किशोर'दा : याद तो हमेशा आते रहते हैं, सो कैसे कहूँ कि आज ज़्यादा याद आए? मगर यह कह सकता हूँ कि आज मन किया कि उनके कुछ गीत सुनाऊँ चाहने वालों को - जो शायद उनके बहुत से प्रशंसकों ने भी सब न सुने हों, लेकिन जो बहुत हिट हैं वो तो सुने होंगे। सारे तो सिर्फ़ दीवानों ने ही सुन रखे होंगे, तो पहला बहुत हिट गीत 1969 की "ख़ामोशी" से - गुलज़ार के कलम से निकला हुआ…
और अब एक और हिट गीत "मुक़द्दर का सिकन्दर" से -
अमिताभ जी के जन्मदिन पर उन्हें बधाई देने का एक तरीक़ा भी है ये गीत। प्रकाश मेहरा के साथ जो उम्दा फ़िल्में अमित जी की रहीं - उनमें से एक मील का पत्थर है ये - डॉ0 लागू, मास्टर मयूर, क़ादर ख़ान हों या "दिलावर" के रूप में आशिक अमजद - कोई भी नहीं भूलता भुलाए - और ज़ोहरा-सिकन्दर की तो जोड़ी के कहने ही क्या? राखी के प्रति अपने इकतरफ़ा समर्पण भरे लगाव को सिकन्दर कभी खुलकर एक्सप्रेस नहीं कर पाया - मगर किशोरकुमार की आवाज़ में जो नहीं कहा - वो भी कहा गया… और फ़िल्म की थीम - "ज़िन्दगी तो बेवफ़ा है - एक दिन ठुकराएगी…" - वाह!
ये बात सबसे ज़्यादा क़ाबिले तारीफ़ होती थी सलीम-जावेद की कथा-पटकथा में कि हर कैरेक्टर पूरी तरह डेवलप हो पाता था - और इसीलिए दर्शक बहुत गहरे तक महसूसता था पूरी फ़िल्म को - उसकी कहानी की शिद्दत को। अब तो कई बार ऐसा लगता है कि पूरी फ़िल्म ख़त्म हो जाती है और हीरो का ही किरदार ठीक से समझ नहीं आता। घण्टे तो वही तीन या ढाई हैं - मगर अफ़रातफ़री बहुत है। और अफ़रातफ़री में सिर्फ़ कॉमेडी हो सकती है - जिसमें किशोर'दा का कोई सानी नहीं। तो "आँसू और मुस्कान" के इस खेल में किशोर'दा के साथ शामिल हो जाइये - गुणीजनों! भक्तजनों! -
और इस गीत को आप में से कुछ लोग हिन्दी का मज़ाक उड़ाने का ज़रिया भले ही समझ लें - पर सच यही है कि जिस उद्देश्य से रचा गया यह नमूना - उसमें पूरी तरह सफल है। मुझे अब भी यह लगता है कि किशोर'दा के अलावा कोई शायद इस गीत से न्याय न कर पाता - किशोर'दा अपने आप में एक स्कूल हैं - गाने की अदायगी के मामले में जैसे रफ़ी ने ग़म के गाने और नशे के गाने के बीच सिर्फ़ लहजे से फ़र्क करना सिखाया - जो गायकों की पूरी पीढ़ियों ने सीखा, वैसे ही मस्ती और मज़ाक, ग़म और फ़लसफ़े के बीच बारीक़ फ़र्क किया सिर्फ़ आवाज़ से - आवाज़ के जादूगर किशोर ने। वो चाहे शैलेन्द्र सिंह हों या उदित नारायण, सबने सीखा और अपनाया, अमित-अभिजीत-कुमारसानू-बाबुलसुप्रियो की बात नहीं करता - जो किशोर की अदायगी के किसी एक ख़ास रंग को अपना कर ही स्टार बन गए।
तो प्रणय निवेदन कीजिये - "प्रिय प्राणेश्वरी! हृदयेश्वरी!"
अब अगर आप को लगने लगा हो कि आपने ये सब गीत सुन-देख रखे हैं, तो आपके लिये ही प्रस्तुत है यह दुर्लभ गीत किशोर'दा का - "देस छुड़ाये,भेस छुड़ाये…"
फिर दो आसान - अक्सर सुने हुए गीत प्रस्तुत हैं। पहला तो - "अगर दिल हमारा, शीशे के बदले-पत्थर का होता…" (काश अपना तो हो ही जाता यार कम से कम…!) -
और दूसरा सदाबहार - "पल पल दिल के पास…"
और अब बताइये - क्या ये गीत भी देखा-सुना है आपने?
और फिर किशोर'दा को याद आ गया - अचानक - कि वो बंगाली छोकरे हैं -
और जब किशोर'दा को कुछ याद आ गया तो आप भी याद कर लें तो क्या हर्ज है? तो सुन कर देखिये- "आकाश केनो डाके"…कुछ याद आया?
और फ़िलहाल ज़्यादा नहीं पर एक बांग्ला गीत किशोरकुमार की सुमधुर आवाज़ में -
और अब चलते-चलते……
"हवाओं पे लिख दो - हवाओं के नाम…"
॥ संगम तीरे ॥ Sangam Teere
यथासंभव यह ब्लॉग हिन्दी में, हिन्दी हेतु रहेगा। सर्च इंजनों या अन्य तकनीकी कारणों से कुछ कोटि-शब्द अंग्रेज़ी में भी हो सकते हैं। मूलत: यह एक इलाहाबादी ब्लॉग है उस संगम के तीर(तट) से, जिसमें पवित्र नदियों गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती का मिलन होता है जो यहाँ की साहित्यिक-सांस्कृतिक अन्तर्धारा में प्रवाहित है।
साथी
Tuesday, October 12, 2010
Wednesday, September 29, 2010
सच, और सच के सिवा कुछ नहीं
बहुत दिन से ब्लॉगर की कोई साइट एक्सेस नहीं कर पा रहा था। जीमेल के सिवा कुछ चलता नहीं था, किसी का ब्लॉग पढ़ भी नहीं पाया - सो बज़ पर भी जाना रुका ही सा रहा। वो सारा वक़्त फ़ेसबुक पर बीता, अपने सम्पर्कों (जी हाँ, फ़ेसबुक पर "मित्र" नाम से मित्रता ही न समझिये…जहाँ मित्र बनाने के लिए प्रस्ताव देना पड़ता हो - वहाँ मित्रता नहीं होती - सम्पर्क ही बनते हैं, मेरी समझ और राय है - असहमति तो सभी का मौलिक अधिकार है) से बतियाने में लगा रहा।
दोस्ती तो बज़ पर ही होती है, जहाँ डॉ0 महेश सिन्हा जी ने बहुत अपनेपन से अभी कल ही टेहुनियाया हमको - कि चाहे जितना टरटरा लो - वापस यहीं आना है। वो वास्तव में हमें ट्विटर पर भटका हुआ समझ रहे थे। और था ये कि ट्विटर पर हम बीच-बीच में हाथ साफ़ करने चले जाते थे। आख़िर 140 अक्षरों या कैरेक्टरों में बात कहना एक साइंस टाइप की आर्ट ही तो हुई न! सो सीख जाएँ तो ठीक, वर्ना जाननी तो चाहिए कि कौन सा बटन कहाँ होता है दबाने के लिये - मान लो कल को हमें ऐसी नौबत आ जाए जैसी अमिताभ-शत्रु को दोस्ताना में आई थी - सीधे जहाज़ ही उड़ाना पड़ा था। अब कोई गाड़ी तो है नहीं, ट्विटर है…
सो ये चूँ-चूँ भी कर लेनी चाहिए ताकि जब वक़्त पड़े तो चूँ-चूँ का मुरब्बा न बन जाये।
जो फ़र्क लगा हमें ब्लॉग-ट्विटर-बज़-फ़ेसबुक में, क्योंकि हम ऑर्कुट वाली पीढ़ी के बाद के नेटियाये हुए हैं इस फ़ेज़ में (वर्ना पहला दौर तो हमारा भी वही था - हॉट-मेल वाला, जब याहू नई किस्म की मेल हुआ करती थी) वो भी दर्ज करना चहिये।
1-ट्विटर पर सीमा है, कैरेक्टरों की, बज़ में वो नहीं है। फ़ेसबुक और ब्लॉग तुलनीय नहीं समझे जाने चाहिये इस ट्विटर से।
2- बज़ पर मल्टीमीडिया पोस्टिंग संभव है, ट्विटर पर यह चक्करदार है और विभिन्न लिंकग्रस्तायमान हो जाती है जब ट्वीट - तो माइक्रोब्लॉगिंग की आत्मा मर जाती है। ट्विटर वास्तव में स्टेटस अपडेट्स देने, आपात्काल सूचनाओं के लिए, माइक्रोब्लॉगिंग के तहत गुडमॉर्निंग, आज मैंने ये किया या करूँगा/गी टाइप सेवाओं के लिये ठीक है, मगर किन लोगों के लिए ठीक है?
