यथासंभव यह ब्लॉग हिन्दी में, हिन्दी हेतु रहेगा। सर्च इंजनों या अन्य तकनीकी कारणों से कुछ कोटि-शब्द अंग्रेज़ी में भी हो सकते हैं। मूलत: यह एक इलाहाबादी ब्लॉग है उस संगम के तीर(तट) से, जिसमें पवित्र नदियों गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती का मिलन होता है जो यहाँ की साहित्यिक-सांस्कृतिक अन्तर्धारा में प्रवाहित है।
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Friday, July 23, 2010
कहानी लेखन चर्चा : दो आदमी
आज मेरा मन कहानी लिखने का कर रहा है।
कोई अच्छा लेखक या लेखिका अच्छी कहानी लिखने के गुर बताएगा क्या? नहीं सीखना नहीं है। बस कोई बता दे - तो बाद में हम ये कह सकें कि अरे ये तो हमें पहले से ही आता है।
हम बताएँ?
सुनिए-
1-अंत सुखान्त होना चाहिए।
"अबे शुरू ही अंत से करेगा क्या उल्टी खोपड़ी?"
"आप कौन?"
"मैं तुम्हारे अन्दर का दूसरा आदमी हूँ। अन्तरात्मा की आवाज़"
" मेरा मतलब है कि अपने लक्ष्य के बारे में पहले से ही सुनिश्चित रहना चाहिए न! वर्ना भटकने का बहुत अंदेशा रहता है।"
"अच्छा आगे चलो"
2-वर्तनी की त्रुटियाँ नहीं होनी चाहिए।
"ये तो सारे लेखन पर लागू होता है।"
3-शुरुआत अच्छी होनी चाहिए।
"काहे नहीं!"
4-बहुत बोझिल और उपदेश से भरी कथा न हो। बहुत हल्के स्तर की भी न हो। उथलापन न झलके।
"तो?"
5-पात्र अपने आस-पास के हों, पाठकों को अपने आस-पास के लोग, जीवन और रोज़मर्रा की समस्याओं और भावनाओं की झलक मिलनी चाहिए।
"हूँ।"
6-आजकल पुरानी मान्यताएँ टूट रही हैं, वर्जनाएँ भी शिथिल हो रही हैं। कुछ नयापन हो।
"हम समझ गए।"
"क्या?"
"कि तुमको कुछ आता-जाता नहीं है"
"वो क्यों?"
"आता होता तो सिखाते काहे? खुदै न लिख लेते?"
बड़ी ख़राब बात है। यानी मैं अपने ही आगे निरुत्तर हो गया।
वैसे नि:दक्षिण हो जाता तो और ख़राब होता। दान से ज़्यादा दक्षिणा पर ध्यान देते हैं गुणीजन।
मगर ताव आ गया, सो हमने भी सोचा कि अब कहानी लिख के ही दिखाते हैं। लोग हनुमान जी को तंग करते हैं, कभी रचना सिखाने के लिए, कभी राम जी से मिलाने के लिए, हमारे अन्दर तो अन्तरात्मा की आवाज़ बोली है। बहरहाल हम अब लिख के ही मानेंगे।
हमने कहानी शुरू कर दी फिर …
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"एक बार की बात है …"
"इसमें बहुत पुरानापन है"
"तो क्या करूँ? नयापन कैसे लाऊँ?? ये कहूँ कि दो बार की बात है…??? "
"नहीं वो बात नहीं है"
"तो फिर क्या बात है?"
"मतलब कोई बच्चों को थोड़े ही सुना रहे हो कहानी"
"और बड़ा कौन है यहाँ?"
"ये मत पूछो"
"क्यों?"
"पिट जाओगे"
"क्यों? कौन पीटेगा? और क्यों पीटेगा?"
"अरे तुम समझते नहीं हो, ब्लॉग-जगत में बहुत सेंसिटिव हो जाते हैं लोग, बड़े-छोटे के सवाल पर। सेंसिटिव समझते हो न? "
"ये कैसे समझ लिया कि ब्लॉग पर ही लिखूँगा?"
"ब्लॉग के अलावा लिखने की तुम्हारी औक़ात है क्या?"
