देव साहब के जन्म माह - सितम्बर में - उनका जन्मदिन तो हालाँकि 26 सितम्बर को आएगा जब वे 87 वर्ष पूरे करेंगे, मगर मैं अपनी शुभकामनाएँ देव आनन्द साहब को इस पूरे महीने देते रहने के लिए, आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर ही यह पोस्ट प्रेषित कर रहा हूँ, सादर। इस सदाबहार नौजवान के लिए महीना भी कम है शायद………
देव आनन्द के नाम से ही रूमानी हो जाने की शुरूआत हो जाती है। जिन्होंने उन्हें देखा - जवानी* में, वो मानेंगे कि देव साहब का स्क्रीन पर आना एक ताज़ा हवा के झोंके का आना होता था - जिसमें मदहोश कर देने वाली ख़ुश्बू और ताज़ा ओस जैसी मासूमियत भरी ताज़गी होती थी।वो जिस रूमान की सृष्टि करते थे - उसे महसूसा और जिया जा सकता था - कम से कम ख़ाबों में तो ज़रूर हर कोई जीता था उसे। उनकी फ़िल्में देखना अपने आप में एक हिल स्टेशन की सैर जैसी ठण्डक देता था - और ताज़ा-दम कर देता था कि आ ज़िन्दगी - तुझसे थोड़ा और प्यार करें - जैसी भी है - अच्छी है और बेहद प्यारी है तू !
शायद इसीलिए देव साहब की आत्मकथा का शीर्षक भी 'रोमान्सिंग विद् लाइफ़' है। वाकई ये शख़्सियत एक जीता - जागता ख़्वाब ही है अपने आप में - जो हमेशा रूमान में ही जिया और रूमान ही बुनता रहा।
देव साहब का प्रथम निर्देशन |
एक फ़िल्मकार के तौर पर देव साहब की सोच हमेशा वक़्त से बीस-पच्चीस साल आगे ही रही। जब उन्होंने "देस-परदेस" बनाई तो जो समस्या उठाई ग़ैर-कानूनी प्रव्रजन की - वो हमने देश के तौर पर महसूस की तक़रीबन पच्चीस साल बाद।
जब नशाख़ोरी की समस्या उन्होंने उठाई - "हरे रामा हरे कृष्णा" में तो वो उस दौर की समस्या होते हुए भी हमें टकराई पन्द्रह साल बाद और विकराल हुई बीस साल बाद। देव आनन्द ने अहिंसा का सवाल उठा कर फ़िल्म पिटवा ली - "प्रेम-पुजारी" और वह नौबत अब विश्व के सामने खड़ी हुई आकर इक्कीसवीं सदी में - आतंकवादी चुनौती बनकर।
गवर्नमेण्ट कॉलेज लाहौर से अंग्रेज़ी साहित्य का यह स्नातक न केवल अपने दौर के - बल्कि हिन्दी सिने उद्योग के कुछ गिने-चुने सर्वकालीन उच्च शिक्षित और सुसंस्कृत स्टार-कलाकारों में से एक है - और उन उँगलियों पर गिने जा सकने योग्य चन्द स्टारों में से एक - जो जीते जी मिथक बन गए।
देव साहब के बारे में जानकारी विकिपीडिया पर भी उपलब्ध है और ढेरों अन्य ब्लॉगों पर भी, बहुत कुछ दोहराए जाने का डर होते हुए भी उनके बारे में लिखना-बात करना भी ताज़गी देता है - और उनकी नकल उतारना भी।
किशोर-जिनका फ़िल्मी कैरियर देव साहब की नक़ल ही रहा... |
उनकी शिक्षा और भारत की आज़ादी के समय की नौजवानी से मिली राजनैतिक जागरूकता ने ही शायद उन्हें उकसाया कि वे श्रीमती गान्धी के आपात्काल का विरोध करें - और उन्होंने एक नेशनल पार्टी भी बना डाली थी उन दिनों।
उस वक़्त जब बड़े-बड़ों की सिट्टी-पिट्टी गुम थी और खुले क्या - छिपे तौर पर भी कोई श्रीमती गान्धी के विरोध में सामने आने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था - सिर्फ़ किशोरकुमार, आईएसजौहर और शत्रुघ्न सिन्हा के अलावा!