एक तो वो जो प्रसिद्ध हैं या राजनीति/सिनेमा/मल्टीमीडिया/ऐसे व्यवसाय में हैं कि पब्लिक ओपिनियन, फ़ैन-फ़ॉलोइंग उनके लिए हानि-लाभ तय करती हो - जिनके लिये प्रचार महत्वपूर्ण है - जो जनमत को मोड़ना-घुमाना चाहें उनके लिए बहुत बढ़िया औज़ार है।
दूसरे वो लोग जो प्रत्युत्पन्नमति और व्यंजना / व्यंग्य के प्रति सजग, सहज और कल्पनाशील हैं, जो मीडिया से जुड़े हैं, जो फ़ैशन से जुड़े हैं उनके लिए उत्तम साधन है। इस संबन्ध में मैं श्री झुनझुनवाला, शिवमिश्र (अपने वाले ही), डॉ0यमयम सिंह और सोनिया गाक्सधी की आई डी को उल्लेखनीय समझता हूँ। पहली कोटि में से जो मज़ेदार रहे हैं - वे हैं बिइंगसलमान खान, शाहरुख (आईएमएसआरके, राजदीप सरदेसाई, अनुपम खेर, करनजौहर (केजौहर) और अमिताभ बच्चन (एसआरबच्चन)। साथ ही श्रेया घोषाल और तरन आदर्श भी.
3- ट्विटर का सबसे महत्वपूर्ण गुण उसका मोबाइल पर सहज सुलभ हो सकना है। यह 24 घण्टे सम्पर्क में रहने की आवश्यकताओं को पूरा करता है।
4- फ़ेसबुक में सुरक्षा सम्बन्धी घपलों और खतरों को सबसे पहले ध्यान में रखा जाना चाहिये, इसलिये यह अच्छा होगा कि आप अपनी वास्तविक जानकारी न भरें अपने फ़ेसबुक खाते में - बल्कि कुछ ऐसे परिवर्तन कर के - जो आप तो सहज याद रख सकें अपनी इस कमोबेश फ़र्जी ओरिजिनल आईडी के बारे में - तब अपना खाता प्रयोग करें। यदि आप ऐसा नहीं करते तो आप फ़ेसबुक का पूरा आनन्द नहीं ले पाएँगे, क्योंकि इससे जुड़ा हर टूल आपकी सारी जानकारी को माँगेगा - वर्ना अपनी सेवाएँ नहीं देगा। कम से कम अपने बैंक खातों और अन्य आयकर या सरकारी आईडी से भिन्न सूचनाएँ रखना तो एक न्यूनतम सजगता समझी जानी चाहिए।
5-बज़ में ऐसा कोई घपला नहीं है। बज़ में आपको फ़ेसबुक और ट्विटर का मिला-जुला स्वरूप मिलता है सुविधाओं के हिसाब से और सुरक्षा तो जीमेल की है ही! फ़िलहाल तो यह सर्वोत्कृष्ट ही समझी जा सकती है।
6- मेरी व्यक्तिगत पसन्द जो फ़िलहाल बनी है - वह है जीमेल, ब्लॉग थोड़े बड़े और ऐसे आलेखों के लिए जो पूरी तरह सतही न हों, अड्डेबाज़ी के लिए गूगल-बज़, संपर्क बनाए रखने के लिए फ़ेसबुक और इस सबके साथ मैं ट्विटर पर भी अभी हाथ आज़माता रहूँगा। वास्तव में मुझसे भूल क्या हुई ट्विटर पर जाने में कि मैं ट्विटर न जान-समझ कर वहाँ गया तो नहीं - बस अपने ब्लॉग की पोस्टें स्वत: वहाँ ट्वीट देने के लिए जोड़ दीं। अब जब गया तो लगा कि जैसे मुझे खराब लगता है कि एक तो सिर्फ़ 140 कैरेक्टर की माइक्रो-पोस्ट : उसमें भी ब्लॉग का लिंक…? हद है यार! तो अगर आप ट्वीट करते हैं और आपकी सर्जनात्मकता और बुद्धिकौशल सहज आकर्षित करता है, तो दस प्रतिशत ब्लॉग-लिंक तक चलेगा। लेकिन ब्लॉग-लिंक के बीच दस-प्रतिशत पोस्ट - यह नहीं चलेगा और आपके फ़ॉलोवरों की संख्या इतनी कम रहेगी कि आपको मज़ा ही नहीं आएगा ट्वीट करने में।
7- फ़ेसबुक मुझे इसलिए रास आ रहा है कि मैं इसके टूल्स को समझ पाया हूँ और मोबाइल से सीधे जोड़ रखा है - तो सदा-संपर्क बना रहता है। यही हालत अगर ट्विटर की हो जाए तो मज़ा आ जाए - समय भी बचे और ताज़गी भी बनी रहे। सच तो यह है कि शिव-मिश्र और यमयमसिंह - इन दो के कारण मैं ट्विटर छोड़ नहीं पा रहा। शायद इन्हीं के कारण मैं ट्विटर पर जमने का प्रयास भी करूँ -आगे चल कर, हालाँकि कोई सेलेब्रिटी न होने के कारण मैं सफलता और मौज के प्रति बहुत आशान्वित नहीं हूँ - पर निराश भी नहीं हूँ - क्योंकि जन-मत को अपने अनुसार ढालना मुझे आता है - बख़ूबी। दिखाऊँगा, करके जनाब।
दोस्ती तो बज़ पर ही होती है, जहाँ डॉ0 महेश सिन्हा जी ने बहुत अपनेपन से अभी कल ही टेहुनियाया हमको - कि चाहे जितना टरटरा लो - वापस यहीं आना है। वो वास्तव में हमें ट्विटर पर भटका हुआ समझ रहे थे। और था ये कि ट्विटर पर हम बीच-बीच में हाथ साफ़ करने चले जाते थे। आख़िर 140 अक्षरों या कैरेक्टरों में बात कहना एक साइंस टाइप की आर्ट ही तो हुई न! सो सीख जाएँ तो ठीक, वर्ना जाननी तो चाहिए कि कौन सा बटन कहाँ होता है दबाने के लिये - मान लो कल को हमें ऐसी नौबत आ जाए जैसी अमिताभ-शत्रु को दोस्ताना में आई थी - सीधे जहाज़ ही उड़ाना पड़ा था। अब कोई गाड़ी तो है नहीं, ट्विटर है…
सो ये चूँ-चूँ भी कर लेनी चाहिए ताकि जब वक़्त पड़े तो चूँ-चूँ का मुरब्बा न बन जाये।
जो फ़र्क लगा हमें ब्लॉग-ट्विटर-बज़-फ़ेसबुक में, क्योंकि हम ऑर्कुट वाली पीढ़ी के बाद के नेटियाये हुए हैं इस फ़ेज़ में (वर्ना पहला दौर तो हमारा भी वही था - हॉट-मेल वाला, जब याहू नई किस्म की मेल हुआ करती थी) वो भी दर्ज करना चहिये।
1-ट्विटर पर सीमा है, कैरेक्टरों की, बज़ में वो नहीं है। फ़ेसबुक और ब्लॉग तुलनीय नहीं समझे जाने चाहिये इस ट्विटर से।
2- बज़ पर मल्टीमीडिया पोस्टिंग संभव है, ट्विटर पर यह चक्करदार है और विभिन्न लिंकग्रस्तायमान हो जाती है जब ट्वीट - तो माइक्रोब्लॉगिंग की आत्मा मर जाती है। ट्विटर वास्तव में स्टेटस अपडेट्स देने, आपात्काल सूचनाओं के लिए, माइक्रोब्लॉगिंग के तहत गुडमॉर्निंग, आज मैंने ये किया या करूँगा/गी टाइप सेवाओं के लिये ठीक है, मगर किन लोगों के लिए ठीक है?
