साथी

Friday, April 9, 2010

मेरे मित्र : भूपेन्द्र सिँह


मेरे बरसोँ पुराने सखा भूपेँद्र, जिनसे शीघ्र ही आपको परिचित कराऊँगा। ठाकुर साहब मेँ ठकुरैती नहीँ मिलेगी, सहृदयता मेँ संतोँ को भी पीछे छोड़ देँ। समझ विद्वानोँ की और भोलापन बच्चोँ सा। लगन और नफ़ासत लखनऊ की, फक्कड़ी इलाहाबाद की, निवास मुंबई का और दिल मेँ प्यार सारे जहाँ का।

हमने हर शै कभी-कभी बेची (ग़ज़ल)

हमने सर बेचा कलम भी बेची
नौकरी क्या की-हर ख़ुशी बेची

लोग आवाज़ बेच देते हैं
हमने चुप रहके ख़ामुशी बेची

कलाकारों ने ज़िन्दगी बेची
बीमाकारों ने मौत भी बेची

बेचने वालों ने बेची दुनिया
और परलोक की गली बेची

दर्द बेचा हो या हँसी बेची
हमने हर शै कभी-कभी बेची

दोस्ती-सच-वफ़ा-ईमान-ख़ुलूस
दर्द-राहत-अना सभी बेची

बेचने से अगर बचा कुछ तो
हमने वो चीज़ क्यूँ नहीं बेची

Wednesday, April 7, 2010

नई रचना संगम तीरे पर

नई रचनाएँ http://sangam-teere.blogspot.com पर ही लगातार आती रहेंगी, जैसे अभी चल रहा है।

Tuesday, April 6, 2010

वफ़ाओं का भरम है (ग़ज़ल) : समर्पित पंकज 'सुबीर' के नाम

समझ दुनिया की कम है
लहू अब तक गरम है

व्यथा उनकी अनूठी
ख़ुदाई का वहम है

यही बस एक ग़म है
अकारथ सा जनम है

मिलन की हर कथा में
मेरा संदर्भ कम है

सुबह से ही उदासी-
उजाला है कि तम है

वफ़ाओं का भरम है
इनायत है, सितम है

तेरी ज़ुल्फ़ों से ज़्यादह
ज़ुबाँ में पेचो-ख़म है

अजब दर्दो-अलम है
सुकूँ से नाकों-दम है

भरी-पूरी है दुनिया
मगर कुछ है जो कम है

हँसे हम आज इतना-
अभी तक आँख नम है

शिकायत है न शिक्वा
फ़कत झूठी कसम है

ग़रीबों को ख़ुशी पर
अभी विश्वास कम है

करे ख़ुश्बू को बेघर
हवा भी बेरहम है

किसी आँसू को पोंछो
धरम का ये मरम है
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नवें शे'र का थोड़ी हेराफेरी से चमत्कार देखिए - 
उधर कुछ है जो कम है
इधर जो कुछ है कम है

या
उधर कुछ-कुछ है कम-कम
इधर जो-जो है कम है

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ये ग़ज़ल मैंने श्री पंकज 'सुबीर' को, उनकी ग़ज़ल सेवाओं से अभिभूत होकर सस्नेह समर्पित की है, सद्भावनाओं और शुभेच्छाओं सहित

