों के लुटने की कीमत पर दस-बीस के संपन्न होने के लिए। इन सभी परिस्थितियों से गुज़र चुकने के बाद एक पूरी पीढ़ी हताश होती है, साथ ही बुद्धिमान भी - और फिर ये ग़लतियाँ वो याद रखती है - मगर छोड़ देती है अगली पीढ़ी के दुहराने के लिए। फिर इसी हताशा जनमती है जीवन-चक्र की अगली दिशा और तय होती है यहाँ से आगे की गति भी।
अवसाद की कला |
इसी तरह यह भी तय है कि हताशा से जनित होता है या तो अवसाद, या पलायन। सामूहिक हताशा से यह सब सामूहिक हो जाता है। अवसाद से भ्रमित और ग्रसित सिनेमा बेनेगल-नसीरउद्दीन शाह-ओमपुरी के दौर का उत्पाद रहा तो पलायन उसके भी बाद की स्थिति बनी।
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मिथुन - मृणाल सेन की कृति "मृगया" में राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता: गनमास्टर जी9-डिस्कोडान्सर |
एक पलायन फ़िल्मों में भी दिखता रहा - मिथुन और नसीर जैसे उच्च-कोटि के कलाकार जो कला-फ़िल्मों की उपज थे मगर पलायन कर गए स्टारडम की ओर। देश में भी ऐसा ही हुआ - देश में सूखे पड़े मरुथल ने युवा-प्रतिभा को विदेशों की ओर उन्मुख किया और एक नया दर्शक वर्ग पैदा हुआ - प्रवासी भारतीय।
सूचना-तकनीक के घोड़े पर सवार सारे राजा बेटा विदेश जाकर कमाने लगे और उनकी समृद्धि की फ़सल न केवल उनके सम्बन्धियों के पास देश में लहलहाई, बल्कि सिनेमा देखने के और बनाने के भी, तौर ही बदल गए! कुछ आयातित समृद्धि से, कुछ अत्याधुनिक उपकरणों से और कुछ आधुनिक तकनीक से जो कम्प्यूटर के जीवन के हर क्षेत्र में बढ़ते दख़ल और सञ्चार-माध्यमों की निर्विवाद तुरन्त पहुँच से जनित थे। यह वर्ग इतना बड़ा अंशदान दे रहा था सिनेमा-उद्योग के लाभांश में कि धीरे-धीरे सिनेमा इसी वर्ग के लिए बनाया जाने लगा।
सूचना-तकनीक के घोड़े पर सवार सारे राजा बेटा विदेश जाकर कमाने लगे और उनकी समृद्धि की फ़सल न केवल उनके सम्बन्धियों के पास देश में लहलहाई, बल्कि सिनेमा देखने के और बनाने के भी, तौर ही बदल गए! कुछ आयातित समृद्धि से, कुछ अत्याधुनिक उपकरणों से और कुछ आधुनिक तकनीक से जो कम्प्यूटर के जीवन के हर क्षेत्र में बढ़ते दख़ल और सञ्चार-माध्यमों की निर्विवाद तुरन्त पहुँच से जनित थे। यह वर्ग इतना बड़ा अंशदान दे रहा था सिनेमा-उद्योग के लाभांश में कि धीरे-धीरे सिनेमा इसी वर्ग के लिए बनाया जाने लगा।
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प्रेम-कथा |
यों कहें कि जो 'विजय' या 'रवि' होने से बमुश्किल तमाम 'प्रेम' होना सीख पाया था इस दौरान - वो अब एकाएक 'राज' होने लग गया।
हालाँकि बीच-बीच में वो 'प्रेम' भी हो जाता था, मगर ज़्यादातर वो 'राज' ही रहा।
और ये 'राज' पहली बार शाहरुख़ ख़ान नहीं बने थे - आमिर ख़ान बने थे - "क़यामत से कयामत तक" में। 'प्रेम' सलमान ख़ान से लेकर आज तक ज़िन्दा है - रणबीर कपूर की शक्ल में।
और ये 'राज' पहली बार शाहरुख़ ख़ान नहीं बने थे - आमिर ख़ान बने थे - "क़यामत से कयामत तक" में। 'प्रेम' सलमान ख़ान से लेकर आज तक ज़िन्दा है - रणबीर कपूर की शक्ल में।
प्रेम से वाण्टेड तक - हिन्दी सिनेमा का हीरो चाहे अक्षय हों, शाहरुख़ या ख़ुद सलमान |
इस एनआरआई वर्ग के चहेते हीरो बने शाहरुख़ ख़ान और सफलतम बैनर बने यशराज बैनर, आदित्य चोपड़ा और जौहर परिवार के करण जौहर।
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निर्यात हेतु - एक्सपोर्ट क्वालिटी |
आल्प्स के ढलानों से सरसों के खेतों तक- "कम फ़ॉल इन लव - आओ प्यार में गिर पड़ो" |
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प्रेम: वाकई दु:साध्य-रोग |
'जोकर' जीवन्त : नीली आँखों का सूनापन होठों पर मुस्कान - दर्द भरी |
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सुन्दरम् ही सुन्दरम् ! |
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पद्मश्री कमलाहासन |
आमिर : सिर्फ़ एक और ख़ान नहीं |
अनुपम खेर तो सारांश के बाद दिखे ही सिर्फ़ "मैंने गान्धी…" में - उस तरह से - या फिर "खोसला का घोंसला" में बोमन ईरानी के साथ झलके, बाक़ी तो वे भी स्टार-कलाकार से ही हो गए। नसीर कला फ़िल्मों से आए और अपना एक स्टारत्व क्रिएट कर लिया - जिस सिस्टम की "कला या समान्तर सिनेमा" वाले मुख़ालफ़त करते थे - जब तक स्टार नहीं थे ख़ुद।
(क्रमश:)
7 comments:
पता ही नहीं था कि हम इतनी सारी फिल्में देख भी चुके हैं।
महत्वपूर्ण जानकारी...
रक्षाबंधन पर्व की सभी को हार्दिक शुभकामनाएं.
बहुत सही लिखा है आपने। Psychology पर अच्छी पकड़ है आपकी। आपकी हिंदी मुग्ध करती है। सीख रही हूँ आपसे ।
सिनेमा पर एक सार्थक विश्लेषणात्मक श्रृंखला.
Padhkar mazaa aa gayaa.....
बहुत अच्छी प्रस्तुति| धन्यवाद|
बहुत अच्छी प्रस्तुति| धन्यवाद|
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