एक तो वो जो प्रसिद्ध हैं या राजनीति/सिनेमा/मल्टीमीडिया/ऐसे व्यवसाय में हैं कि पब्लिक ओपिनियन, फ़ैन-फ़ॉलोइंग उनके लिए हानि-लाभ तय करती हो - जिनके लिये प्रचार महत्वपूर्ण है - जो जनमत को मोड़ना-घुमाना चाहें उनके लिए बहुत बढ़िया औज़ार है।
दूसरे वो लोग जो प्रत्युत्पन्नमति और व्यंजना / व्यंग्य के प्रति सजग, सहज और कल्पनाशील हैं, जो मीडिया से जुड़े हैं, जो फ़ैशन से जुड़े हैं उनके लिए उत्तम साधन है। इस संबन्ध में मैं श्री झुनझुनवाला, शिवमिश्र (अपने वाले ही), डॉ0यमयम सिंह और सोनिया गाक्सधी की आई डी को उल्लेखनीय समझता हूँ। पहली कोटि में से जो मज़ेदार रहे हैं - वे हैं बिइंगसलमान खान, शाहरुख (आईएमएसआरके, राजदीप सरदेसाई, अनुपम खेर, करनजौहर (केजौहर) और अमिताभ बच्चन (एसआरबच्चन)। साथ ही श्रेया घोषाल और तरन आदर्श भी.
3- ट्विटर का सबसे महत्वपूर्ण गुण उसका मोबाइल पर सहज सुलभ हो सकना है। यह 24 घण्टे सम्पर्क में रहने की आवश्यकताओं को पूरा करता है।
4- फ़ेसबुक में सुरक्षा सम्बन्धी घपलों और खतरों को सबसे पहले ध्यान में रखा जाना चाहिये, इसलिये यह अच्छा होगा कि आप अपनी वास्तविक जानकारी न भरें अपने फ़ेसबुक खाते में - बल्कि कुछ ऐसे परिवर्तन कर के - जो आप तो सहज याद रख सकें अपनी इस कमोबेश फ़र्जी ओरिजिनल आईडी के बारे में - तब अपना खाता प्रयोग करें। यदि आप ऐसा नहीं करते तो आप फ़ेसबुक का पूरा आनन्द नहीं ले पाएँगे, क्योंकि इससे जुड़ा हर टूल आपकी सारी जानकारी को माँगेगा - वर्ना अपनी सेवाएँ नहीं देगा। कम से कम अपने बैंक खातों और अन्य आयकर या सरकारी आईडी से भिन्न सूचनाएँ रखना तो एक न्यूनतम सजगता समझी जानी चाहिए।
5-बज़ में ऐसा कोई घपला नहीं है। बज़ में आपको फ़ेसबुक और ट्विटर का मिला-जुला स्वरूप मिलता है सुविधाओं के हिसाब से और सुरक्षा तो जीमेल की है ही! फ़िलहाल तो यह सर्वोत्कृष्ट ही समझी जा सकती है।
6- मेरी व्यक्तिगत पसन्द जो फ़िलहाल बनी है - वह है जीमेल, ब्लॉग थोड़े बड़े और ऐसे आलेखों के लिए जो पूरी तरह सतही न हों, अड्डेबाज़ी के लिए गूगल-बज़, संपर्क बनाए रखने के लिए फ़ेसबुक और इस सबके साथ मैं ट्विटर पर भी अभी हाथ आज़माता रहूँगा। वास्तव में मुझसे भूल क्या हुई ट्विटर पर जाने में कि मैं ट्विटर न जान-समझ कर वहाँ गया तो नहीं - बस अपने ब्लॉग की पोस्टें स्वत: वहाँ ट्वीट देने के लिए जोड़ दीं। अब जब गया तो लगा कि जैसे मुझे खराब लगता है कि एक तो सिर्फ़ 140 कैरेक्टर की माइक्रो-पोस्ट : उसमें भी ब्लॉग का लिंक…? हद है यार! तो अगर आप ट्वीट करते हैं और आपकी सर्जनात्मकता और बुद्धिकौशल सहज आकर्षित करता है, तो दस प्रतिशत ब्लॉग-लिंक तक चलेगा। लेकिन ब्लॉग-लिंक के बीच दस-प्रतिशत पोस्ट - यह नहीं चलेगा और आपके फ़ॉलोवरों की संख्या इतनी कम रहेगी कि आपको मज़ा ही नहीं आएगा ट्वीट करने में।
7- फ़ेसबुक मुझे इसलिए रास आ रहा है कि मैं इसके टूल्स को समझ पाया हूँ और मोबाइल से सीधे जोड़ रखा है - तो सदा-संपर्क बना रहता है। यही हालत अगर ट्विटर की हो जाए तो मज़ा आ जाए - समय भी बचे और ताज़गी भी बनी रहे। सच तो यह है कि शिव-मिश्र और यमयमसिंह - इन दो के कारण मैं ट्विटर छोड़ नहीं पा रहा। शायद इन्हीं के कारण मैं ट्विटर पर जमने का प्रयास भी करूँ -आगे चल कर, हालाँकि कोई सेलेब्रिटी न होने के कारण मैं सफलता और मौज के प्रति बहुत आशान्वित नहीं हूँ - पर निराश भी नहीं हूँ - क्योंकि जन-मत को अपने अनुसार ढालना मुझे आता है - बख़ूबी। दिखाऊँगा, करके जनाब।
Tuesday, September 14, 2010
इससे पहले कि बारिश बीत जाए…
इससे पहले कि बारिश बीत जाए…
बारिश हिन्दी सिनेमा की प्रिय ॠतु रही है। गीतकारों को नायक-नायिका को भिगोने में जो आनन्द प्राप्त होता है, उससे ज़्यादा कैमरामैन को शूटिंग करते हुए सुखानुभूतियाँ होती हैं।
दिग्दर्शक को भी आसानी - ज़्यादा विस्तृत प्रबन्ध नहीं करना पड़ता सेट आदि का - बस फ़ुहारा गिराना होता है, और पब्लिक भी ऐसे में क्लोज़-अप शॉट से ज़्यादा परहेज़ नहीं बल्कि उसका स्वागत करती है। महँगी ड्रेसें नहीं लगनीं - सो प्रोड्यूसर भी प्रसन्न।
फिर भी अगर भीगने को ज़ीनत अमान मजबूर हों(मजबूर का अर्थ उद्यत पढ़ें-महिलाओं की शिष्ट भाषा में)- तो 'भारत' झूमने और भीगने को मजबूर हो ही जाता है। वो तो पहले भी कह चुकी हैं कि "मैंने होठों से लगाई तो - हंगामा हो गया"। अब यहाँ क्या कहें क्या हुआ…
मगर यही नहीं समझ पाते नायक अक्सर कि वो नायक हों या नायिका - जिसने भी कहा कि "मैं ना भूलूँगा" या -"मैं ना भूलूँगी" तो उसी को बाद में सेंटियाने की सज़ा भुगतनी पड़ती है। मगर ये नौबत अगर हिन्दी फ़िल्मों में आई हो तो फिर से एक गाना सुनने को तैयार रहिए…
और फिर बिन बादल ही नहीं - बिन बारिश भी बरसती हैं अँखियाँ - मगर अगर ये नैना सावन-भादों न हो पाए हों - क्योंकि हो सकता है कि नायक की भूगोल सम्बन्धी जानकारी कमज़ोर रही हो (जैसा पुराने ज़माने में बहुत संभव था - ज़्यादा पढ़ने-लिखने वाले थोड़े ही आते थे हिन्दी फ़िल्मों के नायक-नायिका बनकर!) या फिर उसे हिन्दी के महीनों के नाम ठीक से न याद हों (जैसा आजकल होता है - कान्वेण्टीयता ने भारतीयता की बलि तो ले ही ली है - बाक़ी आप कहें कुछ भी), या फिर उसे अपने आभिजात्य के तहत नैना सिर्फ़ भिगोना ही जमता हो - तो सिर्फ़ भिगो कर तो यही कह सकता है नायक, कि-
बारिश के मौसम से ता'अल्लुक रखने वाले पसन्दीदा गानों की फ़ेहरिस्त बड़ी लम्बी होती है - हर किसी की, और ये भी काफ़ी दिलचस्प रहता है कि कोई शेयर करे अपनी पसंद के दो-चार गीतों के मुखड़े - तो उस बारिश में भीगकर जाने कितने जंगल हरे हो जाएँ ('जंगल' को 'घाव' पढ़ें)।
ध्यान दें - सदाबहार वनों की बात नहीं हो रही है - जैसे वो गाम्भीर्य ओढ़े ढीले-ढाले लबादे जो कभी अपनी नसीर-हुसैनीय छवि से उबर ही नहीं पाते - जो लगता है कि एक बड़ा सा घाव इन्सानी शक्ल में फिर रहा है।