Monday, April 5, 2010

ब्लॉगियाने की बीमारी

ब्लॉगियाना एक बीमारी है। स्वाइन फ़्लू से भी बड़ी।
स्वाइन फ़्लू से डरने का नहीं, लड़ने का। सफ़ाई रखने से आप इसे रोक सकते हैं।
ब्लॉगियों से लड़ने का नहीं, डरने का। लड़ने की कोशिश करी तो यही बूँक देंगे।
एच आई वी की जाँच होती है, एड्स का दिवस मनाया जाता है। ब्लॉगियाने में बड़ी आँच होती है और दिवस ये जब चाहे मना लेते हैं।
बाकी लोग साल में एकाध बार होली-ईद मिलन करते हैं, ब्लॉगिये जब देखो तब, जहाँ देखो तहाँ मिलन करते रहते हैं।
छूने से एड्स नहीं फैलता, प्यार फैलता है; ब्लॉगियाने की बीमारी बिना छुए भी फैलती है। और फैलने की गति भी कितनी – प्रकाश की गति से – इलेक्ट्रॉन की गति से।
मन का मैल साफ़ करना आसान नहीं, मगर मेल से ब्लॉगिया देना बहुत ही आसान है।
दरअसल भारत की जनता मरी जा रही है कि कोई तो सुने उसकी। जिसे देखो, जहाँ देखो, बतियाने को तैयार खड़ा है। बोलने को, नारे लगाने को, शिकायत करने को। कोई जब नहीं सुनता तो भगवान को सुना लेते हैं। चिल्ला-चिल्ला कर, गा-गा कर। रात-रात भर जगा कर। जो इस सबसे भी शान्ति नहीं पाते वो ब्लॉगियाने लगते हैं। 
पर यह रोग अब दुनिया भर में बुरी तरह फैल चुका है।
दर-अस्ल अपनी शान्ति पाने के लिए ज़रूरी है कि दूसरों को शान्ति न मिलने दी जाए।
इसीलिए, ब्लॉगियाने वाले दूसरे का लिखा पढ़ते नहीं मगर टिप्पणी ज़रूर देते हैं, वर्ना उनको ख़ुद टिप्पणी कैसे मिलेगी। और अगर एक संत-महंत ने अपनी टिप्पणी दी तो बाक़ी भी हुआ-हुआ करके अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगते हैं। "…तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं" के अन्दाज़ में।
टिप्पणी को आप ब्लॉगियों का रक्तदान ही समझिए।
आम तौर पर ये हिंसक नहीं होते। धरना-प्रदर्शन भी नहीं करते। किसी बात पर बहस करना तो इन्हें स्वीकार ही नहीं होता। इस तरह की फ़िज़ूल बातों में वक़्त ज़ाया नहीं करते। अगर इतना ही अवसर मिले तो एक पोस्ट और लिखना पसन्द करते हैं ये।
इस बीमारी के दौरे सिर्फ़ तब तक रुके रहते हैं जब तक ये ब्लॉगर मीट में शामिल रहें। ख़तरनाक स्टेज आने पर ये कहीं से भी, मोबाइल से भी फ़ोटो, टिप्पणी, वीडियो, ऑडियो की ठेला-ठाली मचाए रहते हैं।
घर वालों की नज़र में तो उन्हें जैसे कोई नज़र ही लगी होती है। घर पर लोग समझने लगते हैं कि इस आदमी से अब कोई उम्मीद रखना बेकार है। बाहर वाले भी खूब समझते हैं ब्लॉगियों को कि कोई काम निकालना हो इस आदमी से तो लगतार चार-पाँच दिन रोज़ाना एक-दो टिप्पणी गेर दो, फिर काम कहो- उम्मीद रखो, हो जाएगा।
ज़बानी तारीफ़ की ये "कॉग्निज़ेंस" नहीं लेते।
"जो ब्लॉग पर ही ना दिखे, फिर वो टिप्पणी क्या है?"
टिप्पणी में ये अच्छा-बुरा, अपना-पराया नहीं देखते। गिनती करते हैं। सिर्फ़ "लाजवाब", "उत्तम", "बेहतरीन", "आभार" या फिर "nice " भी चलेगा।
आप समझ तो रहे हैं न?

अपेक्षाएँ : ब्लॉगरी से और संचार माध्यमों से

अपनी पढ़ी पुस्तकों में से जिन पुस्तकों को मैं सबसे ज़्यादा प्रभावकारी मानता हूँ, उनके नाम लिखने चाहे, याददाश्त के आधार पर तो ये नाम याद आए-
अनलिमिटेड पॉवर (अन्थोनी रॉबिन्सन), सर्वाइवल ऑफ़ द सिकेस्ट (डॉ0 शैरोन मोलेम और जोनाथन प्रिंस), राग दरबारी (श्रीलाल शुक्ल), ब्लिंक (मैल्कम ग्लैडवेल)…कि अचानक ठिठक गई मेरी कलम। क्या भारतीय भाषाओं में चमत्कारी पुस्तकों का टोटा है? या फिर भारतीय नॉन-फ़िक्शन लेखन में पीछे हैं?