अब तक मैं छ्क भी गया था और पक भी गया था, अपने अन्दर के इस दूसरे आदमी से। कम्बख़्त तब से टोके जा रहा है - कुछ करने ही नहीं देता। सो रहा नहीं गया, और बोल पड़ा-
"अबे ओऽऽऽ"
"क्या है भाई? इतना ग़ुस्सा किसलिए?"
"मैं बहुत देर से सह रहा हूँ तुझे। अब अपनी बक-बक बन्द कर"
"ये आप ठीक से नहीं कह सकते? आख़िर मैं भी "तुम" ही तो हूँ!"
"हद है! पीछे ही पड़ गया है तू। अबे ओ शरद कोकास के दूसरे आदमी, तुझे मेरे ही अन्दर घुसना था? अब चुप मार के बैठ। तू मुझे नहीं जानता मैं कौन हूँ"
"मुझे जानना भी नहीं है। ये तो शरद भाई ने तुम लोगों की भलाई सोची जो केदारनाथ सिंह जी के दो आदमी बुलाए। अगर निदा फ़ाज़ली को बुला लेते तब क्या करते तुम?"
"मतलब?"
"मतलब वो निदा फ़ाज़ली ने कहा है न-
'हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी
जिसको भी देखना तो कई बार देखना' "
"धमकी दे रहा है अपने आदमियों की?"
"न मैं धमकी नहीं दे रहा, बस अभिभूत हो रहा हूँ"
"अब चुप कर तू - मैं उभरता हुआ सबसे बड़ा ब्लॉगर तो हूँ ही, सबसे बड़ा कहानीकार भी हूँ। तेरा अभी-भूत यहीं हो जाएगा - एनकाउण्टर!"
"अब आप धमकी दे रहे हैं"
"मैं तो सिर्फ़ अर्ज़ कर रहा हूँ। सब सोच लिया है मैंने - देख! एक तो मैं हर दस दिन में लिख दिया करूँगा - फिर ख़ुद केवल टिप्पणियाँ बाँटना (अबे रेवड़ी नहीं - टिप्पड़ी, धत् टिप्पणी) और अभिभूत होना। फिर और जब मौका मिले तो मौज लेना, सीमा तय किये बिना।
जब कहीं लगे कि गलती हो गई तो बिना शर्त माफ़ी माँग लेना। फिर ब्लॉगिंग के 101 सिद्धान्त जारी करूँगा, जो सबको याद होने चाहिए। कमेण्ट देने के लिए "सिद्धान्त वेरीफ़िकेशन" लागू करवा दूँगा। इससे ज़्यादा क्या आरज़ू हो सकती है किसी की ब्लॉग-जगत में? इतना तो तीन जने मिल कर भी नहीं कर पाते। हम तो सिर्फ़ दो हैं।"
"और वो कहानी लिखना?"
"अमें यार कहानी तो मैं ख़ुद बन जाऊँगा! लोग लिखेंगे मुझ पर। शोध-प्रबन्ध प्रकाशित होंगे, जाने क्या-क्या!"
"और बाक़ी लोग?"
"वो बड़े बन चुके - अब वो और ऊपर थोड़ा ही जा सकते हैं - न्यूटन ने बताया था न, हर ऊपर जाने वाली चीज़ एक लिमिट के बाद नीचे को आती है?
"सो तो है, मगर क्या पता न्यूटन अगर ग़लत निकला तो? वैसे भी पुरानी बात हो गयी - उसके ज़माने में ब्लॉग-श्लॉग होते थे क्या?"
"अगर ग़लत निकला तो इस खोज का श्रेय ले लेंगे हम। लेकिन अगर न्यूटन सही निकला - तो? बड़ी चिन्ता हो रही है हमें अब तो न्यूटन जी की।"
"अब तो लगता है तुम वाकई श्रेष्ठ हो गए"
"अच्छा! कैसे भला?"
"अरे अब तुम्हें भी तो चिन्ता होने लगी है…"
सो हमारी कहानी अभी चिन्ता के घेरे में आ गयी है, ज़रा चिन्तन कर लें फिर कहानी लिखते हैं।
"ए रामसुमेर भाई! चाय बन गयी क्या? अब चाय पी लें तो ज़रा ठीक से चिन्ता की जाय…"
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