बाद में तो हाथी के निकल जाने पर बहुत से शेर फिर से गुर्राने-दहाड़ने लगे…
आर0के0नारायण हों या पर्ल एस0 बक, उनकी पसन्द हमेशा उम्दा रही - फ़िल्मकारों में गुरुदत्त से उनकी मित्रता ने न केवल उम्दा फ़िल्में ही दीं बल्कि और भी कई गुल खिलाए।
देव साहब की साहित्य-संगीत की गहरी समझ से ही जुड़ी रहीं उनकी कुछ ख़ास मित्रताएँ - सचिनदेव बर्मन से, राहुलदेवबर्मन से, किशोरकुमार से और साहिर लुध्यानवी से भी। हसरत जयपुरी और शैलेन्द्र से भी उनकी घनिष्ठता रही है। यह उनकी साहित्य की समझ ही थी जो 'नीरज' के गीतों का रस हम सिने-दर्शकों तक मधुर संगीत-रस में पगा हुआ आता रहा उनकी फ़िल्मों के रास्ते।
आज भारत के सर्वाधिक उच्च-तकनीक से सुसज्जित रिकार्डिंग स्टूडियोज़ में अग्रणी है "आनन्द रिकॉर्डिंग केन्द्र" जहाँ तकरीबन साढ़े तीन हज़ार से अधिक रिकार्डिंग - विश्वस्तरीय की जा चुकी हैं। यह भी देव साहब का ही एक प्रतिष्ठान है।
देव साहब की इसी बहु-आयामी प्रतिभा ने उन्हें पहले प्रोड्यूसर और फिर निर्माता-निर्देशक भी बनाया। 'गोल्डी' उर्फ़ विजय आनन्द और चेतन आनन्द जैसे भाइयों के साथ-साथ देव साहब ने न केवल नवकेतन बैनर को खड़ा किया बल्कि उसका परचम फ़हराते-लहराते भी रहे।
शेखर कपूर - देव आनंद के भांजे |
उनकी इन्हीं बहन के दोनों दामाद (शेखर कपूर जी के दोनों बहनोई) भी मशहूर फ़िल्मी कलाकार रहे हैं - नवीन निश्चल और परीक्षित साहनी (स्व० बलराज साहनी के सुपुत्र - अजय/परीक्षित साहनी)
देव साहब की ज़िन्दगी में 1948 - पहली हिट फ़िल्म 'ज़िद्दी', 1949 - जब उन्होंने नवकेतन बैनर खड़ा किया, 1952 - जब उन्होंने कल्पना कार्तिक से शादी की, 1956 - जब बेटा सुनील पैदा हुआ और 1958 - जब 'काला पानी' के लिए उन्हें बेस्ट एक्टर का अवार्ड पहली बार मिला - ख़ास रहे।
नवकेतन का प्रथम रंगीन चलचित्र |
'गाइड' देव साहब की 1965 में रिलीज़ पहली रंगीन फ़िल्म थी और आज भी सजग सिने-प्रेमियों की पसंदीदा सूची में ऊपर ही गिनी जाती है - राज कपूर की 'मेरा नाम जोकर' की तरह। 'गाइड' के लिए उन्हें दोबारा फ़िल्मफ़ेयर का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला 1966 में।
2000 में उन्हें श्रीमती हिलेरी क्लिंटन, तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति की पत्नी (अतएव यूएस की प्रथम महिला नागरिक) ने अमेरिका में सम्मानित किया, 2001 में 'पद्मभूषण' उपाधि प्रदान की गयी और इसके बाद उन्हें दादासाहेब फाल्के अवार्ड से भारत सरकार द्वारा सम्मानित किया गया।
पुरस्कार और उपाधि का मोहताज नहीं ये दीवाना - जिसके जैसा जीवन जिस किसी को भी मिल जाए - तो उसके लिए तो अपने आप में कुदरत का इनाम ही है ये जिंदगी समझो!
देव आनन्द साहब की आत्मकथा "रोमान्सिंग विद लाइफ़" के विमोचन की तस्वीरें |
उनकी आत्मकथा का महत्व और ज़िक्र इसलिए भी कि यह एक ईमानदार आत्मकथा है - जिसमें उन्होंने अपने सुरैया और जीनत अमान के प्रति लगाव को बेबाकी से स्वीकार किया है - आत्मश्लाघा से भरा स्व-यशोगान नहीं है यहाँ।
मेरी प्रेम-कहानियाँ! |
देव साहब की जोड़ियों में सुरैया से बात शुरू होती है और नूतन, वहीदा रहमान, वैजयन्तीमाला, तनुजा, मुम्ताज़, ज़ीनत अमान, हेमा मालिनी से होती हुई टीना मुनीम तक तो याद रहती है, फिर इसके बाद फ़िल्में हिट न होने से थोड़ा ज़ोर डालना पड़ता है याददाश्त पर।
उनकी खोजों में जैकी श्रॉफ़ का नाम भी आता है - ज़ीनत अमान, टीना मुनीम (अम्बानी) और तब्बू के अलावा। उनके द्वारा फिल्म-निर्माण के लगभग हर क्षेत्र में नयी प्रतिभाओं को अवसर दिया जता रहा है।
हम नौजवान |
और 87वें बरस में जब वे घोषणा करते हैं अपनी ही 1971 में निर्देशित-अभिनीत हिट 'हरे रामा हरे कृष्णा' का रि-मेक बनाने की, तो कोई शक़ कहाँ बाक़ी रह जाता है उनकी जवानी में!