नसीर हुसैन कौन? अरे याद नहीं - जो पुरानी फ़िल्मों में ज़्यादातर लड़की के पिता बनते थे - और पहले शॉट को अगर बचा भी ले गए तो भी ज़्यादा से ज़्यादा दूसरे शॉट तक रुआँसे हो जाते थे - और तीसरा शॉट (अगर मौक़ा मिला-तो) तो अँखियों से सराबोर किए बिना जाने ही नहीं देते थे… उन्हें फ़िल्म में एण्ट्री लेते देख के ही हम समझ जाते हैं कि इन्हें दिल का दौरा पड़ना तो तय है - अब सट्टा इस बात का खेलना है कि ये इण्टरवल के बाद होगा - या पहले। अगर मध्यान्तर के पूर्व होगा तो फिर भाई! ये निकल भी लेंगे - मगर अगर मध्यान्तर पार कर ले गए तो शायद आख़िर में हैप्पी एण्डिंग की फ़ोटो में आ जाएँ। बाद में इनसे ये चार्ज लेने की ओमप्रकाश जी ने बहुत कोशिश की - रोना और रुलाना तो ठीक, मगर उतना सड़ाक् से मरना नहीं सीख पाए ओम जी।
मगर हम उनकी चर्चा थोड़े ही कर रहे थे… हम तो कह रहे थे कि बारिश बीत जाए इससे पहले ये भेद तो खोल दें हम, कि…
तो चलते-चलते, आप सबको और हिन्दी सिनेमा उद्योग को "दबंग" होने की बधाई - सारे रिकार्ड तोड़ डाले इसने व्यवसाय और अर्जन के - वो भी बिना टिकट के दाम बढ़ाए। जितनी कुल कमाई थी "वाण्टेड" की यूके में - उससे थोड़ा ज़्यादा तो पहले दो दिनों में ही कमा लिया "दबंग" ने - यूके में। आप लोग भी देख लीजिए, मौका निकाल के - सच कहें! हमें तो बड़ी फ़िक्र हो रही है "माननीया मुन्नी जी" की। हम गए थे देखने - हर बार हमारी ही तरफ़ देख-देख के कह रही थीं -"तेरे लिए - तेरे लिए"; अब हम क्या तो कहें? हम तो लजाते भी जा रहे थे और काँपते भी, साइड में देखते जा रहे थे - मैडम बगलै में बइठी रहीं न! क्या यार तुम लोगन को कुच्छौ बुझाता नहीं है - समझता नहीं है कुछ भी… ऊ त ठीक रहा कि मैडम भी - यानी कि सामने ही देखती रहीं - और बादौ में हमसे कुच्छ नाहीं पूछीं। हम तो अब बयान भी देने को तैयार हैं कि महिलाओं की बदनामी हमें व्यक्तिगत स्तर पर ज़रा भी पसन्द नहीं। कहिए तो सरकार से इसी बात पर इस्तीफ़ा माँग लेहा जाए।
……मगर सच्ची बताएँ - अच्छा भी लग रहा था……(इश्श्…)
बारिश हिन्दी सिनेमा की प्रिय ॠतु रही है। गीतकारों को नायक-नायिका को भिगोने में जो आनन्द प्राप्त होता है, उससे ज़्यादा कैमरामैन को शूटिंग करते हुए सुखानुभूतियाँ होती हैं।
दिग्दर्शक को भी आसानी - ज़्यादा विस्तृत प्रबन्ध नहीं करना पड़ता सेट आदि का - बस फ़ुहारा गिराना होता है, और पब्लिक भी ऐसे में क्लोज़-अप शॉट से ज़्यादा परहेज़ नहीं बल्कि उसका स्वागत करती है। महँगी ड्रेसें नहीं लगनीं - सो प्रोड्यूसर भी प्रसन्न।
फिर भी अगर भीगने को ज़ीनत अमान मजबूर हों(मजबूर का अर्थ उद्यत पढ़ें-महिलाओं की शिष्ट भाषा में)- तो 'भारत' झूमने और भीगने को मजबूर हो ही जाता है। वो तो पहले भी कह चुकी हैं कि "मैंने होठों से लगाई तो - हंगामा हो गया"। अब यहाँ क्या कहें क्या हुआ…
मगर यही नहीं समझ पाते नायक अक्सर कि वो नायक हों या नायिका - जिसने भी कहा कि "मैं ना भूलूँगा" या -"मैं ना भूलूँगी" तो उसी को बाद में सेंटियाने की सज़ा भुगतनी पड़ती है। मगर ये नौबत अगर हिन्दी फ़िल्मों में आई हो तो फिर से एक गाना सुनने को तैयार रहिए…
और फिर बिन बादल ही नहीं - बिन बारिश भी बरसती हैं अँखियाँ - मगर अगर ये नैना सावन-भादों न हो पाए हों - क्योंकि हो सकता है कि नायक की भूगोल सम्बन्धी जानकारी कमज़ोर रही हो (जैसा पुराने ज़माने में बहुत संभव था - ज़्यादा पढ़ने-लिखने वाले थोड़े ही आते थे हिन्दी फ़िल्मों के नायक-नायिका बनकर!) या फिर उसे हिन्दी के महीनों के नाम ठीक से न याद हों (जैसा आजकल होता है - कान्वेण्टीयता ने भारतीयता की बलि तो ले ही ली है - बाक़ी आप कहें कुछ भी), या फिर उसे अपने आभिजात्य के तहत नैना सिर्फ़ भिगोना ही जमता हो - तो सिर्फ़ भिगो कर तो यही कह सकता है नायक, कि-
बारिश के मौसम से ता'अल्लुक रखने वाले पसन्दीदा गानों की फ़ेहरिस्त बड़ी लम्बी होती है - हर किसी की, और ये भी काफ़ी दिलचस्प रहता है कि कोई शेयर करे अपनी पसंद के दो-चार गीतों के मुखड़े - तो उस बारिश में भीगकर जाने कितने जंगल हरे हो जाएँ ('जंगल' को 'घाव' पढ़ें)।
ध्यान दें - सदाबहार वनों की बात नहीं हो रही है - जैसे वो गाम्भीर्य ओढ़े ढीले-ढाले लबादे जो कभी अपनी नसीर-हुसैनीय छवि से उबर ही नहीं पाते - जो लगता है कि एक बड़ा सा घाव इन्सानी शक्ल में फिर रहा है।
नसीर हुसैन कौन? अरे याद नहीं - जो पुरानी फ़िल्मों में ज़्यादातर लड़की के पिता बनते थे - और पहले शॉट को अगर बचा भी ले गए तो भी ज़्यादा से ज़्यादा दूसरे शॉट तक रुआँसे हो जाते थे - और तीसरा शॉट (अगर मौक़ा मिला-तो) तो अँखियों से सराबोर किए बिना जाने ही नहीं देते थे… उन्हें फ़िल्म में एण्ट्री लेते देख के ही हम समझ जाते हैं कि इन्हें दिल का दौरा पड़ना तो तय है - अब सट्टा इस बात का खेलना है कि ये इण्टरवल के बाद होगा - या पहले। अगर मध्यान्तर के पूर्व होगा तो फिर भाई! ये निकल भी लेंगे - मगर अगर मध्यान्तर पार कर ले गए तो शायद आख़िर में हैप्पी एण्डिंग की फ़ोटो में आ जाएँ। बाद में इनसे ये चार्ज लेने की ओमप्रकाश जी ने बहुत कोशिश की - रोना और रुलाना तो ठीक, मगर उतना सड़ाक् से मरना नहीं सीख पाए ओम जी।
मगर हम उनकी चर्चा थोड़े ही कर रहे थे… हम तो कह रहे थे कि बारिश बीत जाए इससे पहले ये भेद तो खोल दें हम, कि…
तो चलते-चलते, आप सबको और हिन्दी सिनेमा उद्योग को "दबंग" होने की बधाई - सारे रिकार्ड तोड़ डाले इसने व्यवसाय और अर्जन के - वो भी बिना टिकट के दाम बढ़ाए। जितनी कुल कमाई थी "वाण्टेड" की यूके में - उससे थोड़ा ज़्यादा तो पहले दो दिनों में ही कमा लिया "दबंग" ने - यूके में। आप लोग भी देख लीजिए, मौका निकाल के - सच कहें! हमें तो बड़ी फ़िक्र हो रही है "माननीया मुन्नी जी" की। हम गए थे देखने - हर बार हमारी ही तरफ़ देख-देख के कह रही थीं -"तेरे लिए - तेरे लिए"; अब हम क्या तो कहें? हम तो लजाते भी जा रहे थे और काँपते भी, साइड में देखते जा रहे थे - मैडम बगलै में बइठी रहीं न! क्या यार तुम लोगन को कुच्छौ बुझाता नहीं है - समझता नहीं है कुछ भी… ऊ त ठीक रहा कि मैडम भी - यानी कि सामने ही देखती रहीं - और बादौ में हमसे कुच्छ नाहीं पूछीं। हम तो अब बयान भी देने को तैयार हैं कि महिलाओं की बदनामी हमें व्यक्तिगत स्तर पर ज़रा भी पसन्द नहीं। कहिए तो सरकार से इसी बात पर इस्तीफ़ा माँग लेहा जाए।
……मगर सच्ची बताएँ - अच्छा भी लग रहा था……(इश्श्…)
Saturday, September 4, 2010
परमपिता परमात्मा को प्रणाम!