खोज-परक या विश्लेषण-परक पुस्तकें या लेख भी विश्वस्तरीय नहीं मिलते मुझे भारतीय लेखकों के। हो सकता है मेरी जानकारी, मेरा परिदृश्य का मूल्यांकन वास्तविकता से परे हो, मगर अंग्रेज़ी को छोड़ अन्य भारतीय भाषाओं में तकनीकी दृष्टि सहित तथ्यपरक लेखन भी कम ही दिखता है।


यह तो भला हो ब्लॉगरी का जिसने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नए आयाम दिए हैं। छ्पास और व्यावसायिक लेखन से परे यह एक ऐसा पटल भी है जो उन्हें सीधे जनता से जुड़ने दे रहा है जिनके पास जानकारी है, जज़्बा है मगर संसाधन कम हैं, ख़ासकर समय।


एक औसत अच्छे लेख या पुस्तक से जो शोहरत या आमदनी मिल सकती है, उसके प्रति ज़्यादा रुझान नहीं ऐसे लेखकों का क्योंकि उनमें से कई उससे ज़्यादा पहले ही कमा रहे हैं। उन्हें प्रेरित करती है ब्लॉगरी की चुनौती, यहाँ अपना योगदान देने को, ख़ुद को आज़माने और हिट हो जाने को। ब्लॉगरी का एक अहम् कारण अपने को अपने जैसी सोच के लोगों से जोड़ने और एक सामाजिक समूह बनाने की भावना भी है, मगर चर्चा यहाँ लेखन पर है, ब्लॉगरी के कारणों पर नहीं।


यह चुनौती है सीधे प्रतिक्रिया झेलने की। जैसे स्टेज की चुनौती फ़िल्म से अलग तरह की है, यहाँ कीचुनौती स्टेज से भी बड़ी है।


ऐसे समझें कि फ़िल्म में आपको बार-बार दुहराव के बाद भी आपका सर्वोत्तम एक बार तैयार करना और संपादित करना सुलभ है, स्टेज पर आप उसी नाटक को अगली प्रस्तुति के लिए हर दुहराव के साथ तो बेहतर कर सकते हैं, पर अभी तो जैसा भी परफ़ॉरमेंस दिया, उसी के अनुसार प्रतिक्रिया मिलेगी और आकलन होगा। अगर सर्कस से तुलना करें तो वहाँ जैसे ही आपके आइटमों का नयापन ख़त्म हुआ, आपको अपना डेरा-तंबू उखाड़ कर नए दर्शक तलाशने पड़ते हैं। स्टेज इसीलिए 'खेल' की तरह है और नाटक 'खेला' जाता है, सिनेमा या सर्कस 'खेले' नहीं जाते।


यहाँ ब्लॉगरी में आपको गुणवत्ता बनाए रखकर, सतत रचनाशील रहना पड़ता है और दुहराव की गुंजाइश 'न' के बराबर होती है। प्रतिक्रिया तुरन्त और आप कठघरे में। दुहराव 'न' कर पाना इसे स्टेज से अलग - सर्कस के गुण बख़्शता है।


जो बपुरा बूड़न डरा - सो क्या ब्लॉगरी करेगा? मगर साथ ही जो बात आपने ब्लॉगरी मंच पर कही 'इधर', 'उधर' वह तुरन्त ही प्रसारित हो गई, द्विपक्षी वार्तालाप के लिए। जनमत संग्रह, जनमत विवेचना और जनमत अनुकूलन के लिए यह ग़ज़ब का प्रभावशाली माध्यम है। इसीलिए मुझे ब्लॉगरी से उम्मीद है कि चमत्कारी लेखन की भारतीय भाषाओं में कमी को यही ब्लॉगर दूर करेंगे।


इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यम जो आपके समय और सुविधा से समझौता करके आपके दरवाज़े ही नहीं, आपकी मेज़ (डेस्कटॉप), आपकी गोद (लैपटॉप) हथेली (पामटॉप) से होता हुआ आपकी जेब तक आ घुसा है (मोबाइल सेलफ़ोन पर) वह है ब्लॉग। आप अपनी सुविधा से कहें (या लिखें, वीडियो/ ऑडियो/ चित्र भेजें), मैं अपनी सुविधा से पढ़ूँगा या देखूँगा और अपनी प्रतिक्रिया दूँगा।


अभी भी इसकी पूरी शक्ति का दोहन तो क्या, दशांश भी उपयोग नहीं कर पा रहे हैं हम। फ़िल्म, राजनीति ही नहीं, विक्रयशील हर चीज़ या बात को आना होगा सीधे जुड़ने के लिए, अपने लक्ष्यगत उपभोक्ताओं के पास।


मुझे तो लगता है कि अगले चरण में, जो बहुत दूर या देर से नहीं होगा, टाटास्काई या अन्य डिश-टीवी जैसी डायरेक्ट-टू-होम सेवाओं को अपने 'प्लस' वर्शन में एक-आध 'प्लस' और जोड़ कर आना होगा अपनी एक्टिव सेवाओं में ब्लॉग भी जोड़ कर। जब ब्लॉग पर जाने के लिए आपको मोबाइल, लैपटॉप की नहीं, सिर्फ़ अपने डिश-टी-वी रिमोट भर की ज़रूरत पड़ेगी।


इस सूचना क्रांति के युग में आप मुझे देरी के लिए माफ़ कीजिएगा अगर आप जब यह ब्लॉग पढ़ रहे हों तब तक ऐसी सेवाएँ शुरू भी हो गई हों।

Sunday, April 4, 2010

मनोरंजन


डिश जिस घर की छत पर लगी है उसी के प्रयोग मेँ है ये मेरी गवाही। घर की शक्ल से समझा जा सकता है कि मनोरंजन और सूचना की क्या प्राथमिकता है जीवन मेँ आज।
शायद कोई ब्लागिया भी रहता हो यहाँ!

बबूल के फूल

अम्माँ का परसा खाना (वादे के मुताबिक अमिया वाली ग़ज़ल)

जो बौराते उनको अक्सर फलना पड़ता है
मीठी अमिया भी पहले खट्टी ही फलती है

चूल्हे पर जब अमिया वाली दाल उबलती है
अम्माँ के परसे को भूखी जीभ मचलती है
दूर-देस कोई अपनी माटी का मिल जाए 
बातों से फिर देखो कैसे बात निकलती है

चातक ने तो प्राण दे दिये प्यासे रह-रह कर
बादल पूछ रहे हैं बोलो किसकी गलती है

दिल की दूरी मुस्काते होंठों से क्या कम हो
लोगों को ख़ुद उनकी ये हुशियारी छलती है

शाम ढले यादों-यादों ख़ुश रहता है बचपन
फिर धीरे से उम्र सरीखी रैना ढलती है

मिले-हँसे-बोले-शर्माए जब-जब तुम ऐसे
क्या बतलाएँ कैसे नीयत-नज़र सँभलती है

इधर हमें भी चैन नहीं दिन-रैन कभी पल भर
छाया उस छत पर भी यारो रोज़ टहलती है

महफ़िल में सूनेपन के हंगामे बरपा हैं
तन्हाई से अपनेपन की ख़ुश्बू मिलती है

हमने क्या ऐसे ही तुमको दर्द सुनाए हैं
दर्दे-दिल की बात कहीं ग़ैरों से चलती है

बात वही जो कहनी थी तुमसे पहले दिन से
और बहुत कुछ बोले बस वो चर्चा टलती है

फलने पर डण्डे मिलते - दस्तूर पुराना है
सबकी अपनी-अपनी नीयत, कहाँ बदलती है


और ये शे'र दुमछ्ल्ले की तरह - 
महिला आरक्षण के दिन से मौसम भी बदला
भौंहें ताने नाक चढ़ाए धूप निकलती है

प्रोफ़ाइल में लगा दिया तन्वंगी का फ़ोटो
चिट्ठों पर अब अपनी चर्चा अक्सर चलती है