साथी

Saturday, June 19, 2010

गौरैया

एक गौरैया मिली दालान में

दुपहरी में चहकती-चुगती हुई
घोंसले के चन्द तिनके, ले चिड़ा
इधर फुदका-उधर फुदका - ले उड़ा
और गौरैया,
फुदकती रही इठलाती हुई
एक गौरैया मिली दालान में...


धूप में, फिर छाँह में-
फिर धूप में जाती हुई
क्या कहूँ? कितने न जाने-भाव दिखलाती हुई
ज़िन्दगी हर पल फुदकते हुए जी जाती हुई
द्वेष सा कुछ भी न लेकर ध्यान में
एक गौरैया मिली दालान में ...

Thursday, June 17, 2010

राज कपूर और चार्ली चैप्लिन



राज कपूर की प्रेरणा के रूप में चार्ली चैप्लिन का नाम अक्सर लिया जाता है, मगर राज कपूर की वैश्विक सफलता और लोकप्रियता का कारण उनकी मौलिकता ही थी। राज कपूर ने चार्ली चैप्लिन से प्रेरणा अवश्य ली, पहनावे और अदाओं में यथेष्ट नकल भी की, परन्तु नकल तक सीमित नहीं रहे।चार्ली की मासूमियत और पीड़ा से लबरेज़ हास्य-व्यंग्य की परिस्थितियों को गढ़ सकने की क्षमता को राज कपूर ने हिन्दुस्तानी परिवेश में ऐसा ढाला कि विदेशी संस्कृति और परिप्रेक्ष्य ओझल हो गए दृष्टि-पटल से, सामने रह गया हिन्दुस्तानी युवा, जो अपने सपनों-इच्छाओं के पीछे भागना तो चाहता था, मगर साथ ही उसे ये भौतिक उपलब्धियाँ अपनी नैतिकता और सीधेपन को गँवाने की क़ीमत पर नहीं मंज़ूर थीं।
चार्ली का चरित्र पाश्चात्य पृष्ठभूमि में, अपने देश-काल-वातावरण से जितना जुड़ा था, उससे उसका थोड़ा सा चालबाज़ होना भी तय था। ऐसा ही दिखता भी है उनकी फ़िल्मों में।
इधर राज कपूर के चरित्र चाहे सीधे-सादे गाँव वाले के हों, चाहे मुम्बइया चॉल-वासी स्मार्ट युवा के, वह एक ऐसा आम हिन्दुस्तानी था कि सीधा-पन और अपने सामाजिक-भावनात्मक मूल्यों के प्रति उसका लगाव छ्लकता था उसकी आँखों-बातों से और उसके किसी कठिन परिस्थिति में पड़ने पर लिए जाने वाले निर्णय से। उसका निर्णय हमेशा आशावाद से भरा और मानवता की जीत का होता था, भले ही व्यक्तिगत हार या तात्कालिक नुक्सान अवश्यम्भावी हो।
 राज जी ने एक ऐसे नायक को जिया जो सुपरमैन नहीं था, जिसे अपनी थाती, मूल्यों और ज़मीन से प्यार था। जो दस-बीस आदमियों को पीट नहीं पाता था, लेकिन 'सही' के पक्ष में रह कर पिट जाने से क़दम पीछे भी नहीं करता था। यही हिन्दुस्तानी की पहचान बन गयी विश्व में।
एक ऐसा आदमी जो चाहे पाकेट मारे, चोरी करे, आवारा हो लेकिन हर हाल में दर्शकों की सहानुभूति का पात्र बना रहे और उनका दिल जीत ले, हीरोइन का दिल जीतना उस दर्शकों के दिल को जीतने के सामने तो बहुत तुच्छ और सामान्य घटना होती थी। या यों कहिए कि ऐसा चित्रण होता था उस नायक का कि नायिका जब तक उस पर अपने प्यार को न्योछावर न कर दे, तब तक उसको दर्शक अच्छी और सम्मानजनक नज़रों से नहीं देख पाते थे, क्योंकि वह आदमी होता ही था इतना अच्छा और दिल के क़रीब।
अपनी इसी पहचान को एक आम 'हिन्दुस्तानी' की छवि से सफलतापूर्वक जोड़ कर, राज जी ने एक ऐसे नायक को जिया जो सुपरमैन नहीं था, जिसे अपनी थाती, मूल्यों और ज़मीन से प्यार था। जो दस-बीस आदमियों को पीट नहीं पाता था, लेकिन 'सही' के पक्ष में रह कर पिट जाने से क़दम पीछे भी नहीं करता था।
एक ऐसा आदमी जो चाहे पाकेट मारे, चोरी करे, आवारा हो लेकिन हर हाल में दर्शकों की सहानुभूति का पात्र बना रहे और उनका दिल जीत ले, हीरोइन का दिल जीतना उस दर्शकों के दिल को जीतने के सामने तो बहुत तुच्छ और सामान्य घटना होती थी।
ऐसी सहानुभूति जुटाना सबके लिए सुलभ नहीं था, और यहाँ तक कि जब "संगम" में राजकपूर का चरित्र अपनी सीधी-सच्ची खिलंदड़ेपन से जुड़ी मुहब्बत लुटाता है नायिका पर, जो पहले ही अन्य नायक (राजेन्द्रकुमार) की मुहब्बत में गिरफ़्तार है, तो प्रचलन के अनुसार देखें तो राजकपूर को दो के बीच आने वाला तीसरा बनना चाहिए था, मगर सहानुभूति दर्शकों की उन्हीं के साथ रहती है; लोग नायिका पर और पहले नायक पर कुढ़ते हैं कथानक के हर नए विस्तार के साथ कि ये लोग इसे (राजकपूर को) सब साफ़-साफ़ बताते क्यों नहीं, धोखा क्यों दे रहे हैं इसे? यानी जो "तीसरा" बनने वाला था 'दो' के बीच, वही बेचारा है, सहानुभूति उसी के साथ है!
(क्रमश:)