अंतिम दो चित्र - 83 और 85 की उम्र में... |
ये अलग बात है कि जोश और जवानी उसी सिक्के के दूसरे पहलू हैं जिसके एक पहलू को लोग दुस्साहस या बेवकूफ़ी समझते रहे हैं - मगर कला को समर्पित कलाकार तो जुनूनी होता ही है।
और हाँ, जुनूँ में नफे-नुकसान का होश नहीं होता, क्योंकि होश में ऐसा जोश भी तो नहीं होता…!
भले ही 1978 में बनी देस-परदेस उनकी आख़िरी हिट फ़िल्म मानी जाती हो मगर उनके सारे काम में एक ताज़ा और अनोखी क्रिएटिविटी है - जो कभी-कभी भटकती लगती ज़रूर है - शायद एक और हिट की तलाश में - मगर असल में देव साहब इज़ स्टिल रोमान्सिंग विद लाइफ़ - और शायद लार्जर दैन लाइफ़ कैनवास पर…
रोमांसिंग विद लाइफ़... शुभ जन्मदिन, जन्म महीना देव साहब! |
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* {उस जवानी में जो बाक़ायदा क़ायम थी तब तक -जब तक कि उनकी हीरोइनें नानी - दादी बन गयी थीं और चाहने वालियाँ भी - और जो तब तक क़ायम रही जब तक कि उनके बाद की तीसरी पीढ़ी के नायक (अमिताभ बच्चन सहित) अपनी बढ़ती उम्र की दुहाई देकर नौजवानी के रोल करने से गुरेज़ करने लगे - जो तब तक भी क़ायम रही जब तक कि उनकी अदाओं को कॉमेडी का सामान नहीं बना लिया गया और वह भी देव साहब ने बिना किसी गुरेज़ के स्वीकार कर लिया - और जो ज़ेहनी तौर पर अभी भी अपने पूरे जवान जोश के साथ क़ायम है}
पुनश्च: ज़रा ऊपर लिखे नोट को देवसाहब की आवाज़ और अन्दाज़ में सुनने की कोशिश कीजिए…अलग तरह का मज़ा आएगा!
8 comments:
ultimate, ek chahnewale ka is se accha janmdin ka tohfa nahi ho sakta vo bhi advance me.
vakai.
aapne to dev sahab ki puri karm-gatha hi yahan yad kar li aur karwa di...
vakai devanand sahab ek aise kalakaar hain ( ishwar unhe aur bhi lambi umra de) jinke liye hi evergreen shabd ka upyog kiya jata hai....
बहुत अध्ययन उड़ेला है पोस्ट में। यही तो दीवानगी है। हम भी दीवाने हैं।
Kya badhiya post hai...Dev Anad ji mere bhi faverite hain. unke baare men padhkar achha lagaa.
All time fav..
कितनी मेहनत से लिखी है, आपने यह पोस्ट...देवानंद के प्रति आपका स्नेह और आदर भरपूर झलक रहा है...अच्छा हुआ मैने यह पोस्ट बुकमार्क कर ली थी और आज इत्मीनान से पढ़ी.
सुन्दर चित्रों के साथ उनके सफ़र की पूरी कहानी बहुत ही पसंद आई.
देवानंद इतने बड़े स्टार है,पर आज भी अजनबियों से बिना किसी नखरे के बात करते हैं. अभी हाल में ही मेरे बेटे ने कॉलेज फेस्टिवल के लिए उन्हें 'चीफ गेस्ट ' बनने के आग्रह के साथ फोन किया.(कॉलेज वाले सारे स्टार के फोन न. उपलब्ध करा देते हैं ) खुद उन्होंने ही फोन उठाया और बड़े sing-song, voice में कहा," Who is calling??" फिर विनम्रता से अपनी असमर्थता जताई कि वे अपनी फिल्म के पोस्ट प्रोडक्शन के कामो में बिजी हैं.नहीं आ सकते.
आज की पीढ़ी में भी अपने इस व्यवहार से उन्होंने, अपने लिए श्रद्धा जगा दी.
देवानंद से तो देवानंद ही हैं ! ...पर गाइड में उनसे ज्यादा दीवाना बनाया वहीदा जी ने !
वाह
प्रिय संजीत जी, प्रवीण जी, वीरेन्द्र जी, दिव्या जी, रश्मि जी, मास्साब, और सिद्धार्थ जी!
आप सबका धन्यवाद इस पोस्ट को सराहने के लिये।
मैं तब से यहाँ आया ही नहीं, आज सिद्धार्थ जी की टिप्पणी मेल से मिली तो उसी लिंक के सहारे चला आया, यह सोचते हुए कि आप भले ही लिख के भूल जाएँ, क़द्रदान होते रहे हैं और होते रहेंगे…
दिल से!
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