राज कपूर की प्रेरणा के रूप में चार्ली चैप्लिन का नाम अक्सर लिया जाता है, मगर राज कपूर की वैश्विक सफलता और लोकप्रियता का कारण उनकी मौलिकता ही थी। राज कपूर ने चार्ली चैप्लिन से प्रेरणा अवश्य ली, पहनावे और अदाओं में यथेष्ट नकल भी की, परन्तु नकल तक सीमित नहीं रहे।
राज कपूर की प्रेरणा के रूप में चार्ली चैप्लिन का नाम अक्सर लिया जाता है, मगर राज कपूर की वैश्विक सफलता और लोकप्रियता का कारण उनकी मौलिकता ही थी। राज कपूर ने चार्ली चैप्लिन से प्रेरणा अवश्य ली, पहनावे और अदाओं में यथेष्ट नकल भी की, परन्तु नकल तक सीमित नहीं रहे।चार्ली की मासूमियत और पीड़ा से लबरेज़ हास्य-व्यंग्य की परिस्थितियों को गढ़ सकने की क्षमता को राज कपूर ने हिन्दुस्तानी परिवेश में ऐसा ढाला कि विदेशी संस्कृति और परिप्रेक्ष्य ओझल हो गए दृष्टि-पटल से, सामने रह गया हिन्दुस्तानी युवा, जो अपने सपनों-इच्छाओं के पीछे भागना तो चाहता था, मगर साथ ही उसे ये भौतिक उपलब्धियाँ अपनी नैतिकता और सीधेपन को गँवाने की क़ीमत पर नहीं मंज़ूर थीं।
चार्ली का चरित्र पाश्चात्य पृष्ठभूमि में, अपने देश-काल-वातावरण से जितना जुड़ा था, उससे उसका थोड़ा सा चालबाज़ होना भी तय था। ऐसा ही दिखता भी है उनकी फ़िल्मों में।
इधर राज कपूर के चरित्र चाहे सीधे-सादे गाँव वाले के हों, चाहे मुम्बइया चॉल-वासी स्मार्ट युवा के, वह एक ऐसा आम हिन्दुस्तानी था कि सीधा-पन और अपने सामाजिक-भावनात्मक मूल्यों के प्रति उसका लगाव छ्लकता था उसकी आँखों-बातों से और उसके किसी कठिन परिस्थिति में पड़ने पर लिए जाने वाले निर्णय से। उसका निर्णय हमेशा आशावाद से भरा और मानवता की जीत का होता था, भले ही व्यक्तिगत हार या तात्कालिक नुक्सान अवश्यम्भावी हो।
राज जी ने एक ऐसे नायक को जिया जो सुपरमैन नहीं था, जिसे अपनी थाती, मूल्यों और ज़मीन से प्यार था। जो दस-बीस आदमियों को पीट नहीं पाता था, लेकिन 'सही' के पक्ष में रह कर पिट जाने से क़दम पीछे भी नहीं करता था। यही हिन्दुस्तानी की पहचान बन गयी विश्व में।
एक ऐसा आदमी जो चाहे पाकेट मारे, चोरी करे, आवारा हो लेकिन हर हाल में दर्शकों की सहानुभूति का पात्र बना रहे और उनका दिल जीत ले, हीरोइन का दिल जीतना उस दर्शकों के दिल को जीतने के सामने तो बहुत तुच्छ और सामान्य घटना होती थी। या यों कहिए कि ऐसा चित्रण होता था उस नायक का कि नायिका जब तक उस पर अपने प्यार को न्योछावर न कर दे, तब तक उसको दर्शक अच्छी और सम्मानजनक नज़रों से नहीं देख पाते थे, क्योंकि वह आदमी होता ही था इतना अच्छा और दिल के क़रीब।अपनी इसी पहचान को एक आम 'हिन्दुस्तानी' की छवि से सफलतापूर्वक जोड़ कर, राज जी ने एक ऐसे नायक को जिया जो सुपरमैन नहीं था, जिसे अपनी थाती, मूल्यों और ज़मीन से प्यार था। जो दस-बीस आदमियों को पीट नहीं पाता था, लेकिन 'सही' के पक्ष में रह कर पिट जाने से क़दम पीछे भी नहीं करता था।
एक ऐसा आदमी जो चाहे पाकेट मारे, चोरी करे, आवारा हो लेकिन हर हाल में दर्शकों की सहानुभूति का पात्र बना रहे और उनका दिल जीत ले, हीरोइन का दिल जीतना उस दर्शकों के दिल को जीतने के सामने तो बहुत तुच्छ और सामान्य घटना होती थी।
ऐसी सहानुभूति जुटाना सबके लिए सुलभ नहीं था, और यहाँ तक कि जब "संगम" में राजकपूर का चरित्र अपनी सीधी-सच्ची खिलंदड़ेपन से जुड़ी मुहब्बत लुटाता है नायिका पर, जो पहले ही अन्य नायक (राजेन्द्रकुमार) की मुहब्बत में गिरफ़्तार है, तो प्रचलन के अनुसार देखें तो राजकपूर को दो के बीच आने वाला तीसरा बनना चाहिए था, मगर सहानुभूति दर्शकों की उन्हीं के साथ रहती है; लोग नायिका पर और पहले नायक पर कुढ़ते हैं कथानक के हर नए विस्तार के साथ कि ये लोग इसे (राजकपूर को) सब साफ़-साफ़ बताते क्यों नहीं, धोखा क्यों दे रहे हैं इसे? यानी जो "तीसरा" बनने वाला था 'दो' के बीच, वही बेचारा है, सहानुभूति उसी के साथ है!