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुत: स्तुन्वन्ति दिव्यै: स्तवै:
वेदै: साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगा:
ध्यानावस्थिततद्'गतेनमनसा पश्यन्ति यं योगिनो
यस्यान्तं न विदु: सुरासुरगणा: देवाय तस्मै नम:
यह प्रार्थना परमपिता परमात्मा के प्रति सबसे प्यारी स्तुति लगती है मुझे। किसी देवता का झगड़ा नहीं -
वेदै: साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगा:
ध्यानावस्थिततद्'गतेनमनसा पश्यन्ति यं योगिनो
यस्यान्तं न विदु: सुरासुरगणा: देवाय तस्मै नम:
यह प्रार्थना परमपिता परमात्मा के प्रति सबसे प्यारी स्तुति लगती है मुझे। किसी देवता का झगड़ा नहीं -
जो आपको परमतत्व लगता हो -
जिसे ईश मानते हों आप -
उसी को नमन है।
[राणाप्रताप सिंह जी ने सुझाया कि भावार्थ भी दिया जाए, सो सलाह के लिए आभार सहित प्रस्तुत है:]
"जिसकी स्तुति ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र और मरुत(अर्थात् वैदिक देवगण) दिव्य स्तुतियों से करते हैं,
वेदपाठी बटुक जिसके बारे में वैदिक ॠचाओं में पदक्रम निभाते हुए गाते हैं - सभी उपनिषदों और वेदों के अन्य सभी अंगों सहित,
जिसे योगी अपने मन और चित्त को 'उसी' में स्थित करके देख पाते हैं - ध्यान में अवस्थित होकर (समाधि में),
जिसका ओर-छोर भी सुरों और असुरों में से किसी को भी नहीं ज्ञात है,
उसी देवता को (मेरा) नमन है।"
[राणाप्रताप सिंह जी ने सुझाया कि भावार्थ भी दिया जाए, सो सलाह के लिए आभार सहित प्रस्तुत है:]
"जिसकी स्तुति ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र और मरुत(अर्थात् वैदिक देवगण) दिव्य स्तुतियों से करते हैं,
वेदपाठी बटुक जिसके बारे में वैदिक ॠचाओं में पदक्रम निभाते हुए गाते हैं - सभी उपनिषदों और वेदों के अन्य सभी अंगों सहित,
जिसे योगी अपने मन और चित्त को 'उसी' में स्थित करके देख पाते हैं - ध्यान में अवस्थित होकर (समाधि में),
जिसका ओर-छोर भी सुरों और असुरों में से किसी को भी नहीं ज्ञात है,
उसी देवता को (मेरा) नमन है।"
Wednesday, September 1, 2010
देव आनन्द :रूमान में जिया एक ख़्वाब
देव साहब के जन्म माह - सितम्बर में - उनका जन्मदिन तो हालाँकि 26 सितम्बर को आएगा जब वे 87 वर्ष पूरे करेंगे, मगर मैं अपनी शुभकामनाएँ देव आनन्द साहब को इस पूरे महीने देते रहने के लिए, आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर ही यह पोस्ट प्रेषित कर रहा हूँ, सादर। इस सदाबहार नौजवान के लिए महीना भी कम है शायद………
देव आनन्द के नाम से ही रूमानी हो जाने की शुरूआत हो जाती है। जिन्होंने उन्हें देखा - जवानी* में, वो मानेंगे कि देव साहब का स्क्रीन पर आना एक ताज़ा हवा के झोंके का आना होता था - जिसमें मदहोश कर देने वाली ख़ुश्बू और ताज़ा ओस जैसी मासूमियत भरी ताज़गी होती थी।वो जिस रूमान की सृष्टि करते थे - उसे महसूसा और जिया जा सकता था - कम से कम ख़ाबों में तो ज़रूर हर कोई जीता था उसे। उनकी फ़िल्में देखना अपने आप में एक हिल स्टेशन की सैर जैसी ठण्डक देता था - और ताज़ा-दम कर देता था कि आ ज़िन्दगी - तुझसे थोड़ा और प्यार करें - जैसी भी है - अच्छी है और बेहद प्यारी है तू !
शायद इसीलिए देव साहब की आत्मकथा का शीर्षक भी 'रोमान्सिंग विद् लाइफ़' है। वाकई ये शख़्सियत एक जीता - जागता ख़्वाब ही है अपने आप में - जो हमेशा रूमान में ही जिया और रूमान ही बुनता रहा।
देव साहब का प्रथम निर्देशन |
एक फ़िल्मकार के तौर पर देव साहब की सोच हमेशा वक़्त से बीस-पच्चीस साल आगे ही रही। जब उन्होंने "देस-परदेस" बनाई तो जो समस्या उठाई ग़ैर-कानूनी प्रव्रजन की - वो हमने देश के तौर पर महसूस की तक़रीबन पच्चीस साल बाद।
जब नशाख़ोरी की समस्या उन्होंने उठाई - "हरे रामा हरे कृष्णा" में तो वो उस दौर की समस्या होते हुए भी हमें टकराई पन्द्रह साल बाद और विकराल हुई बीस साल बाद। देव आनन्द ने अहिंसा का सवाल उठा कर फ़िल्म पिटवा ली - "प्रेम-पुजारी" और वह नौबत अब विश्व के सामने खड़ी हुई आकर इक्कीसवीं सदी में - आतंकवादी चुनौती बनकर।
गवर्नमेण्ट कॉलेज लाहौर से अंग्रेज़ी साहित्य का यह स्नातक न केवल अपने दौर के - बल्कि हिन्दी सिने उद्योग के कुछ गिने-चुने सर्वकालीन उच्च शिक्षित और सुसंस्कृत स्टार-कलाकारों में से एक है - और उन उँगलियों पर गिने जा सकने योग्य चन्द स्टारों में से एक - जो जीते जी मिथक बन गए।
देव साहब के बारे में जानकारी विकिपीडिया पर भी उपलब्ध है और ढेरों अन्य ब्लॉगों पर भी, बहुत कुछ दोहराए जाने का डर होते हुए भी उनके बारे में लिखना-बात करना भी ताज़गी देता है - और उनकी नकल उतारना भी।
किशोर-जिनका फ़िल्मी कैरियर देव साहब की नक़ल ही रहा... |
उनकी शिक्षा और भारत की आज़ादी के समय की नौजवानी से मिली राजनैतिक जागरूकता ने ही शायद उन्हें उकसाया कि वे श्रीमती गान्धी के आपात्काल का विरोध करें - और उन्होंने एक नेशनल पार्टी भी बना डाली थी उन दिनों।
उस वक़्त जब बड़े-बड़ों की सिट्टी-पिट्टी गुम थी और खुले क्या - छिपे तौर पर भी कोई श्रीमती गान्धी के विरोध में सामने आने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था - सिर्फ़ किशोरकुमार, आईएसजौहर और शत्रुघ्न सिन्हा के अलावा!
बाद में तो हाथी के निकल जाने पर बहुत से शेर फिर से गुर्राने-दहाड़ने लगे…
आर0के0नारायण हों या पर्ल एस0 बक, उनकी पसन्द हमेशा उम्दा रही - फ़िल्मकारों में गुरुदत्त से उनकी मित्रता ने न केवल उम्दा फ़िल्में ही दीं बल्कि और भी कई गुल खिलाए।
देव साहब की साहित्य-संगीत की गहरी समझ से ही जुड़ी रहीं उनकी कुछ ख़ास मित्रताएँ - सचिनदेव बर्मन से, राहुलदेवबर्मन से, किशोरकुमार से और साहिर लुध्यानवी से भी। हसरत जयपुरी और शैलेन्द्र से भी उनकी घनिष्ठता रही है। यह उनकी साहित्य की समझ ही थी जो 'नीरज' के गीतों का रस हम सिने-दर्शकों तक मधुर संगीत-रस में पगा हुआ आता रहा उनकी फ़िल्मों के रास्ते।
आज भारत के सर्वाधिक उच्च-तकनीक से सुसज्जित रिकार्डिंग स्टूडियोज़ में अग्रणी है "आनन्द रिकॉर्डिंग केन्द्र" जहाँ तकरीबन साढ़े तीन हज़ार से अधिक रिकार्डिंग - विश्वस्तरीय की जा चुकी हैं। यह भी देव साहब का ही एक प्रतिष्ठान है।
देव साहब की इसी बहु-आयामी प्रतिभा ने उन्हें पहले प्रोड्यूसर और फिर निर्माता-निर्देशक भी बनाया। 'गोल्डी' उर्फ़ विजय आनन्द और चेतन आनन्द जैसे भाइयों के साथ-साथ देव साहब ने न केवल नवकेतन बैनर को खड़ा किया बल्कि उसका परचम फ़हराते-लहराते भी रहे।
शेखर कपूर - देव आनंद के भांजे |
उनकी इन्हीं बहन के दोनों दामाद (शेखर कपूर जी के दोनों बहनोई) भी मशहूर फ़िल्मी कलाकार रहे हैं - नवीन निश्चल और परीक्षित साहनी (स्व० बलराज साहनी के सुपुत्र - अजय/परीक्षित साहनी)
देव साहब की ज़िन्दगी में 1948 - पहली हिट फ़िल्म 'ज़िद्दी', 1949 - जब उन्होंने नवकेतन बैनर खड़ा किया, 1952 - जब उन्होंने कल्पना कार्तिक से शादी की, 1956 - जब बेटा सुनील पैदा हुआ और 1958 - जब 'काला पानी' के लिए उन्हें बेस्ट एक्टर का अवार्ड पहली बार मिला - ख़ास रहे।
नवकेतन का प्रथम रंगीन चलचित्र |
'गाइड' देव साहब की 1965 में रिलीज़ पहली रंगीन फ़िल्म थी और आज भी सजग सिने-प्रेमियों की पसंदीदा सूची में ऊपर ही गिनी जाती है - राज कपूर की 'मेरा नाम जोकर' की तरह। 'गाइड' के लिए उन्हें दोबारा फ़िल्मफ़ेयर का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला 1966 में।
2000 में उन्हें श्रीमती हिलेरी क्लिंटन, तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति की पत्नी (अतएव यूएस की प्रथम महिला नागरिक) ने अमेरिका में सम्मानित किया, 2001 में 'पद्मभूषण' उपाधि प्रदान की गयी और इसके बाद उन्हें दादासाहेब फाल्के अवार्ड से भारत सरकार द्वारा सम्मानित किया गया।
पुरस्कार और उपाधि का मोहताज नहीं ये दीवाना - जिसके जैसा जीवन जिस किसी को भी मिल जाए - तो उसके लिए तो अपने आप में कुदरत का इनाम ही है ये जिंदगी समझो!
देव आनन्द साहब की आत्मकथा "रोमान्सिंग विद लाइफ़" के विमोचन की तस्वीरें |
उनकी आत्मकथा का महत्व और ज़िक्र इसलिए भी कि यह एक ईमानदार आत्मकथा है - जिसमें उन्होंने अपने सुरैया और जीनत अमान के प्रति लगाव को बेबाकी से स्वीकार किया है - आत्मश्लाघा से भरा स्व-यशोगान नहीं है यहाँ।
मेरी प्रेम-कहानियाँ! |
देव साहब की जोड़ियों में सुरैया से बात शुरू होती है और नूतन, वहीदा रहमान, वैजयन्तीमाला, तनुजा, मुम्ताज़, ज़ीनत अमान, हेमा मालिनी से होती हुई टीना मुनीम तक तो याद रहती है, फिर इसके बाद फ़िल्में हिट न होने से थोड़ा ज़ोर डालना पड़ता है याददाश्त पर।
उनकी खोजों में जैकी श्रॉफ़ का नाम भी आता है - ज़ीनत अमान, टीना मुनीम (अम्बानी) और तब्बू के अलावा। उनके द्वारा फिल्म-निर्माण के लगभग हर क्षेत्र में नयी प्रतिभाओं को अवसर दिया जता रहा है।
हम नौजवान |
और 87वें बरस में जब वे घोषणा करते हैं अपनी ही 1971 में निर्देशित-अभिनीत हिट 'हरे रामा हरे कृष्णा' का रि-मेक बनाने की, तो कोई शक़ कहाँ बाक़ी रह जाता है उनकी जवानी में!
अंतिम दो चित्र - 83 और 85 की उम्र में... |
ये अलग बात है कि जोश और जवानी उसी सिक्के के दूसरे पहलू हैं जिसके एक पहलू को लोग दुस्साहस या बेवकूफ़ी समझते रहे हैं - मगर कला को समर्पित कलाकार तो जुनूनी होता ही है।
और हाँ, जुनूँ में नफे-नुकसान का होश नहीं होता, क्योंकि होश में ऐसा जोश भी तो नहीं होता…!
भले ही 1978 में बनी देस-परदेस उनकी आख़िरी हिट फ़िल्म मानी जाती हो मगर उनके सारे काम में एक ताज़ा और अनोखी क्रिएटिविटी है - जो कभी-कभी भटकती लगती ज़रूर है - शायद एक और हिट की तलाश में - मगर असल में देव साहब इज़ स्टिल रोमान्सिंग विद लाइफ़ - और शायद लार्जर दैन लाइफ़ कैनवास पर…
रोमांसिंग विद लाइफ़... शुभ जन्मदिन, जन्म महीना देव साहब! |
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* {उस जवानी में जो बाक़ायदा क़ायम थी तब तक -जब तक कि उनकी हीरोइनें नानी - दादी बन गयी थीं और चाहने वालियाँ भी - और जो तब तक क़ायम रही जब तक कि उनके बाद की तीसरी पीढ़ी के नायक (अमिताभ बच्चन सहित) अपनी बढ़ती उम्र की दुहाई देकर नौजवानी के रोल करने से गुरेज़ करने लगे - जो तब तक भी क़ायम रही जब तक कि उनकी अदाओं को कॉमेडी का सामान नहीं बना लिया गया और वह भी देव साहब ने बिना किसी गुरेज़ के स्वीकार कर लिया - और जो ज़ेहनी तौर पर अभी भी अपने पूरे जवान जोश के साथ क़ायम है}
पुनश्च: ज़रा ऊपर लिखे नोट को देवसाहब की आवाज़ और अन्दाज़ में सुनने की कोशिश कीजिए…अलग तरह का मज़ा आएगा!