(क्रमश:)
16 comments:
पता है एक हीरो के रूप में मुझे राजकपूर से कहीं अधिक दिलीप जी पसंद थे, पर एक फिल्मकार की हैसियत से राजकपूर की अपनी जगह थी... उनकी फ़िल्में आज के युग में भी उतनी ही प्रासंगिक लगती हैं...गरीबी, बेरोजगारी, लाचारी को दिखाते हुए भी आशावादिता से भरपूर हैं उनकी फ़िल्में.
आपकी पोस्ट अच्छी लगी, कुछ कमियां हैं फॉण्ट साइज़ ज्यादा बड़ा हो गया है और एक पैराग्राफ दो बार छप गया है...इसे ठीक कर लें.
निश्चित तौर पर राजकपूर की मौलिकता का कोई जबाब नहीं था..अच्छा आलेख..अगली कड़ी का इन्तजार.
@mukti
धन्यवाद मुक्ति, मगर वो फ़ॉण्ट साइज़ बीच में बड़ा किया है क्योंकि मुझे 'कोट्स' का प्रयोग आता नहीं है - और इसीलिए पैराग्राफ़ भी दुहराए लग रहे हैं - एक नहीं दो। कल दिन में देखकर ठीक कर लूँगा - मेरे घर के लैपटॉप पर इण्टरनेट एक्सप्लोरर नहीं चलता - ऑपेरा ब्राउज़र में ठीक ही दिख रहा है। शुक्रिया अपनत्व के साथ कमी को इंगित करने का।
और हाँ! राजकपूर तो बहाना हैं - निशाना तो मौलिकता और अन्य गुणों पर है जो हिन्दुस्तानी आदमी की पहचान बन गए थे - आगे भी इसी दिशा में लेख जाएँगे।
@Udan Tashtari
बहुत अच्छा लगा आप की टिप्पणी से - न जाने कहाँ ग़ायब थे आप! बज़पुरम को अयोध्या बना कर राम जाने कौन वन में 'जंगल में मंगल' मना रहे हैं, ब्लॉग में भी सूनापन है - पाण्डेय जी भी अस्वस्थ हैं - कुछ ज़्यादा ही ख़ालीपन था नेट पर इन दिनों।
आशा है आपसे यहाँ और वहाँ - बज़ में भेंट होती रहेगी।
बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट....
राजकपूर के किरदारों ज़मीनी थे. वे हवा में कुलांचे नहीं लगाने वाले थे. राजकपूर की बात ही निराली थी.
बहुत अच्छी लगी आपकी यह पोस्ट! अगली कड़ी का इंतजार है।
"जो आदमी साँप देख कर दुम दबा कर भाग जाए, तो उससे ज़्यादा आम हिन्दुस्तानी और क्या होगा...
इसलिये तो राजकपूर आज भी इतने ज़्यादा फेमस हैं ..मैंने पहले तीसरी कसम देखी और बाद में कहानी पर जब भी कहानी में "इस्स" आता तो हमेशा राजकपूर की तस्वीर ज़ेहन में तैर जाती....आजादी के बाद का वह दौर मेरे ख्याल से मौलिकता का ही
था...."
राजकपूर के चरित्रों के अधिक पास पाता हूँ स्वयं को इसलिये सुहाते भी बहुत हैं ।
गाने तो बहुतै दमदार हैं । एक श्रंखला उन पर भी ।
@प्रवीण पाण्डेय
अवश्य प्रवीण जी, मुझे तो ज़िन्दगी की छोटी-बड़ी समस्याओं के हल मिलते रहे हैं वहाँ। ज़रूर आएँगे गाने भी चर्चा में।
(और मुझे लग रहा है कि गुरु जी आए थे क्या यहाँ! जाने कैसे "कोट" जैसा हो गया है - और कोई तो कर नहीं सकता। अब उनको क्या और कैसा धन्यवाद - ये तो सब है ही उन्हीं की लगाई रामनवमी।)
:)
कुछ दिनों पहले मैं रोमानिया गया था| कई लोग मिले, जो राज कपूर को बहुत चाहते थे |
उनके जैसा फिल्मकार विरले ही पैदा होते हैं | मुझे वे एक निर्देशक के रूप में कहीं अधिक पसंद हैं |
राजकपूर !!
बस नाम ही काफी है.
हर रूप में हर किरदार में घुल जाते रहे हमेशा ही.
आपने बिलकुल ही सही मूल्यांकन किया है.
एक अन्य किरदार भी बहुत ही प्रभावित करता है, वह हैं देवानन्द.
Raj kapoor ji is indeed a wonderful actor. Graceful and down to earth. I cried a lot while watching his - 'Mera naam joker'.
संगम मे राजकपूर सहानुभूति ले गये यह निर्देशक का कमाल है ।
पोस्ट के बारे में सारी पोस्ट्स पढ़ने के बाद टिप्पणी लिखूंगा, उससे पहले आपकी समस्या का समाधान बता रहा हूँ।
यह पोस्ट देखिए
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