Monday, August 23, 2010
हिन्दी फ़िल्मों और समाज का साथ- 4 (क्रमश: => प्रवासी भारतीय)
हिन्दी फ़िल्मों और समाज का साथ-3 से आगे...अमिताभ ही नहीं, हर फ़िल्म में मारधाड़ करने वाला स्टार ही चल रहा था, चाहे वह मिथुन हों - टैक्सी शशिकपूर रहे हों या फिर नए दौर के संजय दत्त-गोविन्दा-सनीद्योल-अजय देवगन इत्यादि।
इसीलिए इस दौर के अधिकांश नाम बस भीड़ की तरह गिने जाने और लिस्ट में "इत्यादि" ही कहे जाने योग्य रहे क्योंकि हिन्दी सिनेमा के विकास में कोई सार्थक उल्लेखनीय योगदान नज़र नहीं आता इनका - कम से कम आज, एक सिने कलाकार के तौर पर।
वास्तव में इस दौर में खलनायक ने केन्द्रीय भूमिका नायक से लगभग छीन ही ली थी और इसीलिए नायक स्वयं खलनायक बनने लगे - पापी पेट का सवाल जो था।
इसी से इस समयान्तराल में अमरीश पुरी लगभग हर फ़िल्म में थे और पूरे दौर पर हावी रहे। यह भी एक बड़ी वजह रही नायक के हाशियावासी हो जाने की।
सलमान-अक्षय का नाम भी फिर कोई बहुत अलग या उल्लेखनीय नहीं रहा - मगर सलमान अपने विवादों के बावज़ूद और अक्षयकुमार अपनी एक्शनहीरो की छवि को तोड़ कर - सफल और स्तरीय कॉमेडी तक पहुँच सके - इतना ही उल्लेखनीय कहा जा सकेगा।
इस तरह अयोग्य उत्तराधिकारियों के हाथों पड़ी सत्ता की तरह विवशता का दंश झेलता सिने उद्योग और पाइरेसी के अजगर के फन्दे की जकड़न से मजबूर फ़िल्मोद्योग का अर्थतन्त्र जब नए आर्थिक समर्थन की तलाश में अण्डरवर्ल्ड की चौखट पर नाक रगड़ चुके, गुण्डों-माफ़ियाओं के प्रशस्तिगान की गाथाओं से ऊबने लगे तो साथ ही साथ देश का युवा वर्ग अपनी योग्यता के अनुरूप कमा न पाने की ऊबासाँसी से जूझ रहा था।
एक अजीब किस्म की हताशा घेरे थी समाज को।
संपन्नता और विलासितापूर्ण मनोरञ्जन का चोली-दामन का साथ है।
संपन्न लोग विलासिता, प्रमाद, आलस्य और दरबारी-मानसिकता के तहत मनोरंजन चाहते हैं - अपना समय बिताने के लिए।
उसी तरह जब समाज को हताशा घेरती है तो आम आदमी अधूरी इच्छाओं के पूरे होने के सपने देखने का आसरा तलाशता है सिने उद्योग, नाटक जैसे परिष्कृत माध्यमों से लेकर नौटंकी और जात्रा आदि लोक-कलाओं में। इसी तरह कुछ लोगों की निजी संपन्नता का ताल्लुक़ बहुत से लोगों की सामूहिक विपन्नता और तज्जनित हताशा से होता है -तो दोनों ही वर्ग अपने-अपने कारणों से मनोरञ्जन की ओर उन्मुख होते हैं।
आर्थिक विपन्नता और हताशा का युग लॉटरी-जुआ-मटका-नशा आदि के लिए भी वरदान जैसा साबित होता है। जब सबकुछ सहज हो और जेब में पैसा 25 तारीख़ के बाद भी रह जाता हो - तब मध्यमवर्ग शेयर बाज़ार का रुख़ करता है - हज़ारों के लुटने की कीमत पर दस-बीस के संपन्न होने के लिए। इन सभी परिस्थितियों से गुज़र चुकने के बाद एक पूरी पीढ़ी हताश होती है, साथ ही बुद्धिमान भी - और फिर ये ग़लतियाँ वो याद रखती है - मगर छोड़ देती है अगली पीढ़ी के दुहराने के लिए। फिर इसी हताशा जनमती है जीवन-चक्र की अगली दिशा और तय होती है यहाँ से आगे की गति भी।
तो ये जो सिनेमा बनना शुरू हुआ परदेसी दर्शकों के लिए - इसके लिए ज़रुरी हो गया कि थोड़ा सा अपनी संस्कृति का गुणगान करें - थोड़ा बुज़ुर्गों का सम्मान भी। जब सिनेमा पक जाए तो छौंक लगा लें थोड़ा सा देशभक्ति और 'गंगा', सरसों के खेत, बस-ट्रैक्टर जैसी चीज़ों से।
अब साथ ही समस्याएँ भी वो दिखानी पड़ीं जो विदेश में रहने वालों की होती हैं - या फिर उनके पास विदेश जाने वालों की। इस बहाव में राज-कपूर के आर0के0बैनर को लेकर ॠषिकपूर भी कूदे - "आ अब लौट चलें" बनाकर।
हताशा की बात यह रही कि राजकपूर जैसी समझ किसी में नहीं थी - न 'हिना' के दिग्दर्शक रणधीर कपूर में - न इस बार ॠषि कपूर में। इस बीच 'प्रेमग्रन्थ' के अनुभव से यह साबित हो चुका था कि यह राज कपूर ही थे जो अपने डूबते बैनर को दुबारा उबार सके थे - 'बॉबी' के किशोर प्रेम चित्रण से क्योंकि राज जी ही समझते थे नब्ज़ - अपने दर्शकों की पसन्द की भी और ज़माने की बदलती हवा की भी। दिग्दर्शक के तौर पर कोई कपूर उनके आस-पास भी फटकता नहीं दिखा अब तक, कपूर ही क्यों - दूसरा भी कोई नहीं।
ये उन्हीं की विशाल से विशालतर स्तर पर ख़्वाब देखने और उसे रुपहले पर्दे पर साकार कर सकने की क्षमता थी जो 'सत्यम् शिवम् सुन्दरम्' और 'मेरा नाम जोकर' को बना सकी और व्यावसायिक असफलता को झेल भी सकी। इसके बाद राज जी फिर से 'प्रेम-रोग' और 'राम तेरी गंगा मैली' बनाते हैं और अपने ख़्वाब देखने की कीमत के तौर पर उठाए नुक्सान की भरपाई कर सकने में सफल होते हैं - वही परोस कर जो ज़माना चाहता था ।
यह सफलताएँ बड़ी भारी सफलताएँ सिर्फ़ इसलिए नहीं थीं कि ये आर0के0 बैनर को घाटे से उबार सकीं, बल्कि इसलिए ये ज़्यादा बड़ी सफलताएँ थीं क्योंकि ये उस दौर में क़ामयाबी की हक़दार बनीं जब हिंसा और बाज़ारूपन अपने चरम पर था।
आमिर ख़ान और कमल हासन ने वास्तव में बड़ी कठिन और जी-तोड़ मेहनत की हिन्दी सिनेमा को विश्वस्तर का बनाने में - व्यावसायिक सिनेमा में जीते हुए कलात्मक पक्ष को भी ऊँचाई तक ले जाने में। उनकी अपनी लगन और जीवट, निष्ठा और समर्पण के साथ अपना किरदार जीवन्त करने की योग्यता के लिए ये लम्बी अवधि तक याद रखे जाने योग्य हैं।
संजीव कुमार और प्राण के बाद शायद ही कोई इतना जुनूनी कलाकार हिन्दी सिनेमा में हुआ हो अपनी अदाकारी और चरित्र उकेरने की विविधता के लिए - जितना आमिर और कमल हुए। नसीर और अनुपम खेर ने भी काफ़ी अच्छी कोशिशें कीं मगर उस सीमा तक नहीं गए - जितनी लगन और समर्पण इन दोनों में दिखे।
अनुपम खेर तो सारांश के बाद दिखे ही सिर्फ़ "मैंने गान्धी…" में - उस तरह से - या फिर "खोसला का घोंसला" में बोमन ईरानी के साथ झलके, बाक़ी तो वे भी स्टार-कलाकार से ही हो गए। नसीर कला फ़िल्मों से आए और अपना एक स्टारत्व क्रिएट कर लिया - जिस सिस्टम की "कला या समान्तर सिनेमा" वाले मुख़ालफ़त करते थे - जब तक स्टार नहीं थे ख़ुद।
इसीलिए इस दौर के अधिकांश नाम बस भीड़ की तरह गिने जाने और लिस्ट में "इत्यादि" ही कहे जाने योग्य रहे क्योंकि हिन्दी सिनेमा के विकास में कोई सार्थक उल्लेखनीय योगदान नज़र नहीं आता इनका - कम से कम आज, एक सिने कलाकार के तौर पर।
वास्तव में इस दौर में खलनायक ने केन्द्रीय भूमिका नायक से लगभग छीन ही ली थी और इसीलिए नायक स्वयं खलनायक बनने लगे - पापी पेट का सवाल जो था।
मोगैंबो की ख़ुशियों का दौर चला नायक झींगुरत्व को प्राप्त हुआ |
सलमान-अक्षय का नाम भी फिर कोई बहुत अलग या उल्लेखनीय नहीं रहा - मगर सलमान अपने विवादों के बावज़ूद और अक्षयकुमार अपनी एक्शनहीरो की छवि को तोड़ कर - सफल और स्तरीय कॉमेडी तक पहुँच सके - इतना ही उल्लेखनीय कहा जा सकेगा।
महिमा मण्डित अपराध |
एक अजीब किस्म की हताशा घेरे थी समाज को।
दरबार-विलास |
संपन्नता और विलासितापूर्ण मनोरञ्जन का चोली-दामन का साथ है।
संपन्न लोग विलासिता, प्रमाद, आलस्य और दरबारी-मानसिकता के तहत मनोरंजन चाहते हैं - अपना समय बिताने के लिए।
उसी तरह जब समाज को हताशा घेरती है तो आम आदमी अधूरी इच्छाओं के पूरे होने के सपने देखने का आसरा तलाशता है सिने उद्योग, नाटक जैसे परिष्कृत माध्यमों से लेकर नौटंकी और जात्रा आदि लोक-कलाओं में। इसी तरह कुछ लोगों की निजी संपन्नता का ताल्लुक़ बहुत से लोगों की सामूहिक विपन्नता और तज्जनित हताशा से होता है -तो दोनों ही वर्ग अपने-अपने कारणों से मनोरञ्जन की ओर उन्मुख होते हैं।
आर्थिक विपन्नता और हताशा का युग लॉटरी-जुआ-मटका-नशा आदि के लिए भी वरदान जैसा साबित होता है। जब सबकुछ सहज हो और जेब में पैसा 25 तारीख़ के बाद भी रह जाता हो - तब मध्यमवर्ग शेयर बाज़ार का रुख़ करता है - हज़ारों के लुटने की कीमत पर दस-बीस के संपन्न होने के लिए। इन सभी परिस्थितियों से गुज़र चुकने के बाद एक पूरी पीढ़ी हताश होती है, साथ ही बुद्धिमान भी - और फिर ये ग़लतियाँ वो याद रखती है - मगर छोड़ देती है अगली पीढ़ी के दुहराने के लिए। फिर इसी हताशा जनमती है जीवन-चक्र की अगली दिशा और तय होती है यहाँ से आगे की गति भी।
अवसाद की कला |
इसी तरह यह भी तय है कि हताशा से जनित होता है या तो अवसाद, या पलायन। सामूहिक हताशा से यह सब सामूहिक हो जाता है। अवसाद से भ्रमित और ग्रसित सिनेमा बेनेगल-नसीरउद्दीन शाह-ओमपुरी के दौर का उत्पाद रहा तो पलायन उसके भी बाद की स्थिति बनी।
मिथुन - मृणाल सेन की कृति "मृगया" में राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता: गनमास्टर जी9-डिस्कोडान्सर |
एक पलायन फ़िल्मों में भी दिखता रहा - मिथुन और नसीर जैसे उच्च-कोटि के कलाकार जो कला-फ़िल्मों की उपज थे मगर पलायन कर गए स्टारडम की ओर। देश में भी ऐसा ही हुआ - देश में सूखे पड़े मरुथल ने युवा-प्रतिभा को विदेशों की ओर उन्मुख किया और एक नया दर्शक वर्ग पैदा हुआ - प्रवासी भारतीय।
सूचना-तकनीक के घोड़े पर सवार सारे राजा बेटा विदेश जाकर कमाने लगे और उनकी समृद्धि की फ़सल न केवल उनके सम्बन्धियों के पास देश में लहलहाई, बल्कि सिनेमा देखने के और बनाने के भी, तौर ही बदल गए! कुछ आयातित समृद्धि से, कुछ अत्याधुनिक उपकरणों से और कुछ आधुनिक तकनीक से जो कम्प्यूटर के जीवन के हर क्षेत्र में बढ़ते दख़ल और सञ्चार-माध्यमों की निर्विवाद तुरन्त पहुँच से जनित थे। यह वर्ग इतना बड़ा अंशदान दे रहा था सिनेमा-उद्योग के लाभांश में कि धीरे-धीरे सिनेमा इसी वर्ग के लिए बनाया जाने लगा।
सूचना-तकनीक के घोड़े पर सवार सारे राजा बेटा विदेश जाकर कमाने लगे और उनकी समृद्धि की फ़सल न केवल उनके सम्बन्धियों के पास देश में लहलहाई, बल्कि सिनेमा देखने के और बनाने के भी, तौर ही बदल गए! कुछ आयातित समृद्धि से, कुछ अत्याधुनिक उपकरणों से और कुछ आधुनिक तकनीक से जो कम्प्यूटर के जीवन के हर क्षेत्र में बढ़ते दख़ल और सञ्चार-माध्यमों की निर्विवाद तुरन्त पहुँच से जनित थे। यह वर्ग इतना बड़ा अंशदान दे रहा था सिनेमा-उद्योग के लाभांश में कि धीरे-धीरे सिनेमा इसी वर्ग के लिए बनाया जाने लगा।
प्रेम-कथा |
यों कहें कि जो 'विजय' या 'रवि' होने से बमुश्किल तमाम 'प्रेम' होना सीख पाया था इस दौरान - वो अब एकाएक 'राज' होने लग गया।
हालाँकि बीच-बीच में वो 'प्रेम' भी हो जाता था, मगर ज़्यादातर वो 'राज' ही रहा।
और ये 'राज' पहली बार शाहरुख़ ख़ान नहीं बने थे - आमिर ख़ान बने थे - "क़यामत से कयामत तक" में। 'प्रेम' सलमान ख़ान से लेकर आज तक ज़िन्दा है - रणबीर कपूर की शक्ल में।
और ये 'राज' पहली बार शाहरुख़ ख़ान नहीं बने थे - आमिर ख़ान बने थे - "क़यामत से कयामत तक" में। 'प्रेम' सलमान ख़ान से लेकर आज तक ज़िन्दा है - रणबीर कपूर की शक्ल में।
प्रेम से वाण्टेड तक - हिन्दी सिनेमा का हीरो चाहे अक्षय हों, शाहरुख़ या ख़ुद सलमान |
इस एनआरआई वर्ग के चहेते हीरो बने शाहरुख़ ख़ान और सफलतम बैनर बने यशराज बैनर, आदित्य चोपड़ा और जौहर परिवार के करण जौहर।
निर्यात हेतु - एक्सपोर्ट क्वालिटी |
आल्प्स के ढलानों से सरसों के खेतों तक- "कम फ़ॉल इन लव - आओ प्यार में गिर पड़ो" |
प्रेम: वाकई दु:साध्य-रोग |
'जोकर' जीवन्त : नीली आँखों का सूनापन होठों पर मुस्कान - दर्द भरी |
सुन्दरम् ही सुन्दरम् ! |
पद्मश्री कमलाहासन |
आमिर : सिर्फ़ एक और ख़ान नहीं |
अनुपम खेर तो सारांश के बाद दिखे ही सिर्फ़ "मैंने गान्धी…" में - उस तरह से - या फिर "खोसला का घोंसला" में बोमन ईरानी के साथ झलके, बाक़ी तो वे भी स्टार-कलाकार से ही हो गए। नसीर कला फ़िल्मों से आए और अपना एक स्टारत्व क्रिएट कर लिया - जिस सिस्टम की "कला या समान्तर सिनेमा" वाले मुख़ालफ़त करते थे - जब तक स्टार नहीं थे ख़ुद।
(क्रमश:)
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